वैसे तो आजाद भारत में विविधता में एकता के अभाव को लेकर समय-समय पर चिंता व्यक्त की जाती रही है,किन्तु हाल के दिनों में कुछ लेखकों की हत्या सहित दादरी में एक व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या किये जाने,गोमांस विवाद और कुछ अन्य घटनाओं को लेकर देश में एक ऐसा अप्रिय माहौल बन गया है कि राष्ट्र इसे लेकर अभूतपूर्व रूप से चिंतित हो उठा है. इस अप्रिय वातावरण से मूडीज द्वारा देश के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की सम्भावना व्यक्त किये जाने के बाद विविधता में एकता को शिद्दत के साथ बढ़ावा दिए जाने की जरुरत का अहसास कराते हुए प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं,राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी,भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और इनफ़ोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने भी देश में विकास की गति को बनाए रखने के लिए सौहार्द,सहिष्णुता और आपसी सहयोग जैसे सामाजिक मूल्यों को बचाए रखने की जरुरत बताई है.अब इस कड़ी में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राष्ट्र को सचेत करते हुए कह दिया है कि अगर विविधता ,धर्मनिरपेक्षता और बहुलता के प्रति सम्मान नहीं होगा तब गणतंत्र के समक्ष खतरा हो सकता है.नवोन्मेष,उद्यमिता और प्रतिस्पर्धा के लिए खुला समाज और उदार नीति पूर्व शर्त है.
बहरहाल जहाँ तक भारत की विविधता में एकता का सवाल है अंग्रेज इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कहा था-‘भारत की विविधता में एकता है.’उनकी उस बात को आधुनिक भारत के रूपकार पंडित नेहरु से लेकर तमाम छोटे-बड़े नेता-लेखक-पत्रकार एवं शिक्षाविदों ने आंख मूंदकर प्रचारित किया.आज भी पाठ्य पुस्तकों में धड़ल्ले से पढाया जा रहा है-’भारत की विविधता में एकता है.’भारत की विविधता के विषय में बंधी-बंधाई इस अवधारणा को एक बौद्धिक अपराध से भिन्न कुछ कहा ही नहीं जा सकता.क्योंकि हमारी भाषाई,धार्मिक,सांस्कृतिक,क्षेत्रीय,सामाजिक और लैंगिक इत्यादि हर तरह की विविधता में एकता नहीं शत्रुता,शत्रुता और सिर्फ शत्रुता का बोलबाला है.स्वाधीन भारत के शासकों और लेखक-कलाकार-शिक्षाविदों इत्यादि द्वारा विविधता में एकता का मिथ्या प्रचार करते रहने के कारण इसमें व्याप्त शत्रुता के शमन की दिशा में बलिष्ठ प्रयास ही नहीं हुआ,जिसके फलस्वरूप हमारा राष्ट्र समता,भ्रातृत्व,समरसता का कंगाल बनकर रह गया है.हां,हमारे राष्ट्र निर्माताओं को शायद आज की स्थिति का इल्म था इसलिए उन्होंने विविधता में व्याप्त शत्रुता के शमन की कामना की थी.उनकी इस भावना को शब्द देते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चन्द्र-मृदुला मुखर्जी–आदित्य मुखर्जी ने ‘आज़ादी के बाद का भारत’जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है—
‘1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ेपन,भयंकर गरीबी ,करीब-करीब निरक्षरता,व्यापक तौर पर फैली महामारी,भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी.15 अगस्त पहला पड़ाव था,यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था:शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था,स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था.भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना,राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था.यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए.इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं.भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.’
