बरुण कुमार सिंह
500 और 1000 रुपये के नोट को तत्काल बंद होने से लोगों में काले धन से निपट लेने का हौसला तो जगा है, लेकिन इससे पैदा हुई उनकी रोजमर्रा की दिक्कतें कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। जब तक बैंक एवं बैंक के एटीएम जहां से कैश मिल रहा है, कैश मिलना जब तक बंद नहीं हो रहा है, लोग कतार में लगे हैं, लोग तभी वापिस जा रहे हैं जब कैश खत्म हो जा रहा है। कितने लोग द्वारा पूरे दिन बर्बाद करने के बाद भी उनका नंबर नहीं आया और बैंक का रुपया एवं समय भी समाप्त हो गया। क्योंकि कुछ बैंक जब तक उनके पास कैश है बैंक का समय अवधि समाप्त होने पर भी रुपये दे रहे हैं लेकिन इससे भी समस्या का समाधान नहीं दिख पा रहा है। क्योंकि इसका लाभ सिर्फ बैंक के शाखा एवं बैंक एटीएम तक पहुंचने वाले लोग ही ले रहे हैं। इस मामले में सरकार के नीति-विश्लेषक जो बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं उनके बयान से नकारापन झलकता है और ऐसा लगता है वे अनुमान लगाने में पूर्णतः विफल रहे, उनका अनुमान तथ्यों पर आधारित नहीं है और धरातल के वस्तुस्थिति से बिल्कुल ही अनभिज्ञ हैं, वो सिर्फ मेट्रो सिटी के लोगों के रहन-सहन एवं उनके जीवनस्तर के अनुमान के आधार पर ही ये फैसला लेते हैं एवं नीति बनाते हैं कि लोग नेट बैंकिग, आॅनलाइन पेमेंट, वाॅलेट मनी या अन्य प्रचलित आॅनलाइन पेमेंट का सहारा लेंगे।
लेकिन जब हमारे प्रधानमंत्री हिन्दुस्तान के सवा सौ करोड़ के लोगों का जिक्र करते हैं तो इनमें से कितने लोग इन प्रचलित आॅनलाइन पेमेंट सिस्टम का इस्तेमाल कर सकते हैं। जबकि वित्त मंत्रालय के पास बैंकों का डाॅटा भी होगा कितने लोगों का बैंक खाता है जब हमारे सभी लोगों का बैंक खाता ही नहीं है और सभी लोगों तक बैंक की पहुंच भी नहीं है, बावजूद इसके सारा काम इन रुपयों से ही चलना है। एकाएक पूरे सिस्टम को ध्वस्त कर उसे तत्काल प्रभाव से लागू कर देना और इससे पूरे देश के लोगों पर थोप देना कोई समझदारी भरा फैसला नहीं लगता। इसमें कुछ और चीजों को जोड़ना चाहिए था, जिससे लोगों को कम-से-कम परेशानियों को सामना करना पड़ता उसके लिए नेकनीयत से कदम नहीं उठाया गया। आज परिस्थितियां ये हैं कि 500 व 1000 रुपये कोई ले नहीं रहा है और बिना 500 व 1000 के नोटों के काम भी नहीं चलने वाला है क्योंकि लोग इसके आदी हो चुके हैं। जिसकी पहुंच से बैंक भी दूर है तो उसका काम कैसे चलेगा इसकी कल्पना करने में हमारे प्रधानमंत्री के टीम के लोग कितने कुशल हैं एवं वित्त मंत्रालय एवं रिजर्व बैंक के अधिकारी कितने निपुण हैं उनके विशेषज्ञ आम लोग को कहां तक परेशानियों का समाधान कर पा रहे हैं, यही परीक्षा की समय है।
