चुनावी नुकसान की जिम्मेदारी अब उ0प्र0 में प्रशासनिक अधिकारियों के हवाले?
विनय ओसवाल
क्या कांग्रेस और भाजपा को छोड़ कर कोई दूसरा राजनैतिक दल आज पूरे हिन्दुस्तान में राजनैतिक पहचान और थोडा या बहुत जनाधार रखता है ? इसका जबाब है नही । इन दोनों दलों को छोड़ कर , कभी कोई तीसरा राजनैतिक दल ऐसी हैसियत बना पायेगा ? इस सम्भावना पर भी राजनेताओं की महत्वाकांछाओं का ग्रहण लगा हुआ है । लगातार सिकुड़ती जा रही कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए यह सबसे उपुक्त समय है कि वह , यह चिंतन करे कि उसे अपने सम्रद्ध राजनैतिक इतिहास की पहचान को जिन्दा रखना हैं या दो ध्रुवीय विश्व की राजनीति में तीसरे ध्रुव को जन्म और नेतृत्व देने वाले अपने शीर्ष नेताओं के वंशजों की पहचान को जिन्दा रखना , आज उसकी प्राथमिकता है ।
एक-एक प्रांत में अलग अलग दलों के मुख्यमंत्री कल तक अपने समकक्ष रहे मोदी को सत्ता के शीर्ष पर बैठा देख कर भले ही गहरे विषाद में चले गए हों , पर विषाद ग्रस्त इन नेताओं के दिलों में मोदी के बराबर खड़े होने की ललक का पैदा हो जाना स्वाभाविक ही है । पर क्या उनमे से कोई एक या सब मिलकर इस देश के नागरिकों को ये विशवास दिला पाएंगे कि वे भी मोदी से कम नहीं हैं । शायद 2019 से पहले तो नहीं । हिन्दुस्तान की आजादी के बाद गुजरात से उठ कर दिल्ली की गद्दी पर बैठे मोदी ने इसके लिए कम पापड नहीं बेले हैं । इस दौड़ में अड़वाणियों और जोशियों जैसी हिमालयी बाधाओं को लांघने के लिए मोदी ने जो कुरुक्षेत्र बीजेपी के भीतर लड़ा उस महाभारत को भले ही लोगों ने अपनी आँखों से रु-ब-रु न देखा हो परंतु संजय (टीवी) के मुंह सुना तो सबने है ।
कांग्रेस के बाद , पहलीबार बीजेपी वर्तमान में देश की सत्ता के सूत्र अकेले दम पर संभालने वाली पार्टी बन कर उभरी है । पिछले 67 वर्षों में बीजेपी सहित अन्य दल तरह तरह के प्रयोग आजमा चुके हैं । इस यज्ञ में सबसे बड़ी आहुति किसी ने दी है तो वह आज की भाजपा ने अपने पुराने “ भारतीय जन संघ “ नाम और पहचान की दी । 1977 में आपात काल के तत्काल बाद कांग्रेस विरोधियों का संयुक्त मोर्चा जनता दल के नाम से पहली बार अस्तित्व में आया जो सत्ता के शिखर तक पहुंचा । मोरार जी , पहले गैर कांग्रेसी प्रधान मंत्री बने । इंदिरा और उनके पुत्र संजय दोनों ही अपने अपने चुनाव क्षेत्रों में हारे । भानमती का ये राजनैतिक कुनबा तब से कई बार बनता बिखरता रहा है । ऐसे कुनबों के चाल-चलन और चरित्र के बारे में बुजुर्ग वोटर अच्छी तरह से परिचित हैं । युवा भले ही परिचित न हों , पर “ बिन पानी मछली की तरह सत्ता के प्यासों को तड़फता “ तो वो देख और समझ ही रहा है ।
इस कुरुक्षेत्र के मैदान में मोदी ने लगभग हर दल के रण बांकुरों को धराशाही किया वो आज एक इतिहास बन गया है । धर्म , जाती और भाषा के नाम पर राजनीति के खेमों में बटा वोटर ख़ास कर युवा तमाम सीमाओं को लांघ कर -- “ सबका साथ सब का विकास “ में अपनी बेरोजगारी का समाधान देख मोदी के साथ खड़ा हो गया । उसकी वो आशाएं मूर्त रूप लेंगी ये अभी तो भविष्य के गर्त में है । पर जो सब के सामने है वो ये कि मोदी कुर्सी पर मजबूती से बैठे है । बीजेपी भी जानती है कि “ सब का साथ सब का विकास “ के नाम की काठ की हंडिया दुबारा 2019 के चुनावी चूल्हे पर नही चढ़ सकती । बलूचिस्तान की आज़ादी के जिहादियों के संघर्ष को अपना नैतिक समर्थन दे , विश्व राजनीति की चौसर पर कूटनैतिक पांडित्य का जो पासा मोदी ने फेंका है उससे हिन्दुस्तान में उनके विरोधी हक्का-बक्का हैं ।
