शरीर तो आज़ाद हो गये थे 1947 में
सोच आज भी इंतज़ार में हैं रिहाई के
विकार के सारे बादल छंट जायेंगे इक दिन
हर एक कोने में धूप छम से बिखर जायेगी
सारे भेद मिटा उस दिन हम इंसान बन जायेंगे
उस दिन सभी की थाली में रोटी होगी
किसी की भी आँखें नम ना होगी
जमीं पर प्रेम और वात्सल्य की बरखा होगी
आज़ादी की एक भोर ऐसी भी होगी
जाति, धर्म और मज़हब की आड़ में
ना किसी की कुटिया जलेगी
ना किसी की चिता सुलगेगी
ना कोई बेबस होके सूत भरेगा
ना ही कोई जीते जी रोज़ मरेगा
बहन बेटियाँ और बहुओं की
अस्मत तार तार ना होगी
सारा देश उनके घर सा होगा
और वो ख़ुद को महफूज़ समझेगी
आज़ादी की एक भोर ऐसी भी होगी
उस दिन जश्न ए आज़ादी सही मायनों में होगी !!!
Poet : Manish Sharma
http://manhara.blogspot.com/2016/08/blog-post.html
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