-अनिल द्विवेदी-
प्रशासन का अहंकारी दुरूपयोग करके यदि कुछ लोग मीडिया पर नकेल कसना चाहते हैं तो उन्हें आपातकाल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का हश्र याद रखना चाहिए। जवाबदेह प्रशासन की उम्मीद के बीच एक महिला आइएएस यदि सेल्फी लेने के आरोप में नौजवान को जेल भेज देती है तो इस पर जवाब मांगना गैरवाजिब कब से हो गया..?
पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत की याद दिलाते हुए पहले यह सवाल कि एक खबर-चाहे अच्छी हो या बुरी-किसी वीआईपी से जुड़ी हो या आम आदमी से, यदि प्रकाशित होने जा रही है तो आरोपी या पीडि़ता का औपचारिक अभिमत यानि वर्जन लिया-दिया जाना चाहिए कि नहीं.! स्वतंत्र भारत ना हुआ, अंग्रेजी राज हो गया जहां सवाल पूछना और सेल्फी लेना बड़ा अपराध है।
पहले मामले को पूरी तरह समझते हैं। यूपी के बुलंदशहर की कलेक्टर बी. चंद्रकला ने उनके संग सेल्फी खिंचवाने के आरोप में एक नौजवान को जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया है। आत्मनिरीक्षण के गंभीर और विनम्र मूड के साथ यह कहना और स्वीकारना गलत ना होगा कि किसी भी महिला की इजाजत के बगैर उसके साथ सेल्फी खींचना उसके आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। आशंका कहती है कि हो सकता है युवक ने यह गुस्ताखी की हो और उसे इसकी सजा भी मिल गई? मगर यहां दरवाजे पर खड़ा गंभीर मुद्दा यह है कि यदि अपराध हुआ और उसकी खबर मीडिया में चल निकली या प्रकाशित होने जा रही है तो फिर पीडि़ता-कलेक्टर या आरोपी का बयान पत्रकार क्यों नही ले सकता?
सवालों के उठते गुच्छों के बीच मैं साफ कर दूं कि मैं जेल में बंद शख्स का बचाव नहीं कर रहा और ना ही नारी अस्मिता को लेकर जागी संवेदना की छीछालेदर करना चाहता हूं लेकिन दो व्यक्तियों के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत प्राइवेसी के तहत आती है जब तक कि दूसरा शख्स आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल ना करे। इस दृष्टिकोण से कलेक्टर ज्यादा भारी पड़ रही हैं। उन्होंने पत्रकार का पूरा सवाल तक नही सुना और उसकी मां—बहन एक कर डाली.! आखिर छेडख़ानी की शिकार महिलाएं, बलात्कार पीडि़ता, अपराध रोकने में नाकाबिल पुलिस अफसर या जिस्म से खेलते नेता से जुड़ी खबरें, उनके बयान के साथ मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित होते रही हैं। अगर यह गुनाह होता तो आज सारे कलम के सिपाही जेल में होते।
धु्रव सत्य है कि यह सब खबर की विश्वसनीयता तय करने के लिए होता है जिस पर देश के सुप्रीम कोर्ट तक को कोई आपत्ति नहीं है। इसी बुनियादी सवाल के तल पर पत्रकार और कलेक्टर के बीच हुई बातचीत का ऑडियो-क्लिप अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि हैलो—हाय के अलावा कलेक्टर महोदया ने पत्रकार को सवाल तक पूरा नहीं करने दिया। कलेक्टर चाहती तो नो कमेंट कह देती लेकिन रोडरोलर तरीके के साथ उन्होंने नीचा दिखाने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए बड़प्पन का जो फतवा जारी किया, उसके बाद वे उस सेल्फी लेने वाले आरोपी से ज्यादा गुनहगार लग रही हैं। कलेक्टर महोदया का भडक़ना तब जायजा होता जब सवाल आपत्तिजनक होता लेकिन संवाददाता स्वीकार रहा है कि मैडम जो भी हुआ, गलत हुआ है..!
