मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय, भारत।
मी लार्ड न्याय देश में धंधा बनता जा रहा है, इसे न्यायप्रणाली के रूप फिर से स्थापित करिये... गुस्ताखी माफ़ करें कि हिंदी में लिख रहा हूँ, हिंदी पट्टी का हूँ और बचपन से इसी में पला और बढ़ा हूँ। अपने मन की व्यथा इसी में अच्छे से व्यक्त कर सकता हूँ, मुझे पूरा विश्वास है कि अंग्रेजी में न लिखे होने के बावजूद आप इस पर गौर करेंगे।
देश के जन-गण-मन की हैसियत से आपसे केवल इतना अनुरोध है कि देश के न्यायपालिका की इज्जत खतरे में है। हर रोज कई ऐसे मामले हैं, जिसमें न्यायपालिकाओं में न्याय और जज बिक रहे हैं। कहीं कहीं तो न्याय के साथ बलात्कार ही कर दिया जा रहा है। गरीब आदमी और न्याय में आस्था रखने वाले लोगों को जज एक तरह से दुत्कार देते हैं। उनके सामने अगर संविधान, प्रावधान, बदलते समय की परिस्थितियों, मानवाधिकारों, तथ्यों के विश्लेषण और जांच, ऊपर के न्यायालयों के जजमेंट की बात की जाती है तो वे कहते हैं कि आप सुप्रीम कोर्ट चले जाओ, यहाँ तो हम ऐसे ही चलते हैं और हमें गलती करने का अधिकार है।
मी लार्ड आप तो जानते हैं न कि सुप्रीम कोर्ट में केवल केस दाखिल करवाने की फ़ीस कितनी है। सीनियर एडवोकेट का कितना वर्चस्व है। गरीब या सामान्य नौकरी पेशा इंसान के तो सीनियर या नामचीन वकीलों के चौखट पर कदम रखने का सोचने से पहले ही पसीने छूट जाते हैं। अगर वह किसी साधारण वकील के जरिये जाता है तो उसका केस वहीँ कमजोर हो जाता है कि उसे पूरी तरह से सुना ही नहीं जाता। मी लार्ड जन गण मन के लिए क्या यही न्याय है कि वह अदालतों में सालों धक्के खाता रहे और अपने हाड़-मांस के मेहनत की कमाई शोषण के पर्याय बन चुके वकीलों (बहुत से वकील और जज वाकई में न्याय के प्रति गंभीर हैं और देश में न्याय उन्हीं की वजह सांस ले पा रहा है) में लुटाता रहे।
मी लार्ड न्याय देश में धंधा बनता जा रहा है, इसे न्यायप्रणाली के रूप फिर से स्थापित करिये। आपके कन्धों पर बड़ी जिम्मेदारी है। देश के जन-गण-मन को आपसे बहुत उम्मीदें हैं। इस देश के लोअर कोर्ट पोस्ट ऑफिस बन गए हैं, जहाँ आकर कोई भी, किसी के भी खिलाफ, किसी भी तरह का केस दर्ज करा सकता है और कोर्ट without application of judicial mind सम्मन या वारंट मैकेनिकली जारी कर देते हैं। मामलों में सम्मन या वारंट जारी करने से पहले सही तरीके से न तो जांच करायी जाती है और न रिपोर्ट मंगायी जाती है। अगर ऐसा कर लिया जाय तो 60 से 70 प्रतिशत मुकदमे दर्ज ही न हों। ऐसे मुकदमें बदले की भावना, औकात दिखाने या मानसिक और आर्थिक शोषण के लिए डाले जाते हैं। किसी आम नागरिक या खुशहाल सामाजिक जीवन जी रहे इंसान के लिए कोर्ट से बेबुनियाद मामले में सम्मन या वारंट जारी होना ही, अपने आप में मानवीय गरिमा के खिलाफ है। ऐसे केस जिसमें बिना विधिवत जांच या प्रॉपर रिपोर्ट के सम्मन या वारंट जारी होता है, उसमें दोषमुक्त होने के लिए सालों केस लड़ना ही अपने आप में एक सजा है। ऐसे मामले में तो खास सावधानी बरतनी चाहिए, जिसमें मामला दो से अधिक न्यायिक क्षेत्रों या दो से अधिक राज्य क्षेत्रों से जुड़ा हो। ऐसे परिस्थितियों में विशेष रूप से रूटीन कार्यवाही से बचना चाहिए और पूरी तरह जांच-पड़ताल करके ही कोई कदम उठाना चाहिए।
