13.9.16

हिंदी दिवस पर विशेष लेख : स्वाधीन चेतना की भाषा हिन्दी की उपेक्षा क्यों?

मनोज कुमार

हिन्दी को लेकर भारतीय मन संवेदनशील है लेकिन उसका गुजारा अंग्रेजी के बिना नहीं होता है। सालों गुजर गए हिन्दी को राष्ट्रभाषा का मान दिलाने का प्रण ठाने लेकिन हिन्दी आज भी बिसूरती हुई अपनी हालत पर खड़ी है। हर साल सितम्बर का महीना हिन्दी के नाम होता है और बाकि के 11 महीने अंग्रेजी को समर्पित। ऐसे में हिन्दी को जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की जो कवायद है, वह आयोजनों तक ही रह गई है। कल तो इलीट क्लास के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते थे, अब निम्र आय वर्ग भी अंग्रेजी स्कूलों के मोहपाश में बंध गया है। आखिर यह स्थिति आयी क्यों, इस पर चिंतन की जरूरत है। यह क्या गर्व की बात है कि हम कहते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति अमुक मंच से हिन्दी में भाषण देकर आए हैं और उनमें भी चुनिंदा नाम गिनाये जाते हैं। जब भारत वर्ष की भाषा हिन्दी है तो किसी ने हिन्दी में भाषण देकर अपनी परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया है बल्कि हमें तो बार बार इस बात की आलोचना की जाना चाहिए कि अमुक राजनेता अपनी भाषा छोडक़र अंग्रेजी में बात कर रहा है। जिस दिन हम अपनी इस सोच में बदलाव करेंगे, हिन्दी की दशा और दिशा दोनों ही बदल जाएगी।


स्वाधीनता के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी जब हम हिन्दी की स्थिति देखते हैं तो सहसा निर्मल वर्मा की लिखी बातें स्मरण में आती हैं। वे लिखते हैं कि -‘यह देखकर दु:ख होता है कि जो भाषा एक समय में भारत की स्वाधीन चेतना का प्रतिनिधित्व करती थी, स्वतंत्रता के 50 वर्ष के बाद अपने को गहरी हीन भावना से ग्रस्त उपेक्षित स्थिति में पाती है। कोई भाषा बहुत देर तक सरकारी अनुदानों अथवा मौखिक आत्मप्रशंसाओं द्वारा जीवित नहीं रहती, उसकी संजीवनी शक्ति का स्रोत ऊपर से नहीं, नीचे से आता है .... उन अटल गहराईयों से जहां उसके समाज के संस्कार और स्मृतियां वास करती हैं। पिछले वर्षों में हिन्दी भाषा का यह सनातन स्रोत धीरे-धीरे सूखता चला गया है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे विश्वविद्यालयों, हमारी शिक्षा-पद्धति, हमारे सामाजिक कार्यकलाप में हिन्दी भाषा की भूमिका हाशिए पर चली गई है, तो आश्चर्य होता है कि पराधीन भारत में हमारी चेतना अधिक स्वतंत्र थी, अपनी भाषा में हमारा विश्वास कहीं और गहरा था, हमारी सांस्कृतिक संस्थाएं अधिक आत्मनिर्भर थीं। हालांकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को आशा थी कि सन् 2000 ई. आते-आते हिन्दी में ज्ञान का साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जाएगा। हिन्दी उच्चतम न्याय, उच्चतम शिक्षा और उच्चतम विधान की भाषा होगी। उन्हें पूरा विश्वास था कि आगामी 33 वर्षों में हिन्दी साहित्य स्वस्थ होगा अर्थात् हिन्दी देश की भीतरी जन-जीवन की उगती हुई आकांक्षाओं के साथ कदम रखता हुआ आगे बढ़ेगा, किन्तु हिन्दी आज भी उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय की भाषा नहीं बन पाई है।

यह हमारे लिए शर्म की बात है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए विश्व के किसी भी देश ने अंग्रेेजी को नहीं अपनाया। भारत को छोड़ हर मुल्क की आज अपनी भाषा है। इसी कारण विदेश दौरे पर गए भारतीय प्रतिनिधि द्वारा अपना संबोधन अंग्रेजी में देते ही यह सुनना पड़ा कि क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं? इस अपमान के बावजूद भी हम आज तक नहीं चेत पाए। सभी भारतवासियों को कितना अच्छा लगा था जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने विश्व मंच पर अपना वकतव्य हिन्दी में दिया था  आज जब अपने ही घर में हिन्दी अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षित होती है, तो स्वाभिमान को कितना ठेस पहुंचता है , सहज अनुमान लगाया जा सकता है । काश यह अनुमान उन देशवासियों को होता जो इस देश में जन्म लेकर विदेशी भाषा अंग्रेजी को अहमियत देते है। आज अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। वस्तुत: हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहां तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते, जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाए। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं, जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र का ख्याल तब आता है, जब अमेरिका उन्हें पेटेंट करवा लेता है। योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया पर जब वही योगा बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं।