सवाल पानी का नहीं सवाल प्यास का है
सवाल सांसों का नहीं सवाल मौत का है
मेरा खुद का अनुभव है कि पत्रकार के पास जो सवाल रहे होंगे, उसके मुताबिक वह यह साफ करना चाहता था कि मैडम, आरोपी शख्स आप तक कैसे पहुंचा.? उसे सेल्फी रोकने से आपके अंगरक्षक क्यों नहीं रोक पाए.? और यदि उसने सेल्फी ले ली तो इसका जिम्मेदार कौन है, खुद कलेक्टर या उनके अंगरक्षक.? क्योंकि बात सेल्फी खींचने के बाद बिगड़ी। जांच का विषय यह भी है कि कलेक्टर और रिपोर्टर के बीच हुई बातचीत का यह ऑडियो लीक क्यों हुआ और किसने कराया? आखिर इसमें से किसे प्रसिद्धि पाने का लाभ होगा.? इसलिए होने या करने में, सोचने और कहने में तथा रचने और भोगने में माहिर जो लोग इस मामले की तपिश में हाथ गरम करना चाहते हैं, वे भी इत्तेफाक रखते होंगे कि स्वतंत्र भारत ना होकर मानो अंग्रेजी शासनकाल हुआ जो मात्र सेल्फी लेने के चक्कर में एक युवक जेल भेज दिया जाता है. फिर भी ऐसा क्यों हुआ, इसे जानने का अधिकार देश को है कि नहीं. यदि है तो फिर सवाल पूछा जायेगा और जवाब मिलना भी चाहिए.
दोस्तान और विद्वतापूर्ण ढंग के साथ मुझे यह कहने में गुरेज नही कि बी. चंद्रकला जैसी अफसर ने ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिसालें कायम की हैं। महीनों पूर्व ही उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वे भ्रष्ट ठेकेदार की क्लॉस लेते दिखी थीं। आइ बॉज लाइक इट। फिर जहां भी संभव था, मैंने आइएएस महोदया की मिसालें दी थी। मगर कोरे उपदेशों के स्तर पर यह बात जितनी आसान लगती है, उतनी है नहीं। यदि सवाल पूछने की आजादी नही रही या आप में जवाब देने का नैतिक जिगर नहीं बचा तब तो इस देश का भगवान ही मालिक है!
मुक्तिबोध ने सही ही कहा था कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे इसलिए मैं यह दुस्साहस कर रहा हूं। लेकिन फिलवक्त दरवाजे पर खड़ी गंभीर सलाह यह है कि प्रशासन का अहंकारी दुरूपयोग करके जो लोग मीडिया पर नकेल कसना चाहते हैं तो उन्हें आपातकाल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का हश्र याद रखना चाहिए। अमरीकी प्रेसीडेंट बुश या देश के गृह मंत्री चिदम्बरम की ओर जूते उछले थे तो इसी वजह से कि आम जनमानस के मन में उठे सवालों का जवाब नही दे सके थे। बावजूद इसके इन नेताओं की दरियादिली थी कि उन्होंने जूते फेंकने वाले पत्रकारों को माफ कर दिया था और एक कलेक्टर महोदया हैं कि सवाल सुनने या उसका जवाब तक देने के लिए तैयार नहीं। यहां विन्यस्त है कि अगर सरकार प्रशासन को जवाबदेह बनाना चाहती है और वह हो नहीं रहा है तो उसके लिए ऐेसे आइएएस राह का रोड़ा हैं। इसी संदर्भ में पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का यह कथन सही लग रहा है कि नौकरशाही बिगडै़ल घोड़े की तरह है और उसकी पीठ पर कोड़े पड़ते रहने चाहिए.
लेखक अनिल द्विवेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. संपर्क: 09826550374
अति सुन्दर अनिल जी एक स्वतंत्र पत्रकार को इसी तरह अपनी कलम का प्रयोग करना चाहिये ।
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