आप ही बताइये मी लार्ड कोई भी जजमेंट इस बात से क्यों प्रभावित होना चाहिए कि आज जज साहब का मूड कैसा है और उनकी व्यक्तिगत सोच कैसी है। इस तरह के कोर्ट निरंकुश हो जाते हैं और पूरी तरह से पक्षपात करके निर्णय लिखाते हैं। एक वाकया बताना चाहूँगा कि एक JMFC के यहाँ एक मामले की सुनवाई चल रही थी। वहां पर रेस्पॉडेंट ने एक आवेदन सीआरपीसी के प्रावधान के अनुसार प्रस्तुत किया। जिस पर माननीय न्यायाधीश ने अप्लिकेंट के वकील से जवाब देने के लिए कहा तो वकील ने कहा कि आज मैं बहुत व्यस्त हूँ, अगली तारीख पर जवाब दूंगा। इसके बाद अगली तारीख दे दी गयी। जब नियत तारीख पर रेस्पोंडेंट अपने अधिवक्ता के साथ पहुंचा तो जज साहब ने बताया कि वह आवेदन तो निरस्त कर दिया गया और पक्षकार अधिवक्ता जो खुद तारीख मांग कर गए थे, उनका ऑब्जेक्शन लगा था और बिना मेरिट और प्रावधान के डिलेयिंग टैक्सिस कहकर आवेदन ख़ारिज किया गया था। सवाल यह नहीं कि उन्होंने उसे ख़ारिज किया, सवाल यह है कि जो कुछ निर्णय लिया गया करीब 1000 किलोमीटर दूर से आये रेस्पोंडेंट और उसके वकील के जाने के बाद कैसे डिसाइड किया गया? जब अगली तारीख पक्षकार के जवाब के लिए लगी थी तो उससे पहले कैसे डिसाइड हो गया। यह बात यहीं नहीं ख़त्म होती उस तारीख पर रेस्पॉडेंट अधिवक्ता द्वारा जब कहा गया कि सीआरपीसी द्वारा प्रदान की गयी रेमिडी है तो जज साहब कहा कि उन्होंने आवेदन ध्यान से पढ़ा नहीं है, उन्हें पढ़ लेने दें और लंच के बाद आएं। Point to be noted me lord, एक जज बिना पढ़े ही एक आवेदन को डिलेयिंग टैक्टिस कहकर ख़ारिज कर देता है। लंच के बाद रेस्पोंडेंट अधिवक्ता के जोर देने पर, उनके बहस को करीब 1 घंटे तक सुना गया और इसके बाद रेस्पोंडेंट अधिवक्ता ने अनुरोध किया कि आपको जो भी निर्णय मेरिट के आधार पर देना हो दें। जज साहब ने कहा, "यह जटिल मसला है और मुझे पढना पड़ेगा, इसके लिए समय दें। अगली तारीख पर मैं जजमेंट लिखूंगा।" यह बात उन्होंने ऑर्डर शीट पर नहीं लिखा। अगली तारीख पर फिर से रेस्पोंडेंट अधिवक्ता के साथ पहुंचा तो ऑर्डर शीट पर आवेदन या बहस का कोई जिक्र ही नहीं था। उस दिन कोर्ट में वकीलों की हड़ताल थी तो जज साहब का बहुत इंतज़ार करना पड़ा। आने पर वह बोले, "आज हमारी हड़ताल है"। मी लार्ड वकीलों की हड़ताल, जज की हड़ताल कब से हो गई।
मी लार्ड इस तरह की हो गई है हमारी न्यायपालिका। यह एक वाकया, इससे भी अधिक गंभीर घटनायें रोज घट रही हैं। न्यायपालिका में लोगों का भरोसा घट रहा है। इसकी इज्जत को खतरा है मी लार्ड। न्यायपालिका की इज्जत बचा लीजिये, जन-गण-मन भी बचा रहेगा। मी लॉर्ड बस इतना कहना है कि :
1. न्यायालयों को पोस्ट ऑफिस बनने से बचाया जाय। सम्मन या वारंट जारी करने से पहले पूरी जांच हो और रिपोर्ट पेश हो। अगर केस मनगढ़ंत हो तो आवेदक को दंड के साथ, वकील को भी दो साल के लिए वकालत से निलंबित किया जाय।
2. Complaint Case में विशेष सावधानी बरतने के निर्देश दिए जांय। Complaint Case की हर तरह से तहकीकात करवायी जाय और सभी प्रमाण सत्य होने पर ही कार्रवाई का प्रावधान हो। Compliant Case झूठा पाये जाने पर आवेदक को सजा के साथ वकील को आजीवन वकालत करने से प्रतिबंधित किया जाय।
3. देश के सभी न्यायालयों में मुकदमें की सुनवाई की वीडियो रिकार्डिंग हो। यह रिकार्ड सुप्रीम कोर्ट निगरानी में हो। इसके लिए एक राष्ट्रीय निगरानी केंद्र बनाया जाय।
4. सम्मन के जवाब के लिए व्यक्तिगत उपस्थिति या जमानत की व्यवस्था की अनिवार्यता खत्म किया जाय। डाक के जरिये भी जवाब स्वीकार करने का प्रावधान होना चाहिए।
मी लार्ड, देश की आखिरी उम्मीद न्यायपालिका होती है, अगर जन-गण-मन को वहीँ से अन्याय का सामना करना पड़ेगा तो वह कहाँ जायेगा। अनुरोध है कि न्यायपालिका को एक नई गति दें और जनरक्षक बनायें न कि अमीरों और कानून से खेलने वालों के हाथ का खिलौना।
आपका आज्ञाकारी
विनय कुमार जायसवाल
804, अन्नपूर्णा टावर कौशाम्बी,
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश -201010
vinayiimc@gmail.com
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