13.5.16

मजीठिया वेज अवॉर्ड : शीर्ष कोर्ट के रौद्र रूप से मिली उम्मीद के उजाले को सुरक्षा

-भूपेंद्र प्रतिबद्ध 

महंगाई की तगड़ी-गहरी-करारी मार, काम का पहाड़ से भी भारी बोझ और सेलरी-पगार-मेहनताना के नाम पर अमूमन चंद हजार रुपयों ने प्रिंट मीडिया कर्मियों का जीना मुहाल कर रखा है। यही नहीं, उनके काम की अवधि भी बेकायदगी के दायरे में कैद है। ड्यूटी पर न अपनी मर्जी से आ सकते हैं और न अपनी मर्जी से जा सकते हैं। उनका आना-जाना मालिकों के कारिंदों यानी संपादकों एवं मैनेजरों की मर्जी पर निर्भर है। ड्यूटी का शिड्यूल ये ही कथित हाकिमान तय करते हैं। जिसने भी इस पर कोई नुक्ताचीनी की, कोई सवाल उठाया तो ये महाशय लोग आपे से बाहर हो जाते हैं। और कर्मचारियों को सबक सिखाने के लिए हर अमानवीय-राक्षसी हथकंडा आजमाने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे माहौल और मन:स्थिति में काम करने को अपनी मजबूरी, विवशता माने-समझे बैठे कर्मचारियों को इससे उबरने, अपनी स्थिति-दशा को सुधारने, उसे एक दिशा देने, खासकर अपनी आय-इन्कम में थोड़ा इजाफा पाने-करवाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। लेकिन जब से मजीठिया वेज अवॉर्ड का सूरज उगा है, उनमें आशा-उम्मीद-आकांक्षा का एक नया-ताजातरीन ऑक्सीजन संचारित होने लगा है। उनकी मुरझाई-कुम्हलाई, हताश-निराश, एक अजीब-अनपेक्षित ढर्रे पर चल रही जिंदगी में थोड़ा उत्साह-उल्लास भर दिया है। नए उजास-उजाले ने नाउम्मीदी के अंधेरे को थोड़ा चीरा है। थोड़ा साफ किया है।


थोड़ा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मजीठिया वेज अवॉर्ड को अखबारी मालिकों ने इसके अस्तित्व में आने की आहट से ही इसे अपना सबसे बड़ा शत्रु-दुश्मन मान-बना लिया है। इससे निजात पाने के लिए वे इसकी भ्रूण हत्या तक में लगे रहे हैं। लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिली और यह वेज अवॉर्ड अपने समग्र रूप में दनदनाते हुए आ धमका-प्रकट हो गया। फिर भी मालिकान इसका काम तमाम करने के लिए, इसे अपने रास्ते से हटाने के लिए, इसे नेस्तोनाबूद करने के लिए हर संभव कारस्तानियों-कारगुजारियों-कारनामों को अंजाम देते रहे, दे रहे हैं। पर इसे चाहने-पाने के ख्वाहिशमंदों द्वारा इसकी हिफाजत में उतर आने, सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक दे देने और शीर्ष अदालत के इसे बचाने-संरक्षित करने को आगे आ जाने से मालिकों के होश उड़ गए हैं। उनका शैतानी दिमाग, दानवीय योजनाएं न्याय मंदिर के समक्ष नाकारा, निष्क्रिय, निष्प्रभावी हो गई हैं।

इन मालिकों को बड़ा गुमान, घोर अहंकार रहा है कि मीडिया उनका है। वे जो चाहते हैं वही छपता-प्रसारित होता है। सारे पॉलिटिशियन-पार्टियां-पॉलिटिक्स, सरकारें, मंत्री-नेता, सांसद, विधायक, नौकरशाही, सारा तंत्र, पूरा सिस्टम उनकी मुट्ठी में है। उनके इशारे पर चलता है। वे जो चाहते हैं, चाहेंगे वही होता है, होगा। कर्मचारीनुमा नौकरों की उनके सामने क्या बिसात है। इन्हें तो चुटकियों में मसल देंगे। इन्हें तो कभी भी ठिकाने लगा सकते हैं। बहुत हद तक यह सही भी है। क्योंकि मजीठिया वेज अवॉर्ड इम्प्लीमेंटेशन के नाम पर पूरा सिस्टम, पूरी सरकारी मशीनरी, सारा पक्ष-विपक्ष चुप्पी ओढ़े हुए है। यहां तक कि कर्मचारियों को तसल्ली-दिलासा देने का स्वर भी पाताली हो चुका है। कर्मचारियों के लिए यह स्थिति हर तरह विपरीत-विकट रही है और है। वो तो भला हो इस सिस्टम के एक विंग न्यायपालिका का जो कर्मचारियों के साथ मुस्तैदी से खड़ी है। वरना अखबारी मालिकान उन कर्मचारियों को सचमुच में जीने नहीं देते जो मजीठिया शब्द भी अपनी जुबान से निकालते। न्याय की सबसे बड़ी संस्था सुप्रीम कोर्ट की सख्ती ने तथाकथित स्वयंभू अखबारी मालिकों की बदमाशियों पर थोड़ा अंकुश लगा दिया है। यह अलग बात है कि अंदरखाते की उनकी उत्पीडक़ कार्रवाइयों ने रोजी बचाने की जद्दोजहद में तल्लीन कर्मचारियों को मौनव्रती-मूक बना रखा है। दैनिक भास्कर सरीखा नंबर वन होने की ढोल पीटने वाला अखबार इसका जीता जागता उदाहरण है।