लाॅजिस्टिक का पूरा बिजनेस ठप सा पड़ा है। कल्पना कीजिए कि एक ट्रांसपोर्टर अपने ट्रक को एक स्थान से दूसरे स्थान सामान लेकर रवाना करता है और उसके आने-जाने का समय एक सप्ताह यानी 3-4 दिन आवाजाही में लगने वाला है। ट्रक शाम सात बजे रवाना होती है और आधी रात से नोटबंदी लागू हो जाती है सिर्फ पेट्रोल पंप पर ही वह 500 व 1000 नोट को स्वीकारने की स्थिति है क्योंकि ट्रक ड्राइवर कार्ड से पेमेंट नहीं करता है सारा काम कैश से ही होने वाला है। इसके अलावा और उसके खाने-पीने अन्य सामग्री के पास उसके पास 100 के नोट कम एवं 500 व 1000 के नोट ज्यादा एवं पर्याप्त मात्रा में है। क्योंकि हर कोई लंबी यात्रा पर सुविधाजनक होने के कारण बड़े नोट ही रखता है। ट्रकों का परिचालन ठप सा पड़ा है। इन कारणों से आने वाले समय में हो सकता है कि बाजार में सामानों के मूल्यवृद्धि हो और इसका मालढुलाई पर भी व्यापक असर पड़ेगा और आने-जाने के समय में उसे अब तो एक-दो दिन लेट होना ही है।
किसी को अस्पताल में जाना हो, हर छोटे जिलास्तर के शहरों में प्राईवेट नर्सिंग होम इलाज के लिए तो हैं लेकिन सभी के पास कार्ड से पेमेंट लेने की सुविधा नहीं है और सभी लोग कार्ड से पेमेंट देने में असमर्थ भी हंै। शादी विवाह, किसी की तत्काल मृत्यु होने पर आदि न जाने अन्य कितने कारण हैं जिसमें तत्काल समय एवं परस्थिति के अनुसार रुपये की आवश्यकता होती है। किसी भी आवश्यक कार्य के लिए तत्काल जिसको 50 हजार से एक लाख रुपये की आवश्यकता है इन परिस्थितियों में उसका कार्य कैसे होगा। क्योंकि कार्य का समय या अवधि निर्धारित है और उसे टाला भी नहीं जा सकता। इन सब स्थितियों का आकलन करने में सरकार से जुड़े नीति-निर्माता एवं उनकी टीम के सदस्य पूर्णतः विफल रहे हैं और आम लोगों को पूरे देश में कतार में लगने के लिए मजबूर कर दिया।
जिस तरह से प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर बोल रहे हैं, उसमें लोकतंत्र की भावना गायब है। किसी विचार-विमर्श के लिए कोई जगह नहीं है। लोगों को एक साथ लेकर चलने की बात नहीं दिखाई देती। चिंता इस बात की है कि प्रचंड बहुमत के साथ चुना हुआ देश का प्रधानमंत्री कहीं लोकतंत्र की विरोधी दिशा में तो नहीं जा रहे हैं।
अब तो आम लोग भी यह कह रहे हैं कि अगर इस देश में कालेधन की समस्या इतनी ही बड़ी है तो उसके लिए देश की संपूर्ण आबादी को क्यों पीसा जा रहा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर आदमी क्यों पिस रहा है। इनमें मजदूर हैं, किसान हैं, मध्य वर्ग के लोग हैं, छोटे कारोबारी हैं. ये क्यों पिस रहे हैं। लाखों लोगों के काम के घंटे क्यों बर्बाद किए जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरा भारत ठहर सा गया है। जिस तरह से इस योजना को लागू किया जा रहा है वह आम लोगों के लिए बेहद परेशानी भरा है। इस पर प्रधानमंत्री मोदी को विचार करना चाहिए। किसी भी देश में समस्याओं को हल करने में पूरे मंत्रिमंडल को विचार करना चाहिए न कि किसी व्यक्ति विशेष का। विपक्ष भी सरकार के कामकाज का एक पक्ष होता है। उसकी बात भी सुनी जानी चाहिए।
24 घंटे सेवा देने वाले एनीटाइममनी एटीएम घंटों भर में दम तोड़ दे रहा है। जिस तरह रोज सुबह बैंक खुलने से लेकर बंद होने तक लोगों में अफरा-तफरी देखी जा रही है, यहां तक कि मजबूरियों में फंसे कुछ लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि नोटबंदी के सभी पहलुओं पर ठीक से विचार नहीं किया गया था।
