8.4.16

महिलाओं के अधिकार के नाम पर हम समाज को लैंगिक लड़ाई और अन्याय के खांचें में खींच रहे!

आपराधिक क़ानूनों में लैंगिक भेदभाव

पिछले दिनों देश की संसद ने Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015  पास कर दिया। इस संसोधित अधिनियम के लागू होने से 16 साल तक के किशोरों को जघन्य अपराध की स्थिति में उन पर वयस्कों पर लागू क़ानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000 को स्थानांतरित करने वाला यह कानून केवल और केवल भीड़तंत्र की मांग पर संसद द्वारा पास कर दिया। एक अपवाद की घटना के सहारे पूरे के पूरे देश के किशोरों को दो साल पहले ही वयस्क कर दिया गया। अगर संसद यह मानती है कि 16 साल की आयु सोचे-समझे अपराध के लिए मुकम्मल है तो 16 साल की उम्र में मताधिकार, गाड़ी चलाना, एडल्ट फिल्में देखना और शराब पीने पर भी निषेध नहीं होना चाहिए और इन चीजों को भी कानूनी मान्यता मिलना चाहिए। अब अगर हमारी संसद केवल अपराध के लिए उम्र घटाती तो साफ है कि उसके द्वारा पास किया गया विधेयक तार्किकता पर आधारित नहीं है।


यह एक अकेला ऐसा मसला नहीं है जहां सरकार भीड़ की मांग पर कानून बना रही और उसके लिए न्यायसंगत ढंग से विमर्श और विवेचन नहीं कर रही है। पिछले कुछ दशकों में जहां एक ओर महिला सशक्तिकरण की मांग ने ज़ोर पकड़ा है तो वहीं दूसरी ओर महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों के लिए कठोर क़ानूनों की मांग भी पुरजोर तरीके से उठाई गई। ठीक उसी तरह से जैसे दामिनी के सवाल पर आपराधिक वयस्कता की आयु को घटाकर 16 साल करने की मांग उठाई गई। जिस तरह से यह मांग आनन-फानन में पूरी की गयी, उसी तरह से महिलाओं के प्रति अपराध के मसले पर भी क़ानूनों को संसद के जरिये पास कराया गया। ऐसे पास कराये गए क़ानूनों का आलम यह है कि आज वे समाज और व्यक्ति की ही नहीं बल्कि पुलिस, न्यायपालिकाऔर खुद सरकार की नज़र में सबसे अधिक दुरुपयोग किए जाने वाले क़ानूनों में एक है। इन दुरुपयोगों का नतीजा यह निकलने लगा कि महिलाओं की सुरक्षा और हक के लिए बनाए गए कानूनी प्रावधान खुद-ब-खुद कठघरे में खड़े हो गए। सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों?

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारतीय समाज में महिला सशक्तिकरण और महिलाओं की सुरक्षा के कानूनी प्रावधानों का घालमेल कर दिया गया। सबसे अधिक विवादों में कोई कानून रहा है तो वह है 498ए। यह कानून 90 के दशक में महिला संगठनों के दबाव में लाया गया, क्योंकि उस समय दहेज के लिए जलाकर मार देने वाली बहुओं की घटनाओं के खबरों की संख्या अधिक हो गयी थी। यह कानून टाडा और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के कहीं कम नहीं था क्योंकि 498ए के तहत शिकायत का मतलब पति और उसका परिवार और रिश्तेदार समेत पड़ोसी सबके-सब जेल के अंदर। इस कानून से दहेज उत्पीड़न पर कितना अंकुश लगा यह तो साफ नहीं हुआ लेकिन इतना ज़रूर साफ हुआ कि भारतीय समाज कठोर क़ानूनों के लिए परिपक्व नहीं है, क्योंकि 498ए जहां पत्नी और नातेदारों द्वारा पति और उसके परिवार को आतंकित करने का जरिया बना गया और दूसरी तरफ यह पुलिस, वकील और जज के तिलिस्म के लिए उगाही का व्यवस्थित तंत्र।

इस कानून ने भारतीय समाज के परिवारों और उनके अस्तित्व को डर के साये में लाकर खड़ा कर दिया। आखिरकार उच्चतम न्यायालय को 2005 में सुशील शर्मा बनाम भारत सरकार के वाद में टिप्पणी करने पड़ी कि 498ए का इस्तेमाल कानूनी आतंकवाद फैलाने के लिए किया जा रहा है। इसी तरह से 2 जुलाई, 2014 को उच्चतम न्यायालय ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार के वाद में 498ए के मसलों में धारा 41 के अनिवार्य पालन पर ज़ोर दिया यानि मनमाने तरीके से की जा रही गिरफ्तारी पर अंकुश लगाने को कहा। भारत के कानून मंत्रालय, विधि विभाग, गृह मंत्रालय, उच्चतम न्यायालय को 498ए के दुरुपयोग की इतनी शिकायतें की गयी कि इन सभी संस्थाओं ने498ए के मसले में सोच-समझ कर कदम उठाने के निर्देश जारी किए, इसके साथ हीसमझौते को प्राथमिकता देने की सलाह दी गयी। आज भी आलम यह है कि 498ए के केस में 2% से भी कम लोगों को सजा होती है जबकि इस धारा के तहत दर्ज मामलों की संख्या, अन्य मामलों के मुक़ाबले अधिकतम मामलों में से एक है। केवल 2013 में 55000 से भी अधिक महिलाओं को 498ए के केस में जेल जाना पड़ा। यह एक ऐसा कानून है जिसका इस्तेमाल एक पुरुषवादी परिवार, दूसरे परिवार के पुरुषों और महिलाओं से अपनी निजी खुन्नस और आर्थिक हित साधने के लिए करने लगा है।

