14.12.15

अरब स्प्रिंग से तीसरे संभावित विश्व युद्ध तक...


-इमामुद्दीन अलीग-
सीरिया व इराक में जारी युद्ध और उसके वैश्विक प्रभाव को देखते हुए इस समय दुनिया भर से तीसरे विश्व युद्ध के शुरू होने की आशंका जताई जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून और ईसाइयों के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप फ्रांसिस समेत दुनिया भर के कई बड़े नेता और बुद्धिजीवी भी स्पष्ट शब्दों में कह चुके हैं कि इस समय दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध के खतरों का सामना करना पड़ सकता है। अगर इस मुद्दे की जड़ में जाकर गंभीरता से विचार किया जाए कि अंततः विश्व युद्ध जैसी स्तिथि क्यों बनी तो सबसे पहले जो कारण सामने आता है वह है पश्चिमी देशों द्वारा आवश्यकता से अधिक इजराइल का बचाव करने की रणनीति, जबकि दूसरा महत्वपूर्ण कारण साम्राज्यवादी शक्तियों की महत्त्वाकांक्षाएं हैं।


बहुत से लोग प्रत्यक्ष रूप से इसके लिए इस्लाम धर्म या मुसलमानों को उग्र स्वाभाव का बताते हुए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने का प्रयास करते हैं जो कि पूर्णतः निराधार है, क्यों कि सीरिया युद्ध समेत पूरे अरब जगत में इस समय जो स्तिथि है शुरूआत दरअसल अरब स्प्रिंग से 2010 में ट्यूनीशिया से हुई। क्रांति की इस बयार से पहले सम्पूर्ण अरब जगत में एक लम्बे समय से यथास्थिति और मृत रूपी सन्नाटा पसरा हुआ था और इस लम्बे अंतराल में कई अन्य भू भागों में क्रांति की लहरें उठीं मगर अरबों पर इनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। दरअसल क्रांति और परिवर्तन प्रकृति का एक अटल नियम है और इसी नियम के अंतर्गत ही अरब जगत में ट्यूनीशिया से लोकतंत्र की बयार चली थी जो जल्द ही क्रांति की लहर और फिर एक भयानक युद्ध में परिवर्तित हो गयी। इस के लिए इस्लाम धर्म या मुसलमानों को उग्र बताना एक निराधार आरोप के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

तानाशाह सरकारों के विरुद्ध लोकतंत्र की मांग पर आधारित जुलूस और धरनों तक सीमित अरब स्प्रिंग की यह लहर तब तक एक शांतिपूर्ण लहर थी जब तक कि इजराइल समर्थक पश्चिमी सरकारों को इजरायल की सुरक्षा को लेकर चिंता न पैदा हुई। जब इन शक्तियों को लगा कि यह शांतिपूर्ण मगर क्रन्तिकारी लहर इसरायली राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकती है तो इन वैश्विक शक्तियों ने अरब स्प्रिंग हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। एक ओर जहां इजराइल से सम्बंधित चिंताओं ने लोकतंत्र समर्थक पश्चिमी देशों को लोकतांत्रिक लहर के ही खिलाफ खड़ा होने पर मजबूर कर दिया तो वहीं दूसरी ओर अरब देशों के तानाशाहों के होश भी उड़ चुके थे, क्योंकि पश्चिमी देशों के साथ अरब के तानाशाहों को भी यह अच्छी तरह मालूम था कि लोकतांत्रिक शासन अपने आप में कोई ऐसी ठोस और गैर लचीली व्यवस्था नहीं है जिस में क्षेत्र और जनता के बदलने से कोई बदलाव न हो। लोकतंत्र तो क्षेत्र की बहुसंख्यक जनता की इच्छा व मंशा और उनके रुझान से प्रभावित शासन व्यवस्था है और यदि इस क्रांतिकारी लहर के परिणामस्वरूप मुस्लिम बाहुल्य अरब देशों में इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित हो गई तो वहां न तो शरणार्थी फिलीस्तीनियों की जमीन पर बसे इसराइल के लिए कोई जगह होती और न तानाशाहों के लिए ही इसमें कोई गुंजाइश होती।

