एक वो दौर था जब खादी का झोला स्याही वाली कलम और कॉपी से पत्रकार की पहचान होती थी. समय बीतता गया और झोले की जगह लेपटॉप का बैग कलम कागज की जगह कीबोर्ड और माउस ने ले ली. समय और दौर की मांग थी लिहाजा आधुनिक संसाधनों से लेस होना भी जरुरी था. आधुनिक संसाधनों से जहां एक ओर पत्रकारिता जगत में क्रांति आई और सूचनाएं त्वरित रूप में आम जनों तक पहुँचने लगी , इसी बिच ग्लेमर की चकाचौंध भी बढ़ी जिसने ज़मीन से कइयों को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन इन्ही सब के बिच ग्लेमर और तड़क-भड़क में पत्रकारिता कहीं गुम सी होती लग रही है. कम से कम आज के दौर में ग्राउंड लेव्हल के पत्रकारों को देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है........
सबसे ज्यादा इसका असर इलेक्ट्रॉनिक मिडिया में देखने को मिलता है दर्जनों माईक आईडी और इनको थामे कई खबरी लाल ख़बरों के पीछे भागते नजर आते है. वहीँ खबर बनाने के बाद सबसे पहले भेजने की जद्दोजहद , चैनल ने समाचार के सम्बन्ध में फोन से लाइव्ह चर्चा कर ली तो वो फुले नहीं समाते और अगर खबर चल गई तो उसके बाद ठंढी आँहें इस कदर भरते हैं जैसे किला ही फतह कर लिया हो. लेकिन इस सारी कवायतों के एवज में पारिश्रमिक ........?.......इसके बारे में क्या कहें, कुछ एक समाचार चैनलों को छोड़ दें तो फूटी कौड़ी तक संस्थानों द्वारा स्ट्रिंगर (अंशकालीन संवादददाता) को नहीं मिलती.
खैर यह तो हुई अलग बात अब थोड़ा सा चर्चा कर लेते है उनकी जो कर्त्तव्य परायण होने का और कम से कम शाम ढलते ही चार लोगों के बिच गजब के जोश में नज़र आते है. अपने आप में बड़े और कर्मठ पत्रकार होने का दंम्भ भरा जाता है साथ ही अपने आप को दूसरे से बेहतर ये खुद ही मान लेते हैं और यह भ्रम इनके जहन में घर कर जाता है. इसे एक छोटे से उदाहरण से समझाने की कोशिश करूँगा और इसमें मेरा किसी व्यक्ति विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचने का कतई इरादा नहीं है. अभी हाल ही में कोरिया जिले के चिरमिरी में अंत्येष्टि के लिए लकड़ी का खासा आभाव चल रहा है, मसला मार्मिक भी है लोगो का ध्यान इस और ज्यादा जाना चाहिए खास तौर पर मिडिया जगत का. लेकिन इससे शर्मनाक बात क्या होगी की इस मानवीय संवेदनाओं और करुण मसले पर एक आद खबरी की ही नजर पड़ी.
इसी तरह के कई मामले हैं लिखना शुरू कर दें तो शायद जगह और समय कम पड़ जाये. यह महज एक संकेत मात्र के लिए था. मिडिया का दूसरा पहलु यह भी है की अगर बड़े स्तर का नेता या शीर्ष नेतृत्व आ जाये तो सुबह से लेकर शाम तक दर्जनों पत्रकार इंतजार करते नज़र आते हैं वहीँ 15 अगस्त और 26 जनवरी के बाद सरकारी दफ्तरों के बहार साहब का वेट करते इनके हुजूम आसानी से देखे जा सकते है. यह आलोचना नहीं है बस सवाल है की क्या कर रहे हैं हम ? हमारा दायित्व क्या है ? आखिर क्यों हम बेगारी कर के पत्रकार होने का दम्भ भरते है , काम के बदले संस्थान क्या दे रहा है,क्यों नहीं दे रहा है. दुख बस इस बात का है की शायद हमने ही पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण कार्य के स्तर को गिरा दिया है. खुद आंकलन करें की क्या हम सच में पत्रकार कहलाने के लायक है और क्या जो हम अभी कर रहे है उससे अलग होने के बाद कोई मिडिया संस्थान ही चंद रुपये की पगार पर नौकरी देगा.......मंथन करने की आवश्यकता है
Shailender Vishwakarma
shailender.vishwakarma27@gmail.com
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