पत्रकारिता से भी है चिकित्सक का लगाव, ‘एमएस’ के बाद बाकायदा ‘मॉस-कॉम’ की डिग्री ली
14 अगस्त को शुरू हुआ ‘बीमारी से आजादी’ अभियान
सत्ता की ताकत से अभियान को थामने की हो रही है कोशिश
समाजसेवियों, कारोबारियों, चिकित्सकों, पत्रकारों और युवाओं का मिला साथ
शहरी चिकित्सकों ने दल-बल के साथ पकड़ी गांव की राह, गरीब मरीजों को राहत
पीलीभीत। एक ईमानदार मामूली पहल ही किस तरह लोगों के लिए उम्मीद की रोशनी बन जाती है और सिस्टम के लिए आइना, अगर यह देखना हो तो पीलीभीत के बरखेड़ा आ जाइये। एक जोशीले चिकित्सक की सियासत के रास्ते तब्दीली की कोशिश और उसे मिल रहे समर्थन ने बड़े-बड़ों के होश गुम कर दिये हैं। नतीजा यह कि अब सत्ता की ताकत के सहारे रास्तों में कांटे बिछाने की कोशिशें की जा रही हैं। ‘ बीमारी से आजादी ‘ अभियान की मल्टी यूटिलिटी व्हीकल के पहिए को पुलिस ने जब थाम लिया तो इसके पीछे की ताकत के बारे में कयास लगने लगे।
एक आग का दरिया है
“ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे,, एक आग का दरिया है, और डूब के जाना है”। पीलीभीत में राजनीति की बागडोर खुद के हाथों में थामने की कोशिश में जुटे सियासत से अनजान हजारों नवजवानों को अब शायद जिगर मुरादाबादी के इस शेर का अर्थ अच्छी तरह समझ आ रहा होगा। अपने जैसे ही एक सर्जन की अगुवाई में आगे बढ़ रहे इन जुनूनियों को दरअसल सत्ता की ताकत अब अपना असली चेहरा दिखा रही है। और यह अहसास भी दिला रही है कि लड़ाई तो बेशक कई मोर्चों पर लड़ी जानी है।
पहल थामने की कोशिश
दरअसल, रविवार को ‘बीमारी से आजादी’ अभियान में लगी मल्टी यूटिलिटी वाहन के पहिये पीलीभीत पुलिस ने जाम कर दिये। खबर फैली और उसका नतीजा यह कि आक्रोशित युवा बरखेड़ा थाने की करोड़ चौकी पर जुटने लगे। अभियान की बागडोर थामे युवा सर्जन डॉ शैलेन्द्र को जब इस वाकये और आक्रोश की खबर लगी तो वह भी मौके पर आ गये। पुलिस की इस जबरिया कार्रवाई के खिलाफ लोगों में आक्रोश था, जिसे किसी तरह बुझाया गया। खफा साथियों को वर्दी की मजबूरियों के बारे में भी बतलाया गया। और अंत में यह तय हुआ कि इसका विरोध गांधीवादी तरीके से हो और कुछ दिन वेहिकल को वहीं पड़ा रहने दिया जाये ताकि लोग भी करीने से समझ सकें कि उनके हक में उठने वाली आवाजों और कोशिशों को किस तरह सत्ता दबाने की साजिश रचती है। इस अहिंसक प्रतिरोध का मजा यह कि इलाकाई लोग भी इस ज्यादती के खिलाफ मुखर होने लगे हैं।
युवा पहल ने खोली सपनों की राह
आइये आपको इस पूरी कहानी का बैकग्राउंड समझाते हैं। दरअसल, केन्द्र और सूबे में सत्ता का हिस्सेदार होने के बावजूद उपेक्षा झेल रहे पीलीभीत ने इस बार के चुनाव में खुद के पैरों पर खड़े होने की ठानी थी। एक रोज कुछ नौजवानों ने मिलकर तय किया कि अगर बिना प्रतिरोध के कोई राह नहीं, तो क्यों न आवाज बनने की कोशिश की जाये। बरखेड़ा विरोध की जमीन बनी, लोकप्रिय युवा सर्जन को आगे किया गया, सत्ता की दावेदार पार्टी से टिकट मांगा गया और हजारों हाथ खुद के हाथों में बागडोर थामने के लिए जुड़ गये।
साथ मिला तो बढ़ी बेचैनी
शुरूवात में इस कोशिश को कोई खास तवज्जो नहीं दी गयी। डॉ शैलेन्द्र को भी सियासत से अनजान कहकर खारिज कर दिया गया। बसपा के पिछले प्रदर्शनों के चलते भी किसी ने इस चिंगारी पर खास ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसी दरमियान चर्चाओं-कयासों को अनसुना कर कुछ लोग गावों-गलियों की खाक छान रहे थे। लोगों की मुश्किलों को समझते, नये रिश्ते गढ़ते, सीधा संवाद करते लोगों का हुजूम हर रोज सैकड़ों मीलों की धूल छान रहा था। और जब इस कोशिश में इलाकाई लोगों का साथ भी मिलने लगा तो जाति-धर्म का जोड़-घटाव लगाये बैठे खांटी नेताओं में खलबली मच गई।
मुलाकातों के दौर ने दिखाये नये रास्ते
इस बेचैनी की ठोस वजह थी। दरअसल, लोगों से मिलने-मिलाने के दौरान दूर- दराज के इळाकों की हकीकी तस्वीरें भी सामने आ रही थीं। सियासत के रास्ते तब्दीली के अभियान में जुटे युवाओं में शामिल कई चिकित्सकों ने जब ऩंगी आंखों से हकीकत देखी तो एक नया फैसला कर लिया। सोच बनी कि जो काम अभी शुरू हो सकता है उसके लिए बाद का इंतजार क्यों किया जाये। तय हुआ कि शहरी सीनियर डाक्टरों से भी गुजारिश की जाये, दूसरे लोगों से मदद ली जाये और गंवई इलाकों में –बीमारी से आजादी- अभियान ही चला दिया जाये। पीलीभीत ने साथ दिया तो सोच हकीकत में भी बदल गयी। अब जाहिर है, हर पहल को सियासी चश्मे से निहार रहे राजनीतिक तबके को इस अभियान ने भी खासी चिंता में डाल दिया।
सोशल साइट्स पर भी छाया बरखेड़ा
जाहिर है, देर-सवेर इस युवा जुनून को लोगों का भी साथ मिलना ही था। ईमानदार पहल की उम्मीद झलकी तो पीलीभीत ने भी इस कोशिश के साथ आवाज मिला दी। ‘फेसबुक’ और ‘व्हाट्स अप’ ग्रुप पर ‘IAmDrShailendra’ और ‘WeAllAreDrShailendra’ सरीखे नारे वायरल होने लगे। इस सबका नतीजा यह कि चुनाव से पहले ही ‘बरखेड़ा सीट’ चुनावी रंग में नजर आने लगी है। और सोशल साइट्स पर हो रहे चुनावी सर्वेक्षणों को अगर माहौल सूंघने का यंत्र माने तो ये युवा कोशिश कामयाब होती भी नजर आ रही है।
alok verma
alokverma_journalist@rediffmail.com
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