ऑल इंडिया बैंक एंप्लॉयीज असोसिएशन (एआईबीईए) ने कहा कि विमुद्रीकरण के लिए समुचित तैयारी न कर आरबीआई ने करोड़ों भारतीयों की जिंदगी दूभर कर दी है। हालात बताते हैं कि रिजर्व बैंक के पास भी इसके लिए कोई ठोस प्लान नहीं था। ऐसे में सरकार की तरफ से किसी को यह जरूर बताना चाहिए कि एटीएम से जरूरत भर के नोट न निकलने की समस्या कितने दिनों में खत्म हो जाएगी। उलटे कुछ ऐसी सूचनाएं आ रही हैं, जो लोगों का हौसला तोड़ने का काम कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में नोटबंदी की घोषणा होने के ठीक 8 दिन पहले बीजेपी की स्थानीय शाखा ने बैंक में 3 करोड़ रुपए जमा कराए।
वित्त मंत्री अरूण जेटली जी कह रहे हैं कि अपनी 3-4 सप्ताह एटीएम का खांचा बनाने में लगेगा तो क्या उन्हें एवं उनके वित्त मंत्रालय के अधिकारी को पता नहीं था कि ऐसी परेशानी आने वाली है, जब आपको इसकी जानकारी थी तो आप इसकी योजना पूर्व में ही बनाते तो इतनी बड़ी आफत नहीं आती। ऊपर से प्रधानमंत्री का बयान का एक लाख करोड़ रुपये का घोटाला करने वाला भी आज लाइन में लगे हैं, तो आखिर इतने बड़े घोटाले करने वाला लाइन में क्यों लगेगा। यह सिर्फ बयान है, घोटाला करने वाला लाइन में कहां खड़ा है, इसकी कोई तस्वीर नहीं है, जबकि हमारे सेल्फी प्रधानमंत्री जी को इसकी तस्वीर के साथ को टयूट कर देना चाहिए कि आखिर इतने बड़े घोटालेबाज कहां लाइन में लगे हैं। जब आप बोल रहे हैं तो वो तथ्य दिखना भी चाहिए अन्यथा वह संदेश तथ्यहीन एवं निरर्थक साबित होता है। अब प्रधानमंत्री जी का कहना है अभी 50 दिन और लगेंगे।
एक तरफ हमारी सरकार के प्रधानमंत्री के वक्तव्य का संदेश पूरे देश की जनता सम्मान के नजर से देखती है और आशा करती है कि वह देश के लिए अच्छा करें, उनकी आयु दीर्घायु हो और वे भारत को और अप्रतिम ऊंचाई पर ले जाएं वहीं उन्हीं के पार्टी अध्यक्ष द्वारा जनता में उनके ही दिये गये बयान को जुमला ठहरा देते हैं। तो इस प्रकार के काले संदेशों की भी सफाई करने की जरूरत है और आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के संदेश जनता के बीच न दें और कुछ दिनों के बाद उसे जुमला करार दें या अपने पार्टी के सदस्यों के द्वारा उससे जुमला स्पष्टीकरण घोषित कराया जाए। क्योंकि आपके संदेश एवं भाषण का पूरे देश के जनमानस पर प्रभाव पड़ता है और आमजन इन भाषणों एवं संदेशों से खंडित होती हैं। अतः क्षणिक लाभ लेने के लिए नकारात्मक संदेश आमजन के बीच नहीं देना चाहिए क्योंकि इसका क्षणिक लाभ तो होता और दूरगामी नुकसान होता है क्योंकि जिस संदेश से आप जनमानस में उबाल लाना चाहते हैं, वे आप भी जानते हैं कि इसे हमें भविष्य में पूरा नहीं करना है और इससे कोई लेना-देना नहीं है। अतः इन बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि इसकी पुनरावृत्ति भविष्य में न हो और इस प्रकार संदेश एवं भाषण देने से बचना चाहिए।