यही कारण है कि अरब स्प्रिंग की इस लहर ने जब ट्यूनीशिया से निकलकर यमन और मिस्र में प्रवेश किया और पश्चिम व इजराइल समर्थित मिस्री हुस्नी मुबारक सरकार की नींव उखड़ गईं तो पश्चिमी शक्तियों के होश उड़ गए। अरब में लगातार अपनी कठपुतली सरकारों के जाने से इजराइल का अंधा समर्थन करने वाले पश्चिमी देशों को यह विश्वास हो चला था कि अगर यह लहर यूं ही अपनी असल स्प्रिट के साथ चलती रही और मिस्र की तरह इजरायल के अन्य पडोसी देशों में अरब मुसलमानों की मंशा और इच्छानुसार लोकतांत्रिक सरकारें स्थापित हो गईं तो एक न एक दिन इस क्षेत्र से अवैध रूप से बसे यहूदियों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ेगा, उन्हें इस धरती को उनके मूल निवासी फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए खाली करना पड़ेगा।

इससे अरब क्षेत्र से पश्चिमी देशों के हितों का सफाया हो जाने की संभावना भी थी। जिसके बाद पश्चिमी शक्तियों ने जहां एक ओर मिस्र में अरब स्प्रिंग के परिणामस्वरूप मुर्सी की नौनिर्वाचित सरकार का तख्ता पलट करवा कर वहां फिर से इजराइल समर्थित कठपुतली सरकार खड़ी कर दी तो वहीं दूसरी ओर लीबिया में प्रवेश कर चुकी इस लहर का लाभ उठाते हुए इन देशों ने प्रदर्शनकारियों को हथ्यार सप्लाई कर अपने कट्टर विरोधी मुअम्मर गद्दाफ़ी से बदला लेने का काम लिया जिसमें उन्हें सफलता भी मिली लेकिन वहां अभी तक अपनी मर्ज़ी की सरकार का सिक्का चलाने में सफल नहीं हो सके। दूसरी ओर यमन में भी प्रदर्शनकारियों को सालेह की कठपुतली सरकार से मिली आज़ादी को भी इन देशों ने धीरे धीरे गृहयुद्ध में बदल दिया और बाद में ईरान और फिर सऊदी अरब के हस्तक्षेप ने जनता को मिली सफलता को विफलता में बदलकर उसे शिया सुन्नी की लड़ाई बना दिया।

इजराइल समर्थक पश्चिमी देशों समेत ईरान व अरब देशों को देशों को वास्तविक परेशानी तब हुई जब अरब स्प्रिंग की यह लहर मिस्र से होते हुए सीरिया में प्रवेश कर गई। सीरिया, इजराइल का पड़ोसी देश है और उसकी लंबी सीमा इसराइल से मिलती है, इसलिए सीरिया में बदलाव आने का मतलब था इसराइल के लिए मिस्र की तरह एक नई चुनौती खड़ी होना। सीरिया के तानाशाह असद एक तरफ ईरान और उसके समर्थित संगठन हिजबुल्लाह के हितेषी भी थे, इसलिए सीरिया में आई बदलाव की लहर से ईरान के पेट में भी मरोड़ होने लगा। इन्ही सब कारणों के चलते इजरायल समर्थक पश्चिमी देशों के साथ साथ ईरान व अरब देशों ने भी ने सीरिया में चल रही अरब स्प्रिंग की बयार के रुख को अपने अपने पक्ष में मोड़ने का भरपूर प्रयास किया। पश्चिमी देशों ने लीबिया की तरह सीरिया में भी प्रदर्शनकारियों को आँख बंद करके सशस्त्र किया, जिसमें ईरान विरोधी अरब देशों ने उनका साथ दिया जिस पर असद सरकार को बचने के लिए पहले से सक्रिय ईरान अपने सहयोगी संगठनों के साथ मैदान में कूद पड़ा, जिसके चलते क्रांति की यह लहर युद्ध में परिवर्तित हो गई।

