भारत-मॉरिशस की साझा सांस्कृतिक विरासत
मनोज भावुक
भारत और मॉरिशस के बीच मुझे सिर्फ हिन्द महासागर की दूरी का अंतर लगता है। वहाँ के किसी गांव में जाने पर ऐसा लगता है जैसे हम आरा, बलिया , छपरा या आजमगढ़ के किसी गांव में बैठे हैं। सिर्फ फ्रेंच या क्रियोल के शब्द कान में पड़ने से हम उसे अलग नहीं कर सकते। मै बिहार के सिवान जिले का रहने वाला हूँ। रेणुकूट, सोनभद्र , उत्तर प्रदेश में पला बढा हूँ। मुझे मॉरिशस तमिलनाडु, केरला , कर्नाटक या असम से ज्यादा अपना लगता है क्योंकि हमारी भाषा एक है, हमारी संस्कृति और संस्कार एक हैं। विदित है कि मॉरिशस की दो तिहाई से भी ज्यादा आबादी भोजपुरी बोलती है और इन भोजपुरी भाषियों के पूर्वज लगभग 182 साल पहले बिहार और उत्तर प्रदेश से गिरमिटिया मजदूर बनकर वहाँ गए थे। अब सवाल यह उठता है कि इतने वर्षों के बाद भी अपनी विरासत को अक्षुण्ण सुरक्षित बनाए रखना कैसे सम्भव हो पाया। आखिर वह कौन सी ताकत है कि हम ग्लोबलाइजेशन के दबाव और अवरोध के बावजूद मॉरिशस में अपनी जड़ों से कटे नहीं।
दरअसल हमारे पूर्वज भाषानुरागी , संस्कृतिनिष्ठ एवं धर्मपरायण थे। वे अपनी परंपरा, रीति - रिवाज और रहन -सहन को कभी नहीं छोड़े। वे आज भी भारतीय परंपरा के अनुसार हीं त्योहारों को मनाते हैं। पूजा-पाठ , कथा -वार्ता, यज्ञ-हवन करते हैं। वहाँ भी भारत की तरह हीं सत्यनारायण भगवान की कथा होती है। हनुमान जी वहां भी घर-घर हैं। भोर में सूरज भगवान् को अर्घ्य देना और शाम को साँझा बाती की परंपरा वहां भी है। यहाँ गंगा जी हैं तो वहाँ गंगा तालाब है। उसके पास शंकर जी की विशाल प्रतिमा है। भारत की हीं तरह वहां भी पूजा -पाठ में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं सक्रिय हैं। विशुद्ध भारतीय परिधान साड़ी पहनकर झूमर , सोहर , कजरी गाती हुई महिलाएं देखने पर ऐसा लगता है जैसे हमारी चाची , माई , मौसी , बुआ हमारे हीं गांव के बरम्ह बाबा चाहे काली माई के मंदिर में इकट्टा हुई हैं। कोई महिला तिरछिया के मुस्किया दे तो लगता है हमारे हीं गांव की गुलजारी भउजी हैं, जो इशारे हीं इशारे में शिकायत कर रहीं हैं कि '' काहे कहनी कि फगुआ में आएब''? ... मॉरिशस की महिलाओं ने हीं हमारे संस्कार, संस्कृति और भाषा को वहाँ जिन्दा रखा है, यह कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भोजपुरी स्पीकिंग युनियन की चेयरपर्सन डा० सरिता बुद्धू को भोजपुरी समाज के लोग अंतरराष्ट्रीय दीदी कहते हैं। वह मुझे छोटे भाई की तरह मानती हैं और राखी भी बांधती हैं। वर्ष 2014 में मॉरिशस में अप्रवासी दिवस मनाया गया। उस कार्यक्रम में जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला था। कहा जाता है कि मॉरिशस में पहला ज्ञात भारतीय तब से 180 साल पहले पहुंचा था। 1834 में मॉरिशस जाने वाले मजदूर बिहार और उत्तर प्रदेश से हीं गए थे। मुझे मॉरिशस को जानने की जिज्ञासा थी. देखने की बड़ी ललक थी। खूब देखा। एक सप्ताह के प्रवास में कई गांवों में गया। मंदिरों में गया। आरा, बलिया , बक्सर और आजमगढ़ के लोग मिले। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। सात समुन्दर पार भी अपना गांव है। अफ्रीका में भी अपना गांव है। सागर बीच टापू पर भी अपना गांव है। अपनेपन की भावना ने मॉरिशस में मुझे जकड लिया था। वहां के टेलीविजन एम बी सी के भोजपुरी चैनल में मेरा लम्बा साक्षात्कार हुआ। एंकर नर्वदा खेदनाह ने मुझसे दुनिया भर की भोजपुरी के बारे में बतियाया। भोजपुरी मेरी कमजोरी है। मै तीन वर्षों तक (2003 - 2005 ) पूर्वी अफ्रीका के युगांडा में था. वहाँ भी मैंने भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ़ युगांडा की स्थापना की। बाद में जब लन्दन गया तो वहां भी मैंने भोजपुरी समाज , लन्दन की स्थापना की। मै भोजपुरी को जीने लगा था और इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़कर स्वदेश मिडिया में आ गया। भोजपुरी टीवी चैनलों से जुड़ गया। इसलिए नर्वदा ने मुझसे भोजपुरी भाषा, साहित्य , मीडिया , फिल्म और देश -विदेश की भोजपुरी के बारे में विस्तार से बातचीत किया। मैंने आयोजित सेमीनार में भोजपुरी सिनेमा के सफर पर न सिर्फ पेपर पढ़ा बल्कि 1948 से 2014 तक की भोजपुरी फिल्मों के सफर पर बनाई गयी अपनी डॉक्यूमेंटरी भी दिखाई