यहां ध्यान खींचू सबसे ज्वलंत तथ्य यह है कि इस समय न्यायपालिका ही एक तरह से पूरे सिस्टम-सरकार को चला रही है। नाम लेने-गिनाने की जरूरत नहीं है कि आजकल केंद्र से लेकर प्रदेश तक की सरकारें, संस्थाएं कैसी-कैसी एवं कितने तरह की गैर संवैधानिक, गैरकानूनी कारनामें-कार्रवाइयां-कार्यवाहियां कर रही हैं। और उन्हें नियंत्रित करने, नसीहत देने, दुरुस्त करने, पटरी-सही राह-डगर पर लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट ही सब कुछ कर रहे हैं। यानी कि व्यवस्था बनाए रखने और लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए न्यायपालिका ही सब कुछ कर रही है। आलम यह है कि अवाम की नजरें उसी पर टिक-ठहर गई हैं। व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका से लोग पूरी तरह नाउम्मीद हो गए है। यह और बात है कि न्यायपालिका की बेतहाशा सक्रियता से व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के पुरोधाओं की नींद उड़ गई है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली की खीझ-तिलमिलाहट इसी का नतीजा है। सरकार की बदमाशियों पर अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका की पहल से वे एवं उनकी सरकार बौखला गए है। तभी तो संसद में उन्होंने इस पर खुलकर अपने आक्रोश, अपनी हताशा का इजहार किया और न्यायपालिका को अपनी हद में रहने की नसीहत, या कहें कि चेतावनी तक दे डाली।

इस संदर्भ में मुझे अपने एक मित्र का वह कथन बरबस याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि यूपीए सरकार भाजपा सरकार के मुकाबले बहुत ठीक थी। यूपीए के कार्यकाल में मजीठिया वेज बोर्ड बना और उसे लागू करने का नोटिफिकेशन तो हो गया! भाजपा सरकार तो मजीठिया के मुद्दे पर एकदम सन्न है, मूक दर्शक है। अमलीजामा पहनाने का प्रयास करने की कौन कहे, उल्टे अखबार मालिकों से गलबहियां किए हुए है। मित्र के कथन में पूरा तो नहीं कह सकते, हां, थोड़ा दम जरूर है। यूपीए सरकार के वक्त अनेक एवं अलग-अलग सोच-समझ वालों के कई ग्रुप-धड़े थे। उन्हीं के दबाव और मीडिया के वास्तविक कर्ता-धर्ता मूलत: कर्मचारी ही होते हैं, तकरीबन ऐसी उनकी मान्यता के चलते मजीठिया वेज बोर्ड गठित हुआ। और आखिरकार सरकार को उसका नोटिफिकेशन करना पड़ा। लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार के अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है। इसमें कर्मचारियों को सपोर्ट करने वाली, उनके हक के पक्ष में खड़ी होने वाली कोई भी लॉबी, कोई भी लॉ मेकर, कोई भी जनप्रतिनिधि नहीं है। भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सरकार पूर्णतया बड़े पूंजीपतियों, बड़े सरमायेदारों की समर्थक-सपोर्टर है। उन्हीं के लिए, उन्हीं के फायदे के लिए कार्यरत है। उन्हीं के लिए नीतियां, नियम-कानून बना रही है। वह राग तो स्वदेशी का अलापती है लेकिन उसके कारनामें-करतूतें विदेशीपरस्त हैं। और यह किसी से छिपा नहीं है। वैसे भी जनसंघ और उससे भी पहले इस संगठन का जो भी स्वरूप-नाम रहा हो, अपनी अमेरिकापरस्ती के लिए जानी-पहचानी जाती रही है। मौजूदा-आधुनिक परिवर्धित-परिमार्जित स्वरूप भाजपा उसी सोच-विचार को पालने-पोषने, आगे बढ़ाने में मशगूल है।

बहरहाल, मित्र के कथन का प्रतिवाद मैंने यों किया। कहा, 9ठीक है यूपीए ने मीडिया कर्मियों को बड़ी सौगात दी। पर उस सरकार में मंत्री रहे, जिम्मेदारी के पदों पर रहे कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, अभिषेक मनु सिंघवी सरीखे अनेक लोग सुप्रीम कोर्ट में मालिकों की पैरवी में क्यों उतर आए? इसका जवाब उनसे नहीं सूझा। हालांकि सबसे बड़ी अदालत में कंटेम्प्ट केस किए और अन्य अनेक लोगों को इसका जवाब पता है। थैली के चट्टे-बट्टे सब एक ही होते हैं। जो भी हो, लुटेरे मालिकों के पैरोकार इन महानुभावों की बोलती सुप्रीम कोर्ट की सख्ती ने बंद कर दी है।

एक और उल्लेखनीय तथ्य यह कि माननीय कोर्ट के तीखे तेवर ने इस सिस्टम के सबसे निकम्मे, बदनाम, मालिकों के कथित पेरोली महकमे श्रम विभाग को कर्मचारियों के हक में आश्चर्यजनक ढंग से सक्रिय कर दिया है। चंडीगढ़ से लेकर बेंगलुरु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि कई राज्यों के लेबर कमिश्रर एवं उनके मातहत अधिकारी मजीठिया क्रियान्वित न करने वाले अखबार मालिकों को प्रॉसीक्यूट करने की बात करने लगे हैं। यह कलमघसीट (टंकक) इसका चश्मदीद है। चंडीगढ़ एवं बेंगलुरु में यह नजारा देख चुका है। लेबर अफसरों की गतिशीलता-सक्रियता का परिणाम जो भी निकले, पर उन्हें स्टेटस रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को नियत तिथि पर अनिवार्य रूप से प्रेषित करनी है। अन्यथा चीफ सेक्रेटरीज जवाब क्या देंगे? जवाबदेही उन्हीं की ही तय की है न सुप्रीम कोर्ट ने!

भूपेंद्र प्रतिबद्ध
चंडीगढ़
मो. ९४१७५५६०६६

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