हमारे देश में प्रत्येक राज्य की अपनी भाषा है। भाषाओं की विभिन्नता के समावेश के बावजूद भी अंग्रेजी को बोलचाल का माध्यम बनाया जाता है। जितनी मेहनत हम अंग्रेजी सीखने में करते हैं, उतनी मेहनत हम अपने ही भारत देश की किसी और भाषा को सीखने में क्यों नहीं करते हैं? पाश्चात्य अथवा अंग्रेजी संस्कृति को दोष देने से पहले प्रत्येक भारतीय को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि वो खुद अपनी संस्कृति के प्रति कितने निष्ठावान हैं।

भारत में टी.वी. चैनलों की भरमार है। पहले सिर्फ हिन्दी में ही चैनलों का प्रसारण होता था और चैनल भी दो ही थे, लेकिन धीरे-धीरे चैनलों के साथ-साथ भाषाएं भी बढ़ती गईं। आज हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी चैनलों का प्रसारण हो रहा है जो एक अच्छी बात है, लेकिन भारतीय चैनल अंग्रेजी को अब भी अपनाकर चल रहे हैं। विदेशों में उनकी स्थानीय भाषा में ही चैनलों का प्रसारण होता है। वहां मुश्किल से एक या दो चैनल ही अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। वहां अपनी स्थानीय भाषा को महत्व दिया जाता है। इसी तरह भारतीय परिवेश में भी स्थानीय भाषा का वर्चस्व होना चाहिए।

‘यह संक्रमण का समय है। संस्कृति, साहित्य और मीडिया में गहरी और व्यापक उथल-पुथल चल रही है। तकनीक ने संचार को आसान और त्वरित कर दिया है, जिससे संचार क्रांति हो गई है। नया मीडिया बहुत ताकतवर और आक्रामक है। अब यह केवल मीडिया, मतलब केवल संदेश का वाहक नहीं रहा। यह अब लगभग स्वायत्त और निर्णयात्मक हैसियत में है। इसने मनुष्य को उसके भीतर से खींचकर बाहर ला खड़ा किया है। मीडिया तय कर रहा है कि वह क्या खाएगा और क्या पहनेगा। मनुष्य अब अपने मन की कम, मीडिया की ज्यादा सुन रहा है। साहित्य सकते में है। मीडिया ने गद्य को पुनर्जीवन दिया है। गद्य मीडिया में मंज रहा है और नए रूपों में ढल रहा है। साहित्य की पारम्परिक विधाओं के अनुशासन चरमरा रहे हैं, उनमें अंर्तक्रियाएं हो रही हैं। भाषा का जनतंत्रीकरण हो गया है। भाषा का नया रूप उसे बोलने-बरतने वाले लोग गढ़ रहे हैं। पहली बार बोली-बरती जाने वाली हिन्दी लिखी जाने वाली हिन्दी का दर्जा पा रही है। कविता मुश्किल में है, वह अपनी ताकत को तौल और टटोल रही है। कहानी-उपन्यास नए रूपों में ढल रहे हैं।’

स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय वेश तो प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्र की पहचान है। वास्तव में राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र की धमनियों में संचारित होने वाली राष्ट्रीयता की जीवंत धारा, रुधिर धारा है। राष्ट्रभाषा के बिना जन-जन का न तो पारस्परिक सम्पर्क संभव है और न देशवासियों में एकता की भावना ही पनप सकती है। राष्ट्र की भावात्मक एकता की बात करने वाले उपदेष्टा राजनीतिज्ञों को स्मरण रखना चाहिए कि विदेशी भाषा के माध्यम से स्वदेशी भावना का प्रचार आकाश कुसुम सूंघने का प्रयास करना है।  भाषा के प्रति हमारी यह उदासीनता एक दिन भाषा को उजाड़ दे तो कोई आश्चर्य नहीं।

हिन्दी की आज यहीं वर्तमान दशा है, जहां हिन्दी अपने ही लोगों से पग-पग पर उपेक्षित हो रही है। इस दशा में क्या दिशा मिल सकती है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। दोहरेपन की नीति के कारण आज तक स्वतंत्रता के 69 वर्ष उपरांत भी इस देश को सही मायने में एक भाषा नहीं मिल पाई है, जिसमें पूरा देश बातचीत कर सके। जिस भाषा को अंग्रेजों ने हमारे ऊपर थोपा, उसे लोग बड़े शौक से अपनी दिनचर्या में शामिल कर रहे हैं। अंग्रेज तो इस देश से चले गए, पर अंग्रेजियत आज भी हावी है। जब भी हिन्दी दिवस आता है, हिन्दी पखवाड़ा, सप्ताह का आयेजन कर, हिन्दी पर लम्बे-लम्बे वक्तव्य देकर, प्रतियोगिता आयोजित कर कुछ लोगों को हिन्दी के नाम पर सम्मान, इनाम देकर इतिश्री कर ली जाती है। हिन्दी पखवाड़ा, सप्ताह समाप्त होते ही हिन्दी वर्ष भर के लिए विदा हो जाती है। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा होती है। जिसमें पूरा देश संवाद करता है। जिससे राष्ट्र की पहचान होती है। यह तभी संभव है जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोडक़र राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ मन से लें। तभी सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप उजागर हो सकेगा। हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरुप उजागर होने की आज महती आवश्यकता है। जिसमें देश की एकता और अस्मिता समाहित है।

लेखक मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका ‘समागम’ के सम्पादक हैं.

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