आज़ादी के बाद के भारत का उपरोक्त अंश को देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे शासकों को इस बात का थोडा बहुत इल्म था कि राजसत्ता का इस्तेमाल विविधता के प्रतिबिम्बन के लिए करना है.यही कारण है उन्होंने किया मगर,प्रतीकात्मक.जैसे हाल के वर्षों में हमने लोकतंत्र के मदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री,महिला राष्ट्रपति ,मुसलमान उप-राष्ट्रपति,दलित लोकसभा स्पीकर और आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप में सामाजिक और लैंगिक विविधता का शानदार नमूना देखा.किन्तु यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-टीवी,शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश,अध्यापन और पौरोहित्य इत्यादि शक्ति के प्रमुख स्रोतों में प्रस्तुत नहीं किया गया.चूँकि शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक-सांस्कृतिक ) में भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन प्रायः नहीं के बराबर हुआ इसलिए आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है,भीषणतम साम्राज्य भारत में कायम हुआ.
इस विषय में हाल ही में क्रेडिट सुइसे नामक एजेंसी ने वैश्विक धन बंटवारे पर जो अपनी छठवीं रिपोर्ट प्रस्तुत की है वह काबिले गौर है.रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है.रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ उसका 81 प्रतिशत टॉप की दस प्रतिशत आबादी के पास गया.जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत जनता के हिस्से में 19 प्रतिशत धन गया.19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के 4.1 प्रतिशत धन है.इस रिपोर्ट पर राय देते हुए एक अखबार ने लिखा-‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है.सरकारी और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण पुनर्वितरण कैसे हो,यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है.’ दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारी विविधता में कथित एकता की जगह शत्रुता का जो बोलबाला है वह स्वाधीन भारत के शासकों द्वारा संपदा-संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे की अनदेखी के कारण ही है. ऐसे में यदि देश के लेखक,प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति,उद्योपति इत्यादि एकता के प्रति सचमुच चिंतित हैं तो उन्हें विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य संपदा-संसाधनों के न्यायपूर्ण के ठोस कार्ययोजना बनानी पड़ेगी. इस मामले में वे अमेरिका से प्रेरणा लेने से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता.
आजाद भारत में फिल्म,टीवी,साहित्य,फैशन,आधुनिक व्यवसाय इत्यादि का जो विकसित रूप नजर आता है,वह प्रधानतः अमेरिका से से उधार लिया हुआ है.भारत की भांति ही अमेरिका भी भारी विविधता(डाइवर्सिटी) वाला देश है.भारत में जैसे छः सहस्राधिक जाति और ढेरों धर्मों से निर्मित सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक जैसे चार प्रधान सामाजिक समूह हैं,वैसे ही अमेरिका में गोरों,रेड इंडियंस,कालों और हिस्पैनिक्स के रूप में चार समूह हैं,जिनके पृथक्कीकरण का आधार शरीर का रंग हैं.भारत की तरह वहां की भी सामाजिक विविधता में शत्रुता का बोलबाला था.कारण,जैसे भारत के वर्ण –व्यवस्था के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी तबके का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार है,उसी तरह का वर्चस्व वहां के गोरों का था. जाहिर है जहां बेहिसाब गैर-बराबरी होगी वहां देर-सवेर वंचित विद्रोह करेंगे ही.अमेरिका में साठ के दशक इस वंचना के विरुद्ध भारत के दलितों के प्रतिरूप कालों ने दंगों की शक्ल में विद्रोह ऐसी तरंगे पैदा की कि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी की भांति विकास के परम आकांक्षी अमेरिका के तत्कालीन प्रेसिडेंट लिंडन बी जॉनसन उसकी अनदेखी न कर सके. उन्होंने भारतीयों की भांति विविधता में एकता का ढोल बजा कर विद्रोह के स्वर को दबाने की चाल नहीं चली.इसके विपरीत उन्होंने विविधता में सचमुच की एकता कायम करने की दिशा में ठोस कदम उठाने का मन बनाया.इसके लिए उन्होंने जस्टिस ओट्टो कर्नर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया जिसे विद्रोह के कारणों का पता लगाने और और निराकरण का उपाय सुझाने का जिम्मा सौंपा गया.अमेरिकी सरकार चाहती तो वंचितों को जुबानी राहत देने के लिए आयोग की रिपोर्ट सालों तक टाले रख सकती थी जैसा कि विविधतामय भारत में अक्सर होते रहता है.लेकिन अमेरिकी सरकार की नीयत सही थी इसलिए 27 जुलाई, 1967 को गठित हुए ऐतिहासिक कर्नर आयोग की रिपोर्ट 15 मार्च,1968 को प्रकाशित कर दी गयी. आयोग ने नस्लीय दंगों से उपजी अशांति के कारणों की खोजबीन करते हुए अपनी विस्तृत रिपोर्ट में कहा था-‘अमेरिका श्वेत व अश्वेत के दो भागों में विभाजित हो रहा है जिसका आधार अलगाव और विषमता है.’उसने अलगाव व विषमता से राष्ट्र को निजात दिलाने और समृद्धि के लिए सद्भाव और एकता को बढ़ावा देने के लिए अश्वेतों को शासन-प्रशासन,जमीन-जायदाद,उद्योग-धंधों,नौकरी,शिक्षा,फिल्म-मीडिया इत्यादि शक्ति के सभी स्रोतों में भागीदार बनाने का सुझाव पेश किया.
