एक बार फिर से 'लोकप्रिय साहित्य' और 'गम्भीर साहित्य' के बीच का विमर्श शुरू हो गया है। समय-समय पर यह मुद्दा विमर्श, या यों कहें कि विवाद में आ जाता है। वस्तुतः विवाद तो यहीं से शुरू हो जाता है कि 'लोकप्रिय' और 'गम्भीर' साहित्य की परिभाषा क्या हो। इसका कोई नियामक तो है नहीं और न ही इन दोनों के बीच कोई स्पष्ट रेखा खींची जा सकती है।
पिछले दिनों अमेरिकी लेखक-सह-गायक बॉब डिलन को साहित्य की श्रेणी में नोबल पुरस्कार मिला। इस पर दुनिया भर से कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं। जहाँ एक तरफ एक बड़ा वर्ग बॉब डिलन को 'लोकप्रिय' श्रेणी का 'कलाकार' कह कर इस सम्मान को गलत ठहरा रहा है, वहीँ दूसरी तरफ भी एक बड़ा वर्ग है जो इस सम्मान को इस बात का द्योतक मानता है कि जन-स्वीकार्यता को उत्कृष्टता का मापदण्ड माना जाने लगा है। हिन्दी साहित्य में भी इस बात को ले कर लगभग घमासान-सा मचा रहता है। टाइम्स ग्रुप के एक बड़े ट्वीटर हैंडल ने लिखा है - 'बॉब डिलन को मिले नोबेल पुरस्कार के बाद अपनी कविता को कंसर्ट में बदलने वाले कवि कुमार विश्वास भी प्रासंगिक हो गए हैं।'
उल्लेखनीय है कि कवि-सम्मलेन के पारम्परिक स्वरुप में भारी बदलाव करते हुए कवि कुमार विश्वास ने हिन्दी कविता को बिलकुल नए रूप में देश-विदेश के युवाओ तक पहुँचाया। पहले डिजाइनर सूट, फिर स्किन माइक और अब बाक़ायदा म्यूज़िकल बैंड के साथ अपनी कविताओं का प्रस्तुतीकरण कर जहाँ कुमार विश्वास दिन-प्रतिदिन लोकप्रियता के नए आयाम गढ़ते जा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर कुछ लोग उन्हें 'गम्भीर' साहित्यकार मानने से ही इनकार करते हैं। कारण लोकप्रियता हो या राजनीति, यह भी एक ध्यान देने लायक तथ्य है कि कुमार विश्वास की तमाम उपलब्धियों और वृहद् जन-स्वीकार्यता के बावजूद उन्हें आज तक कोई भी सरकारी साहित्यिक सम्मान नहीं मिला है; यहाँ तक कि तथाकथित मानक साहित्यिक प्रतिष्ठानों से भी नहीं! यदि मानक साहित्यिक पत्रिकाओं को भी देखें, तो कुमार विश्वास की कविता शायद ही कभी उनमें प्रकाशित होती हैं, जबकि प्रकाशकों के हवाले से देखें तो कुमार की किताबें 'बेस्टसेलर' कैटेगोरी में हैं और हाथों-हाथ बिकती हैं। बॉब डिलन से ले कर कुमार विश्वास तक के सन्दर्भ में यह समझना मुश्किल है कि क्या इनके लेखन और गम्भीर साहित्य के बीच इनकी लयवादिता बाधा बनती है अथवा इनका प्रस्तुतिकरण? लय की ऐसी अस्वीकार्यता क्यों? लय से नफरत क्यों? लय तो मनुष्य के ह्रदय की धड़कनों से ले कर नब्ज़ तक में समाहित है। अब गम्भीरता का लय से क्या द्वंद्व हो सकता है, यह समझना मुश्किल है।
अपने-अपने समय में नीरज से ले कर बच्चन तक, सबको समकालीन तथाकथित गम्भीर साहित्य ने ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, जबकि उनके गीतों में दर्शन से ले कर उत्कृष्ट श्रृंगार तक सब कुछ है। इस अजीब सी परम्परा के बीच बॉब डिलन को नोबल मिलना एक अनोखी और प्रशंसनीय सूचना है।
बॉब के प्रशंसक जानते हैं कि उन्होंने कभी किसी पुरस्कार के लिए नहीं लिखा। उन्होंने अपना काम अपने स्तर पर जारी रखा। सामजिक क्रांति से ले कर जीवन-दर्शन और प्रेम तक के गीत खुद लिखते रहे हैं, खुद गाते रहे हैं। लेखन में वो कैफ़ी आज़मी साहब के शब्दों में कहें तो 'हुस्न और इश्क़ दोनों को रुस्वा करे, वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं' को चरितार्थ करते रहे। काफी लोकप्रिय भी हुए। लेकिन पुरस्कारों के लिए किसी राजदरबार के चौखट पर टोपी उतार कर नहीं रखे। इसके बावजूद आज जन-स्वीकार्यता की बदौलत नोबल पुरस्कार तक पहुँचना एक बड़ी उपलब्धि है। यह तो आने वाला समय बताएगा कि इस पूरे घटनाक्रम के बाद क्या हिन्दी साहित्य जगत कुमार विश्वास सरीखे लोकप्रिय कॉन्सर्ट-कवियों को नए चश्मे से देखेगा? बहरहाल, टाइम्स ग्रुप द्वारा बॉब डिलन का सन्दर्भ ले कर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भी कुमार विश्वास के जानिब इस तरह का इशारा करना यकीनन चर्चा को पुनः स्थापित करता है।
कुमार विश्वास जी को अवार्ड की जरूरत नही है वो तो लोगो के दिलो में है . आज तक पुरस्कार तो राज कपूर जी को भी नही मिला पर आज भी वजूद सबसे ज्यादा है ठीक वैसे ही आजदी के बलिदान में भगतसिंह हमारे दिलो में बसते है फिर नोटों पर भले ही गाँधी जी हो
ReplyDeleteविश्वसनिय लेख लिखा है यशवंत सिंह जी
जरुर पढ़े sandeepsinghsolanki.blogspot.in
वैसे तो बॉब डिलन के बहाने कुमार विश्वास कोई तार्किक आलेख है ही नहीं। फिर भी, लोकप्रियता को ही सिर्फ आधार बनाएँ तब भी कुमार विश्वास उस जगह कभी पहुँच पाएँगे जहाँ बॉब डिलन हैं यह मानना उतना ही अकल्पनीय है जितना यह कि कुमार विश्वास चाँद पर जाने वाले राकेश शर्मा के बाद दूसरे भारतीय होंगे। लेकिन जैसा कि अनुपम खेर का एक टीवी शो था, कुछ भी हो सकता है। फिर भी समय की अगर यही गति और दिशा दशा रही तो उनके चाँद पर जा सकने से ज्यादा सम्भावना ज्ञानपीठ पाने की ही हो सकती हैं।
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