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एवं अर्थशास्त्री सी रंगराजन ने 500 और 1000 रपए के नोटों को बंद करने के सरकार के निर्णय को कालाधन खत्म करने का एक मानक नुस्खा बताया है। इस नुस्खे को पहले भी इस्तेमाल किया गया था पर इस सरकार ने इस बार तीन लक्ष्य रखें हैं। उन्होंने कहा कि इस बार निशाने पर एक तो वे हैं जिन्होंने ने बेहिसाब पैसा दबा रखा है, दूसरे जो जाली नोट चलाते हैं तीसरे आतंकवादियों के लिए धन पहुंचाने वाले है। दूसरे और तीसरे नंबर वाले अलग तरह के हैं। पर जहां तक काले धन पर निशाने का सवाल है तो यह एक अच्छा कदम है। पर उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा सरकार ने काले धन पर जो कदम उठाए हैं वे नोटों के रूप में दबाए गए काले धन से निपटने के लिए है। उन्होंने कहा कि कालेधन को रोकने के लिए भविष्य में और भी कदम उठाने होंगे।
पीएम के फैसले पर सबसे बड़ा सवाल किया है समाजसेवी, चिंतक एवं भाजपा के थिंक टैंक रहे के. एन. गोविंदाचार्य ने। ‘फेसबुक पर लिखे लेख में लिखा है कि प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा 500 और 1000 के नोट समाप्त करने के फैसले से पहले मैं भी अचंभित हुआ और आनंदित भी। पर कुछ समय तक गहराई से सोचने के बाद सारा उत्साह समाप्त हो गया। नोट समाप्त करने और फिर बाजार में नए बड़े नोट लाने से अधिकतम 3 प्रतिशत काला धन ही बाहर आ पाएगा और मोदी जी का दोनों कामों का निर्णय कोई दूरगामी परिणाम नहीं ला पाएगा। केवल एक और चुनावी जुमला बन कर रह जाएगा। नोटों को इस प्रकार समाप्त करना- ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ सिद्ध होगा। स्पष्टीकरण देने के लिए तर्क भी रखा है अर्थशास्त्रियों के अनुसार भारत में 2015 में सकल घरेलु उत्पाद के लगभग 20 प्रतिशत अर्थव्यवस्था काले बाजार के रूप में विद्यमान थी। वहीं 2000 के समय वह 40 प्रतिशत तक थी, अर्थात धीरे-धीरे घटते हुए 20 प्रतिशत तक पहुंची है। 2015 में भारत का सकल घरेलु उत्पाद लगभग 150 लाख करोड़ था, अर्थात उसी वर्ष देश में 30 लाख करोड़ रूपये काला धन बना। इस प्रकार अनुमान लगाएं तो 2000 से 2015 के बीच न्यूनतम 400 लाख करोड़ रुपये काला धन बना है।
रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2016 में 500 और 1000 रुपये के कुल नोटों का कुल मूल्य 12 लाख करोड़ था जो देश में उपलब्ध 1 रूपये से लेकर 1000 तक के नोटों का 86 प्रतिशत था। अर्थात अगर मान भी लें कि देश में उपलब्ध सारे 500 और 1000 रुपये के नोट काले धन के रूप में जमा हो चुके थे, जो कि असंभव है, तो भी केवल गत 15 वर्षों में जमा हुए 400 लाख करोड़ रुपये काले धन का वह मात्र 3 प्रतिशत होता है! प्रश्न उठता है कि फिर बाकी काला धन कहाँ है? अर्थशास्त्रियों के अनुसार अधिकांश काले धन से सोना-चांदी, हीरे-जेवरात, जमीन- जायदाद, बेशकीमती पुरानी वस्तु पेंटिंग्स आदि खरीद कर रखा जाता है, जो नोटों से अधिक सुरक्षित हैं। इसके आलावा काले धन से विदेशों में जमीन-जायदाद खरीदी जाती है और उसे विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। जो काला धन उपरोक्त बातों में बदला जा चुका है, उन पर 500 और 1000 के नोटों को समाप्त करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