कर्नर आयोग की सिफारिशों का सम्मान करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी.जॉन्सन ने राष्ट्र की समृद्धि के लिए शांति को ध्यान में रखकर वंचित नस्लीय समूहों को शक्ति के समस्त स्रोतों में शेयर दिलाने का निर्णय लिया.इसके लिए उन्होंने भारत की आरक्षण प्रणाली से आइडिया उधार लेकर विभिन्न नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व सिर्फ नौकरियों में ही नहीं,उद्योग-व्यापार में सुनिश्चित कराने की नीति अख्तियार किया.उनकी प्रत्येक नस्लीय समूह को सम्पदा-संसाधनों में शेयर सुलभ कराने वाली जॉनसन की उस विविधता नीति(डाइवर्सिटी पॉलिसी) को उनके बाद के राष्ट्रपतियों निक्सन,कार्टर,रीगन ने भी आगे बढाया.फलस्वरूप कालों,रेड इंडियंस,हिस्पैनिक,एशियन पैसिफिक मूल के लोगों सहित प्रायः 28 प्रतिशत अश्वेतों का धीरे-धीरे नहीं,बड़ी तेजी से सप्लाई,डीलरशिप,ठेंकों,फिल्म-मीडिया इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में ही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ.ऐसा होने पर कलहरत विभिन्न नस्लीय समुदायों के मध्य एकता और सद्भावना का संचार हुआ,जो कालान्तर में अमेरिका के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने का आधार बना.लेकिन विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र विगत एक साल से अश्वेतों के फर्ग्यूसन प्रोटेस्ट से फिर एक बार अशांति से घिर गया.उसका कारण यह है कि जॉनसन की डाइवर्सिटी पालिसी से अश्वेतों को ढेरों क्षेत्रों में शेयर मिलने के बावजूद पुलिस बल और न्यायपालिका इत्यादि जैसे कुछ क्षेत्रों में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिली जिसके कारण उन्हें श्वेत दमन का सामना करना पड़ रहा है.इससे आक्रोशित हो कर ही वे फर्ग्यूसन विरोध की तरंगे पैदा किये जा रहे हैं.ऐसे में संभव है अमेरिका अपनी प्रगति को अटूट रखने के लिए वंचित नस्लीय समूहों को न्यायपालिका और पुलिस बल में भी वाजिब हिस्सेदारी दिलाने का कोई उपक्रम चलाये.बहरहाल भारत के नेता और उद्योगपति यदि सचमुच विकास के लिए शांति और सद्भावना के लिए आकांक्षी हैं तो उन्हें अमेरिका की भांति भारत की सामाजिक और लैंगिक विविधता को शक्ति के समस्त स्रोतों में प्रतिबिम्बित कराने की ठोस कार्ययोजना बनानी होगी.बिना ऐसा किये विविधता में एकता दिवा-स्वप्न बनी रहेगी.
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