अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर करीब दस प्रतिशत ब्राह्मणों को लेकर सियासत गरम हो गई है। ब्राह्मणों को सभी दल अपने खेमें में खींचने को ललायित हैं। कभी कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक समझे जाने वाले ब्राह्मणों ने 1989 में मण्डल-कमण्ड के दौर में कांग्रेस का हाथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया था। करीब दो दशकों तक ब्राह्मणों का बीजेपी से लगाव बना रहा,इस सिलसिले को बसपा ने तोड़ा। 2007 में जब बसपा ने खालिस दलित राजनीति से किराना करके सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अख्तियार करते हुए ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का नया नारा बसपाइयों को दिया तो बीजेपी के ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लग गई। बीएसपी का दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़ का फार्मूला जबर्दस्त हिट रहा। 2007 में बीएसपी पहली बार इस गठजोड़ के सहारे बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने में कामयाब रही। इसका प्रभाव यह हुआ कि 2007 से पूर्व तक बसपा में जिन पदों पर दलित नेता विराजमान थे,वहां ब्राह्मण चेहरे नजर आने लगे। पहली बार मुख्यमंत्री मायावती ने ब्यूराक्रेसी मंे भी दलित अधिकारियों को अनदेखा करते हुए तमाम महत्वपूर्ण पदों पर ब्राह्मण अधिकारियों की तैनाती कर दी, लेकिन 2012 के चुनाव करीब आते-आते माया को ब्राह्मणों को तरजीह देने के कारण दलित वोटरों की नाराजगी का अहसास होने चुका था।
माया ने जब दलित वोटरों को रिझाने के लिये कुछ ब्राह्मण नेताओं और अधिकारियों के पर कतरे तो ब्राह्मणों को इसमें अपना अपमान नजर आया। 2012 के विधान सभा चुनाव में ब्राह्मणों ने ही नहीं मुस्लिम वोटरों ने भी बसपा से मुंह मोड़ लिया। मुस्लिम वोटर तो सपा के साथ चले गये, परंतु ब्राह्मण वोटर तितर-बितर हो गये। यह दौर लम्बा नहीं चला। 2014 में जब केन्द्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरूआत हुई तो मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे और कुछ हद तक मोदी की प्रखर हिन्दूवादी छवि के कारण ब्राह्मण एक बार फिर भगवा खेमें में आ गये। खैर, सियासत संभावानाओं का ‘खेल’ है। यहां पल-पल में बदलाव देखने को मिलता है। इसी सोच को ‘गुरू मंत्र’ मानकर एक बार फिर सभी प्रमुख राजनैतिक दल ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। यूपी में नंबर चार पर खड़ी कांग्रेस ने अपनी स्थिति सुधारने के लिये ब्राह्मणों पर बड़ा दांव चला है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित (ब्राह्मण चेहरा) को कांग्रेस ने यूपी में सीएम की कुर्सी के लिये प्रोजेक्ट किया है तो राहुल गांधी भी पोस्टरों में ही सही पंडित राहुल गांधी हो गये हैं।
कांग्र्रेस, बीजेपी और बीएसपी ब्राह्मणों को लुभाने के लिये तरह-तरह के दांवपवेंच चल रहे हैं तो समाजवादी पार्टी कैसे पीछे रह सकती थी। विकास के नाम पर चुनाव लड़ने की बात करने वाले युवा सीएम अखिलेश यादव ने भी चुनावी बेला में अंतिम मंत्रिमंडल विस्तार में तीन पंडित नेताओं को कैबिनेट मंत्री बनाकर जता दिया है कि सपा सिर्फ विकास के सहारे जीत का मार्ग प्रशस्त करने में विश्वास नहीं रखती है। इसके अलावा भी सपा नेतृत्व ने कई ब्राह्मण चेहरों को तमाम मोर्चो पर लगा रखा है। सपा प्रबुद्ध सम्मेलनों के जरिये ब्राह्मणों को पार्टी से जोड़ने में लगी है। सपा में माता प्रसाद पांडेय व अशोक वाजपेयी जैसे नेताओं को तो अहमियत दी ही गई है। ब्राह्मणों के बीच सपा के पक्ष में संदेश देने के लिए ही पिछले दिनों शारदा प्रताप शुक्ल को उच्च शिक्षा मंत्री ‘स्वतंत्र प्रभार’ बनाया गया था। पूर्व मंत्री अशोक वाजपेयी को हाल ही में प्रवक्ता पद की जिम्मेदारी दी गई है। अलबत्ता इस बार ब्राह्मण सपा से बहुत खुश नहीं नजर आ रहे हैं।