जिसे लोगों ने खूब पसंद किया। एकेडमिक गतिविधियों से अलग हमने खूब मस्ती भी की। हमें कुछ भी अलग नहीं लग रहा था। '' पतरी कमरिया डोलता त डोले द ... कान के झुमका गिरता त गिरे दे .... पतरी कमरिया डोलता त डोले द '' जैसे लोकगीत पर महिला मंडल के साथ खूब नाचा भी। भोजपुरी में काव्य पाठ किया। मुझे लगा हीं नहीं कि मै विदेश में हूँ। सिर्फ हवाई जहाज की दूरी है। झंडे का अंतर है। लेकिन इससे डी एन ए तो नहीं बदलता तो फिर कैसे बदलेगा स्वभाव , कैसे बदलेगा संस्कार , कैसे बदलेगा रूप रंग। मॉरिशस में हमारी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित है , संरक्षित है और शायद ग्लोबलाइजेशन के खतरे के बावजूद यह हमारे लोकगीतों में , पूजा -पाठ और शादी -व्याह के तरीकों में अनन्त काल तक जीवित रहेगा।
कुल मिलाकर भाषा , संस्कृति , संस्कार , खान -पान , पहनावा , गीत -संगीत , साहित्य और कला जब सब कुछ एक समान है तो भारत और मॉरिशस की साझा सांस्कृतिक विरासत के बारे में बात करते हुए मुझे यही नहीं समझ में आता है कि '' सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है। मुझे तो यही लगता है कि मॉरिशस में अपनी हीं धड़कने हैं जो सात समुन्दर पार में धड़क रहीं हैं। यही वजह है कि वहां से जब कोई मेरा जानने वाला आता है तो लगता है कि मेरे गांव से कोई आया है, चलो उनका स्वागत किया जाय। 1 जून 2016 को मॉरिशस से मेरे मित्रों की एक टोली भारत आई तो लगा कि हमें इनके स्वागत में आयोजन करना चाहिए। मॉरिशस के डेलीगेट्स में महात्मा गांधी संस्थान से अंजली चिंतामणि ( प्राचार्य हिंदी )और अरविन्द विशेसर ( प्राचार्य भोजपुरी ), मॉरिशस बॉर्डकास्टिंग कारपोरेशन से अशिता रघु , अभी उदोय , रितेश महावीर , प्रीती जानकीप्रसाद , काशीनाथ और हिंदी -भोजपुरी के साहित्यकार डा० हेमराज सुन्दर ने हमारा आतिथ्य स्वीकार किया। इन्हें दिल्ली और शिकोहाबाद में काम था। इसलिए मैंने 7 जून को आगरा और 11 जून को दिल्ली में कार्यक्रम रखा। आगरा में भारत -मॉरिशस मैत्री कवि -सम्मेलन और दिल्ली में भारत - मॉरिशस की साझा सांस्कृतिक विरासत पर परिचर्चा।
आगरा में आयोजक बने एडवोकेट अशोक चौबे और दिल्ली में नारायणी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा० चंद्रमणि ब्रम्हदत्त। आगरा में मुख्य अतिथि थे केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक प्रो० नन्द किशोर पांडेय तो दिल्ली में मुख्य अतिथि थे मारीशस गणराज्य के उच्चायुक्त महामहिम जगदीश्वर गोबर्धन। मेरी भूमिका दोनों जगह संयोजन और सञ्चालन की थी। दिल्ली के द्वारका में भारत - मॉरिशस की साझा सांस्कृतिक विरासत पर बात करते -करते अत्यन्त भावुक होकर श्री जगदीश्वर गोबर्धन ने कहा कि '' देश का विकास करना है , खुद को स्वस्थ रखना है और अपनी संस्कृति को जिन्दा रखना है तो गौ माता की सेवा करो। जिसके पास गाय नहीं है वह गरीब है। इस पर बतौर संचालक मुझे कहना पड़ा कि गोबर्धन सर के बातों की गहराई में उतरने के बाद बहुत सारी बीमारियों का इलाज हो जाता है। गाय को हम मॉरिशस में भी पूजते हैं और भारत में भी। इस भावना को समझना होगा। मॉरिशस से आये सभी मेहमानों के सम्मान के बाद हमने भारतीयों के स्वभाव और मॉरिशस के संघर्ष और विजय की दास्ताँ को अपने मुक्तक और शेरों में कुछ यूं व्यक्त किया -
हम तो मेहनत को ही हथियार बना लेते हैं
अपना हँसता हुआ संसार बना लेते हैं
मॉरिशस, फीजी, गुयाना कहीं भी देखो तुम
हम जहाँ जाते हैं सरकार बना लेते हैं
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ले गए हमको वो गन्ने की बुआई के लिए
बो दिए उनमें हीं हम मड़ुआ रिहाई के लिए
छल किये , जुल्म किये , हमको समझ के बोका
तब व्यवस्था किये हम उनकी विदाई के लिए
जान हाजिर है अगर बन के रहो भाई तो
वर्ना हम तो हैं कसाई भी कसाई के लिए
लेखक परिचय-
मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य के लिए भारतीय भाषा परिषद से सम्मानित लेखक हैं। प्रकाशित पुस्तक - तस्वीरी जिंदगी के (ग़ज़ल-संग्रह) और चलनी में पानी (कविता संग्रह)। पहले युगांडा और लन्दन में इंजिनियर। अब मीडिया / टीवी चैनल और फिल्मों में सक्रिय. संपर्क - EMAIL- manojsinghbhawuk@yahoo.co.uk Mob - 09971955234
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