498ए के दुरुपयोग का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह लैंगिक रूप से विभेदकारी है। यह कानून मानता है कि केवल पति और उसके नातेदार क्रूरता कर सकते हैं, पत्नी और उसके नातेदार नहीं। महिलाओं को संवैधानिक संरक्षण या महिला सशक्तिकरण का आशय यह नहीं है कि उनको किसी अपराध से संरक्षण प्रदान किया जाय। लेकिन यहाँ तो संविधान की मूल भावना और अनुच्छेद 14 (समानता) के अधिकार को परे रखते हुए,उनको आपराधिक दण्ड प्रक्रिया में ही छुट दे दी गयी। आखिर समान अपराध के लिए पुरुष को सजा हो सकती है तो महिला को क्यों नहीं? यह कैसे कहा जा सकता है कि पति और परिवार क्रूरता कर सकता है, लेकिन पत्नी और उसका परिवार नहीं? इसी तरह के कई और प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता में हैं जो लैंगिक के आधार पर अपराध के लिए सजा हेतु भेदभाव करते हैं।

कुछ सालों पहले बना घरेलू हिंसा अधिनियम, एक तरह से 498ए का अनुषंगी कानून है और इसकी अलग से कोई ज़रूरत नहीं थी। दरअसल महिला उत्पीड़न के नाम पर वकील, पुरुष और उसके परिवार को मुकदमों के एक भयानक दुष्चक्र में फांसतें हैं ताकि पति और उसके परिवार से एक मोटी राशि वसूली जा सके। इसमें पहले वह भरण-पोषण (धारा 125), फिर 498ए, फिर अमानत में खयानत (406) और फिर घरेलू हिंसा का केस करते हैं। आजकल अप्राकृतिक यौन संबंध, बलात्कार जैसे आरोप भी लगाए जा रहे हैं। ऐसे मामलों में पति और उसके परिवार को पहले ही दोषी मान लिया जाता है, इसके बाद उसे अपनी बेगुनाही का सबूत देने के लिए कहा जाता है।

इस तरह से क़ानूनी लैंगिक भेदभाव के जरिये महिला सशक्तिकरण और लैंगिक न्याय की इतिश्री मान ली गयी है, और महिला सशक्तिकरण के मूल सवाल को बहुत पीछे छोड़ दिया गया है। आज के न्यायालयों का सच यह है कि पढ़ी-लिखी, रोजगार करने में सक्षम और आर्थिक रूप से मजबूत महिलाएं अपने लालच और स्वार्थ तथा मायके के बहकावे में आकर सबसे ज्यादा भरण-पोषण का केस कर रही हैं और बिना कुछ किए जीवन भर दूसरे की कमाई पर ऐश करना चाहती हैं। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ है कि वास्तविक रूप से प्रताड़ित महिलाओं के मामलों को भी संदेह की नज़र से देखा जाने लगा है, ठीक उसी तरह से जैसे 498ए के केस को।

ऐसे अब वक्त आ गया है कि हम समय के अनुसार अपने क़ानूनों की समीक्षा करें और देखें कि कहीं महिलाओं के अधिकार के नाम पर हम समाज को लैंगिक लड़ाई और अन्याय के खाँचें में तो नहीं खींच रहे हैं। हमें एक स्वस्थ समाज बनाना है, जिसमें कोई अपने अधिकार के नाम पर दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण न करे। कोई अपने हक के नाम पर दूसरे को कानूनी रूप से आतंकित न करे। संसद और न्यायपालिका को सचेत हों पड़ेगा कि एक के संवैधानिक संरक्षण के नाम, दूसरे का दोहन नहीं न हो। हम एक कु-व्यवस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया में दूसरी कु-व्यवस्था को बढ़ावा नहीं दे सकते। अगर हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि समान अपराध की स्थिति में सभी के लिए समान कानून और दण्ड की व्यवस्थाहो। अगर महिला सशक्तिकरण के नाम पर उन्हें, उनके द्वारा किए गए अपराधों के लिएकानूनी संरक्षण प्रदान किया जाएगा तो समाज पीछे की ओर जाएगा और कभी आगे नहीं बढ़ेगा।

अगर हमें देश और समाज को आगे ले जाना है तो पढ़ी-लिखी और सक्षम महिलाओंद्वारा किए जा रहे बेज़ा कानूनी इस्तेमाल से हर हाल में व्यवस्था को बचाना होगा ताकि लोगों के बीच कानून पर भरोसा कायम रहे और चाहे वह महिला हो या पुरुष, वह बिना किसी संशय के न्यायालयों की ओर न्याय के लिए रुख कर सके।

vinay jaiswal
vinayiimc@gmail.com

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