फ़िल्म सेंसर बोर्ड फ़िल्म उड़ता पंजाब को लेकर एक बार फिर विवाद में है। सेंसर बोर्ड में बतौर सलाहकार पैनल सदस्य 3 साल के अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हु कि फिल्मो के सेंसर से जुड़े ज्यादातर विवाद फ़िल्म की पब्लिसिटी के लिए होते हैं।
सेंसर बोर्ड यदि फिल्मो के दृश्यों पर कैची न चलाये तो भी आलोचना होती है। सेंसर बोर्ड के खिलाफ कोर्ट में मुकदमे ठोकने से भी परहेज नहीं होता। यदि काटछांट कर दे तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। मुझे याद है रामगोपाल वर्मा ने एक फ़िल्म बनाई थी "डीपार्टमेंट"। फ़िल्म पुलिस विभाग पर आधारित थी, इस लिए मुंबई पुलिस के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी को भी सेंसर स्क्रीनिंग के लिए बुलाया गया था। उस अधिकारी ने फ़िल्म के एक गाने को मुंबई पुलिस के लिए आपत्तिजनक मानते हुए उसे फ़िल्म से हटाने की सिफारिश की और चले गए। बाद में जब रामगोपाल वर्मा को यह जानकारी दी गई तो वे भड़क गए। दूसरे दिन अखबारों में सेंसर बोर्ड के खिलाफ बयान दिया। इसी तरह प्रकाश झा की फ़िल्म चक्रव्यूह के एक गाने "टाटा बाटा ने देश काटा" पर सेंसर बोर्ड ने कैची चलाई तो झा ने सेंसर बोर्ड की एग्जामिन कमेटी के इस फैसले के खिलाफ रिवाइजिंग कमेटी में अपील की और काटछांट को रद्द कर दिया गया। बाद में बिड़ला परिवार ने इस गाने को अपने परिवार के लिए आपत्तिजनक बताते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। कोर्ट ने इस गाने को पास करने के लिए सेंसर बोर्ड को जमकर फटकारा। ग्रैंड मस्ती -2 के लिए सेंसर सर्टिफिकेट की सिफारिश करने वाले सदस्यों की खूब आलोचना हुई थी। जिसके बाद सेंसर बोर्ड ने उस कमेटी के सदस्यों को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था। यदि उस कमेटी ने उस फ़िल्म को पास करने से मना किया होता तो फ़िल्म इंडस्ट्री आसमान सर पर उठा लेती और अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में पड़ जाती।
विजय सिंह
मुम्बई
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