अधिकांश काला धन घूस लेने वाले राजनेताओं-नौकरशाहों, टैक्स चोरी करने बड़े व्यापारियों और अवैध धंधा करने माफियाओं के पास जमा होता है। इनमें से कोई भी वर्षों की काली कमाई को नोटों के रूप में नहीं रखता है, इन्हें काला धन को उपरोक्त वस्तुओं में सुरक्षित रखना आता है या उन्हें सीखाने वाले मिल जाते हैं। इसी प्रकार जो कुछ नोटों के रूप में उन बड़े लोगों के पास होगा भी, उसमें से अधिकांश को ये रसूखदार लोग इधर-उधर करने में सफल हो जाएंगे। 2000 से 2015 में उपजे कुल काले धन 400 लाख करोड़ का केवल 3 प्रतिशत है सरकार द्वारा जारी सभी 500 और 1000 के नोटों का मूल्य। अतः मेरा मानना है कि देश में जमा कुल काले धन का अधिकतम 3 प्रतिशत ही बाहर आ पायेगा और 1 प्रतिशत से भी कम काला धन सरकार के खजाने में आ पायेगा वह भी तब जब मान लें कि देश में जारी सभी 500 और 1000 के नोट काले धन के रूप में बदल चुके हैं। केवल 500 और 1000 के नोटों को समाप्त करने से देश में जमा सारा धन बाहर आ जाएगा ऐसा कहना या दावा करना, लोगों की आँख में धूल झोंकना है। उलटे सरकार के इस निर्णय से सामान्य लोगों को बहुत असुविधा होगी और देश को 500 और 1000 के नोटों को छापने में लगे धन का भी भारी नुकसान होगा वह अलग।
अंततः कहा जा सकता है सरकार द्वारा यह नेक कदम उठाया गया है लेकिन इसके साथ ही सिर्फ 500 व 1000 के नोट को बदल देने से ही काले धन की बीमारी दूर हो जाएगी तो ऐसा संभव नहीं लगता। क्योंकि सरकार का तर्क है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में नकली करंसी की व्यवस्था समानांतर स्तर पर हो गयी थी, उसे खत्म करने के लिए लिए यह कदम उठाया गया है।
आम जनता व देश के हित में जो भी कदम उठाया जाता है उसे कोई भी अस्वीकार नहीं करती लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि सरकार से जुड़ी पार्टी एवं उससे जुड़े बड़े बिजनेसमैन का काला धन सफेद हो जाए और उसके विरोधी का नुकसान हो तो अगर ऐसा सरकार का सोचना है तो न तो इससे देश का भला होना है और न इससे आम जनता को भी कोई फायदा होने वाला है। अब तो 5000 रुपये के नये नोट छापने की बात कही जा रही है। क्योंकि एक निश्चित समय अंतराल के बाद फिर इन बड़े नोटों 500, 1000, 2000 व 5000 के नये नोटों से फिर वे अपने धंधों को अंजाम देंगे। इसलिए इसका तात्कालिक प्रभाव तो पड़ेगा लेकिन दूरगामी प्रभाव कहां तक पड़ेगा, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। यही सरकार की अग्नि परीक्षा भी है कि उसका यह उठाया गया कदम कितना सार्थक एवं सफल होता है।
प्रेषकः
(बरुण कुमार सिंह)
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