संस्कृत के आचार्यों और उनके योगदान पर जब भी विमर्श होता है तब भरत मुनि को कोई भूला दे ऐसा संभव नहीं। स्वभाविक भी है, व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से होती है। एक राजा जब तक राजा है, तब तक कि वह उस पद पर विराजमान है किंतु उसके बाद सिर्फ उसके श्रेष्ठ कर्म ही उसे देह से मुक्त करते हुए सदैव जीवित रखते हैं। इस दृष्टि से भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ की विवेचना समीचीन है। क्यों कि नाट्य परम्परा की गहराई में जाने पर उनका ही सर्वप्रथम रचित ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ मिलता है, इसलिए ही वे नाटक, फिल्म, प्रहर्सन इत्यादि कला से संबंधित जितने भी प्रकार हैं उनके आदि आचार्य कहलाते हैं।
भरत मुनि कहते हैं, ‘‘न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येडस्मिन यन्न दृश्यते।।’’ अर्थात् न ऐसा कोई ज्ञान है, न शिल्प, न कोई ऐसी विद्या, न कला, न योग और नहीं कोई कर्म, जो नाट्य में न पाया जाता हो। यानि की जो भी सांसारिक विधाएँ हैं वे सभी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में नाटक का ही अंग हैं। सही भी है नाटक का प्रधान तत्व है भावना और दूसरा प्रमुख तत्व विचार, दोनों का उचित समन्वय ही किसी नाटक, फिल्म, प्रहर्सन को जन्म देता है।
भरतमुनि के इस श्लोक और व्याख्या को यदि प्रत्येक मनुष्य के दैनन्दिन जीवन से जोड़कर देखें तो स्थिति बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है। शायद, इसीलिए आगे हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यकारों को परस्पर कहना पड़ा कि व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए थियेटर का ज्ञान आवश्यक है। जीवन एक रंगमंच है जिसमें हम सभी अलग-अलग समय में आते हैं, अपना-अपना किरदार निभाते हैं और फिर चले जाते हैं।
वस्तुत: होता भी यही है, हम सभी नित्यप्रति अनेक भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं। प्रत्येक रिश्ते में नाटकीयता का पुट कहीं न कहीं रहता है। पति-पत्नि, पिता-पुत्र, माता-पुत्रि, भाई-बहन या अन्य किसी रिश्तें को ले लें। यदि इनमें से नाटकीयता को समाप्त कर दिया जाए तो जीवन नीरस हो जाएगा। क्योकि नाटकीयता वह तत्व है जो जीवन के नीरस प्रसंगों को भी रोचक बना देती हैं। प्यार में, गुस्से में, उत्साह और उमंग में हमारी भाव भंगिमाएँ सब कुछ कह देती हैं। इसी तरह स्वर को कभी कोमल, कभी कर्कश बनाकर हम अपने शब्दों का वजन बढ़ाते और कमतर करते हैं। वास्तव में यही सब तो है थिएटर । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का यही रंगमंच उसे सिखाता है कि कैसे वह हँसे, रोए और अपनी अभिव्यक्ति को खुलकर आंसमानों तक ऊंचाईयां प्रदान करे।
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का महत्व इस बात से पता चलता है कि आगे हुए उद्भट आचार्यों में भट्टोद्भट, भट्टलोल्लट, भट्टशंकुक भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कीर्तिधर, राहुल, भट्टयंत्र और हर्षवार्तिक सहित प्राय: सभी प्रमुख विद्वानों ने नाट्यशास्त्र पर टीकाएँ लिखीं। जहां तक कि विदेशी विद्वानों ने भी नाट्यशास्त्र की खण्डित प्रतियाँ लेकर प्रकाशित करने का अदम्य प्रयास किया, इनमें फेड्रिक हाल, जर्मन विद्वान हेमान, फ्रांसीसी विद्वान रैग्नो एवं इनके शिष्य ग्रौसे जैसे विद्वानों के नाम गिनाए जा सकते हैं।