उधर, बीएसपी के रणनीतिकार भी 2012 में रूठे ब्राह्मणों को पुनः अपने पाले में खींचने को लेकर मायूस नहीं हैं। बीएसपी नेतृत्व 2007 वाले जातीय गठजोड़ को मजबूती प्रदान करने में लगी हैं। बसपा सुप्रीमों माया ने इस बार भी ब्राह्मणों को लुभाने के लिये अपने पुराने धुरंधर सतीश मिश्रा को और मुस्लिमों को बीएसपी की तरफ खींचने के लिये नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मोर्चे पर लगाया है। दलितों को लुभाने के लिये स्वयं मायावती मौजूद है। कभी ‘तिलक,तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।’ को बसपा का नारा समझा जाता था,लेकिन जब मायावती ‘सर्वजन हिताय’ के रास्ते पर निकली तो उन्होंने साफ कर दिया कि यह नारा बसपा का था ही नहीे। इससे इत्तर बसपा की तरफ से नारा उछाला गया,‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा,विष्णु, महेश हैं।’इस नारे के सहारे 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में शानदार जीत हासिल की थी। बसपा 2007 की तरह सत्ता में वापसी के लिए 2017 के चुनाव के पहले प्रदेश की सुरक्षित सीटों पर बसपा के दलित प्रत्याशियों को ब्राह्मणों का वोट दिलाने की रणनीति बनाने में जुटी हैं।
कांग्रेस ने इस बार अपना फोकस ब्राह्मण समाज पर रखा। इसी के चलते कांग्रेस ने 75 वर्षीय शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। कांग्रेस के नेता ब्राह्मण समाज के दरवाजे पर जाकर समर्थन मांग रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में किसान यात्रा निकाली थीं। इस दौरान मथुरा में एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने पोस्टर लगाया, जिसमें राहुल गांधी को पं. राहुल गांधी कहकर संबोधित किया गया। राहुल या उनकी टीम के किसी सदस्य ने इसका प्रतिवाद नहीं किया, जबकि अगर अतीत को उठाकर देखा जाये तो राहुल गांधी पंडित नहीं पारसी कहा जायेगा। बहरहाल, कभी कधार चुप्पी भी राजनीति का हिस्सा बन जाती है। यह मुख्य रूप से ब्राह्मण समाज को कांग्रेस की ओर मोड़ने की कोशिश है। पिछले 27 साल से यूपी में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। कांग्रेस को यह पता है कि जब तक ब्राह्मण उससे नहीं जुड़ेंगे यूपी में उसकी सियासत नहीं सुधरेगी। 1989 में यूपी में कांग्रेस के ही एनडी तिवारी आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे। उसके बाद हर पार्टी की सरकार बनी, लेकिन कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना,जबकि किसी भी दल में ऐसे ब्राह्मण नेताओं की कमी नहीं है जो हर तरह से सीएम की कुर्सी के योग्य नजर आते हैं। यह बात ब्राह्मणों को भी काफी पीड़ा पहंुचाती है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तमाम दलों के ब्राह्मण प्रेम के चलते इस बार नजारा बदला-बदला सा दिख रहा है। यहां यह बताना जरूरी है कि यूपी में करीब 55 फीसदी पिछड़ा वर्ग है। बीजेपी ब्राह्मण वोट बैंक को लेकर कितना गंभीर है,इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ब्राह्मणों की नाराजगी से बचने तथा के लिए पीएम नरेन्द्र मोदी ने 75 साल पार कर चुके कलराज मिश्र को केंद्रीय मंत्रिमंडल में बनाए रखा है तो मंत्रिमंडल विस्तार में महेंद्र नाथ पांडेय को केंद्र में मंत्री बनाया गया है। वर्षो से हासिये पर पड़े शिव प्रताप शुक्ला को राज्यसभा भेजकर ब्राह्मणों का रिझाया जा रहा है। साफ है कि भाजपा खुद को ब्राह्मणपरस्त साबित करने में कांग्रेस से पीछे नहीं रहना चाहती।
बात ब्राह्मण समाज के स्वभाव की कि जाये तो यह बिरादरी कभी जातिवादी नहीं रही है। ब्राह्मण अगर किसी चीज का भूखा रहता है तो वह है उसे मिलने वाला सम्मान।यह बिरादरी समाज में सभी समस्याओं - परेशानियों को लेकर बिना डर-भय के मुखर रही है। योग्यता इनमें कूट- कूट कर भरी हुई है। इसीलिये तमाम उच्च पदों पर इसी बिरादरी के लोग बैठे नजर आते हैं। राजनीति,नौकरशाही हो या न्यायपालिका अथवा पत्रकारिता जगत सभी जगह इनका डंका बजता है। ब्राह्मणों की योग्यता पर शायद ही कभी किसी ने उंगली उठाई हो, लेकिन आर्थिक तंगी ने ब्राह्मण समाज को कभी उबरने नहीं दिया। एक अभिशाप की तरह इसने कभी ब्राह्मणों का पीछा नहीं छोड़ा, जिस कारण यह समाज देश और ब्राह्मणों से जुड़ी किसी समस्या पर मुखर नहीं हो पाया।
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