ईरान और शिया संगठन हिजबुल्लाह के युद्ध में कूदने से इसमें शिया सुन्नी का विवाद भी जुड़ गया, जिसके जवाब में पश्चिमी देशों द्वारा हथियारों की अंधाधुंध आपूर्ति से कट्टर सुन्नी संगठन आई.एस. का जन्म हुआ। बाद में ईरान ने युद्ध में अपना संतुलन बिगड़ता देख कर अपने सहयोगी देश और अमेरिका के चिर प्रतिद्वंद्वी रूस को भी युद्ध में खींच लिया। अब इस रूसी गठबंधन व आई.एस. से मुकाबले के लिए अमेरिकी गठबंधन को महज हथियारों की आपूर्ति और सिर्फ अमेरिकी हवाई हमलों की रणनीति अपर्याप्त और असफल होती दिखाई दी, जिसकी भरपाई के लिए पेरिस हमलों के बहाने अमेरिका के अन्य सहयोगियों को भी हवाई हमलों के लिए लिया तैयार किया गया और जर्मनी, फ्रांस व ब्रिटेन ने भी सीरिया में हवाई बमबारी शुरू कर दी।

इसके साथ साथ ज़मीनी स्तर पर रूसी कठबंधन और आई.एस. का मुकाबला करने के लिए वैश्विक शक्तियों ने बिखरे हुए उदारवादी समूहों को संगठित करके एक बड़ा लश्कर तैयार करना शुरू कर दिया जिसमे अलकायदा के उपसंगठन नुसरह फ्रंट के साथ अन्य कई संगठन भी शामिल हैं। इस तरह से अमेरिकी गठबंधन, रूसी गठबंधन, आई.एस.,के अतिरिक्त सऊदी अरब, तुर्की और इजराइल की अपनी अपनी जुगलबंदी और कार्रवाईयों ने इस युद्ध को इतना जटिल बना दिया कि कई पक्षों के आपस में गुत्थम गुथ्था होने से यह पता लगाना मुश्किल हो गया है कि वहां जमीनी स्तर पर वास्तव में क्या हो रहा है।

हां, मगर यह पूरी तरह स्पस्ट है कि फिलहाल इस युद्ध में ज़मीनी स्तर पर शिकारी भी मुसलमान हैं और शिकार भी मुसलमान ही हैं। अफगानिस्तान के युद्ध से सबक लेते हुए पश्चिमी शक्तियों ने सीरिया और इराक में मात्र हवाई हमलों और हथियारों की आपूर्ति कर युद्ध की उठती लपटों से दूर से हाथ सेंकने की जो रणनीति अपनाई है, इसी पर अगर युद्ध का फैसला हो जाता है तो नुकसान व तबाही स़िर्फ और स़िर्फ मुसलमानों के खाते में आएगी जबकि विजय व कामयाबी का श्रेय साम्राज्यवादी शक्तियों को जाएगा।

मगर इस युद्ध के तेजी से बदलते हालात से पता चलता है कि इस लड़ाई में पश्चिमी देशों द्वारा ज्यादा देर तक मात्र हवाई बमबारी और हथियारों की आपूर्ति से काम नहीं चलाया जा सकेगा, एक न एक दिन युद्ध के फल को बटोरने के लिए इन्हें मैदान में कूदना ही पड़ेगा, वरना इस युद्ध का भी वही हाल होगा जो लीबिया का हुआ है। बहरहाल एक न एक दिन युद्ध की यह अस्पष्ट तस्वीर ज़रूर साफ होगी जब युद्ध के अंतिम चरण में पहुंचने पहले सभी पक्षों और समूह को केवल दो खेमों में विभाजित होना पड़ेगा। क्यों कि इस भर्मित स्तिथि में युद्ध का फैसला सम्भव ही नहीं है। आगे चल कर छोटे और कमजोर पक्ष या तो अपना दम तोड़ देंगे या फिर उन्हें दो में से किसी एक खेमे में शरण लेनी पड़ेगी और अंतिम फैसला तो केवल दो पक्षों के बीच होगा।

लेखक इमामुद्दीन अलीग से संपर्क 08744875157 या imamuddinalig@gmail.com के जरिए किया जा सकता है. 

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