भरत के नाट्यशास्त्र में लोक का महत्व अंगीकार करते हुए जिस समग्रता से नाटकों के प्रकार, उनके स्वरूप, उनकी कथावस्तु, कथावस्तु के विभिन्न अंग और चरण तथा उनके सृजन-सम्बंधी विधि-निषेध, नायक-भेद और उनके मानक, नायिका तथा अन्य पात्रों के मानक का वर्णन किया गया है, वह हमारी परम्परागत धरोहर है। वे रंगमंच (मंडप) और नेपथ्य की संरचना, नृत्य के प्रकार, उनकी तकनीक, उनके अंग-संचालन की विस्तृत और सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत करते हैं। उनके नाट्यशास्त्र में बारीक से बारीक भावों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न आंगिक मुद्राएँ और भंगिमाएँ, भाव, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (या संचारी) भाव के संयोग से स्थाई भाव के रस की निष्पत्ति, रस के प्रकार, उनके लक्षण, उनके प्रभाव की विशद व्याख्या है। यहां तक कि संगीत के सात स्वर, उनके क्रम उनकी मूर्छनाएँ, उनके मिश्रण तथा प्रयोग के मानक, वाद्य और गायन की विधियाँ जैसे अनेक विषयों का विवेचन जो वे अपने इस ग्रंथ में प्रस्तुत करते हैं ऐसा अन्यत्र कहीं ओर देखने को नहीं मिलता है।
भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक सम्मिलन से होती है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी व्यक्ति का जन्म अत्यधिक विषम परिस्थितियों में हो, किंतु वह अपने कर्तव्य का निर्वहन पूर्णत: समर्पण के साथ करे तो वह व्यक्ति अन्य लोगों के सहयोग से एक दिन उस श्रेष्ठता को प्राप्त कर ही लेता है, जिसको पाने की आशा सभी करते हैं।
यही बात हम किसी राष्ट्र के संदर्भ में समझ सकते हैं। भारत सदियों से श्रेष्ठता को धारण करते हुए सतत अपने कालक्रम में आगे की ओर बढ़ रहा है, अतीत में उसने वे दिन भी देखे हैं जब दुनियाभर से ज्ञान पिपासु अपनी ज्ञान की अभिप्सा की शांति एवं पूर्ति के लिए उसके पास भागे चले आते थे । व्यापार के लिए भी भारत दुनिया का केंद्र था, फिर वह समय भी भारत ने देखा कि कैसे देखते ही देखते उसे विखण्डित करने के प्रयास किए गए और एक राष्ट्र से कई राज्यों का उदय हो गया । वस्तुत: सभ्यता और संस्कृति एक होने के उपरान्त भी यदि विचारों में भिन्नता हो जाए और उपासना पद्धति का अंतर आ जाए तो कितना भी सघन और संगठित राष्ट्र हो उसे भी बिखरने में देर नहीं लगती। यह बात आज भारत के सामने प्रत्यक्ष है। इस चुनौती का सामना करने के लिए आगे अब भारत क्या करे ? यह एक यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ है। तब निष्कर्षत: इसका श्रेष्ठ समाधान यही है कि यहां ऐसा कुछ निरंतर होता रहे जिससे भारत अपने पूर्व वैभव को भी प्राप्त कर ले और उसे भविष्य में विखण्डन का दर्द कभी न सहना पड़े। इसके लिए भारत को अपनी ज्ञान, परम्परा, आचार-विचार, लोक-संवाद और शास्त्रार्थ जैसी अत्यन्त महत्वपूर्ण धरोहरों का विस्तार और इन पर केंद्रीत विमर्श के आयोजन करते रहना होंगे।
वस्तुत: मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 12 से 14 नवम्बर तक आयोजित हो रहा लोकमंथन उसी विमर्श के आयोजन का एक हिस्सा है, जो ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की सघन भावना से ओतप्रोत है। इसके माध्यम से देश के सभी कलाओं, विधाओं के बुद्धिजीवी, चिन्तक और शोधार्थी एक मंच पर अपने विचार साझा करने जा रहे हैं। इसका परिणाम यह होगा कि देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन के होने से भारत के उत्कर्ष के सभी आयाम विस्तार लेंगे। यह तीन दिवसीय विमर्श अपनी व्यापक वैचारिकता के कारण हमारे राष्ट्र भारत को पुन: अपने वैभव को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम ओर आगे बढ़ाने में कारगर सिद्ध होगा, आयोजन और उसकी सफलता से यही आशा की जा रही है।
लेखक डॉ. मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी के मध्यक्षेत्र प्रमुख एवं केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड एडवाइजरी सदस्य हैं।
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