जब बिहार के चुनावों में “आल इंडिया मजलिस-ऐ-इत्तिहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) उतरी तो ये कयास लगाए गए कि बीजेपी अपने विरोधी मुसलमान वोटरों का ध्रुवीकरण करने का खेल खेल रही है । वो चाहती है जो वोट उसे न मिले वो उसके विरोधियों को भी न मिले , और कोई तीसरा बटोर ले । इसके लिए आंध्र प्रदेश के मुसलिम नेता असाउद्दीन ओवैसी को बिहार में उतारने के पीछे बीजेपी की कोई चाल है । हो सकता है ये कयास गलत हों , पर गलत प्रतीत नही होते । बिहार में पिछड़े , मुलायम की साइकिल पर सवारी करने को तैयार नही हुए । इसलिए ओवैसी मुसलमानों को ये विश्वास नही दिल सके कि उनके पीछे खड़े होने से बीजेपी का रथ रुक जाएगा । उन्होंने पिछड़ों (लालू और नीतीश) के संयुक्त मोर्चे को अपना समर्थन दे दिया । और बिहार में बीजेपी का रथ दलदल में फंस गया ।
2014 में बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के परिणामों से उत्साहित आरएसएस अब पूरे देश में विरोधी राजनीति की आवाज को अपने शोर में इतना दबा देना चाहती है , कि उनकी चिल्ल-पों किसी को साफ़ साफ़ सुनाई न पड़े । इसके लिए जरूरी है मुसलमान , शिड्यूल कास्ट शिड्यूल ट्राइब और पिछड़ी जातियों के जो वोट बीजेपी को न मिलें वो उसके धुर विरोधी दलों को मिलने के बजाए उसके कठपुतली नेताओं की झोली में चले जाएँ । फिलहाल ओवैसी और मुलायम की छवि ऐसे ही कठपुतली नेताओं की बन गयी है । हो सकता है इन चर्चाओं का इसका कोई ठोस आधार न हो पर ये चर्चाओं में तो है ।
उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट की चाहत सपा , बसपा और कॉंग्रेस तीनों को है । बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि मुसलमान उ0प्र0 में किसी एक दल के साथ खड़ा नही होता वो जिस क्षेत्र में बीजेपी के टक्कर में जो पार्टी आती दिखती है उसी को वोट देने का मन अंतिम समय में बना लेता है । पर फिर भी उसका प्रयास होगा कि मुसलमानो का जितना प्रतिशत वोट गड्ढे में डालवाया जा सके डलवाया जाये । मुलायम जानते हैं कि जिन क्षेत्रो में उसके प्रत्याशी बीजेपी टक्कर देते नही दिखेंगे मुसलामानों का वोट मायावती के हक़ में पड़ेगा । परन्तु ओवैसी कई क्षेत्रों में उनके लिए नुक्सान देय साबित होंगे । उनकी सम्भावित रणनीति होगी कि अकेले सत्ता में न आ पाने पर बीजेपी के साथ मिलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी बरकरार रख सकें । ऐसा तभी होगा जब उनके विधायकों की संख्या बीजेपी के विधायको से ज्यादा हो । इसके उलट बीजेपी चाहेगी कि अकेले अगर सत्ता में वो न आ सके तो उसके विधायक सपा से ज्यादा हों । उ0 प्र0 में ओवैसी जहां बीजेपी के लिए हितकारी हैं वहीं कठपुतली सहयोगी सपा के लिए नुक्सान दायक । ये दोनों के बीच की भीतरी कश्मकश है ।
कानपुर के अतिरिक्त जिलाधिकारी अविनाश सिंह ने , 28 ऑगस्त को होने वाली हलीम मुस्लिम कॉलेज के मैदान में प्रस्तावित असाउद्दीन ओवैसी को रैली करने की अनुमति नही दी । “ ओवैसी अपने भाषणों में सत्ताधारी नेताओं की कटुआलोचना करने वाले तेजतर्रार नेता हैं । उनकी रैली सपा के आधार वोटों को बांट और सिकोड़ सकती है “ प्रशासनिक अधिकारियों के चालचलन और चरित्र के जानकार इस मामले में अविनाश सिंह के प्रशासनिक आदेश दिनांक 26 ऑगस्त में की गयी इस राजनैतिक टिप्पणी से हैरान हैं । सन्दर्भ हिन्दुस्तान टाइम्स (अंग्रेजी) दिनांक एक सितम्बर । अविनाश सिंह की उक्त टिपण्णी मेरे आलेख की पृष्ठभूमि में लिए गए आधारों को पुष्ट करती है ।
विनय ओसवाल
9837061661
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