स्वामी अग्निवेश
महानिर्वाण दिवस 30 अक्टूबर पर विशेष
महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं कृतित्व से उन्नीसवीं सदी के पराधीन और जर्जरित भारत को गहराई तक झकझोरा था। उसका प्रभाव हम इक्कसवीं सदी में भी महसूस कर रहे हैं और उनसे प्रेरणा पाकर उन सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक, अंधविश्वासों से लोहा ले रहे हैं जो दीमक बनकर समाज व धर्म को भीतर ही भीतर खोखला कर रहे हैं। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक जगत की व्याधियों, दुर्बलताओं तथा त्रुटियों का तलस्पर्श अध्ययन ऋषिवर ने किया था, अत: रोग के अनुसार ही उन्होंने उपचार किया। तब तक ऐसा सर्वांगीण प्रयास किसी भी समकालीन सुधारक से न हो सका था, यद्यपि सुधार के नाम पर विविध क्षेत्रों में बहुत कुछ हो भी रहा था। समग्र क्रांति के पुरोधा के रूप में ऋषिवर ने मुनष्य व समाज के सर्वांगीण विकास तथा कायाकल्प के लिए जो आदर्श जीवन मार्ग दिखाया वह वस्तुत: विश्व इतिहास की अनमोल निधि के रूप में शताब्दियों तक देखा जाएगा। यही कारण है कि दयानंद बिंदु से विराट और बूंद से सागर बनते जा रहे हैं।
निश्चिय ही महर्षि दयानंद अपने युग के दैदीव्यमान शिखर पुरुष थे, जिनके आलोक एवं प्रभाव में हम आज भी अपने मंतव्यों का औचित्य तथा गंतव्य की तलाश जारी रखे हुए हैं। उनका चिंतन मूलत: वेद पर आधारित था जो अपने उदभव काल से ही स्वप्रमाणित, चिरंतन और शाश्वत समझे जाते रहे हैं। अत: दयानंद जितने प्रासंगिक उन्नसवीं शताब्दी में थे उतने ही प्रासंगिक हर युग-खंड में रहेंगे। कारण, विज्ञान और तकनीक चाहे जितनी उन्नति कर ले मनुष्य की धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की भाव-भूमि वही रेगी जो अनादि काल स चली आ रही है और अनंत काल तक चलती रहेगी। जीवन के इस क्रम, सत्य, तथ्य व लक्ष्य को न विज्ञान बदल सकता है और न ही तकनीक। महर्षि-दर्शन हर युग के मानव को दिशा-बोध प्रदान करता रहेगा और हर युग के लिए वह प्रासंगिक बने रहेंगे।
महर्षि दयानंद के व्यक्तित्व और कृतित्व का जो मूलांकन समकालीन एवं परवर्ती समालोचकों ने किया वह अधूरा तो ही है, यथार्थ से भी कोसों दूर है। उन्हें मात्र हिन्दू समाज सुधारक, कट्टर राष्ट्रवादी, पंथों का कटु आलोचक अथवा आर्य समाज जैसी जुझारू व लड़ाकू संस्था का संस्थापक मान लेना उनके प्रति अन्याय है। इन चौखटों में ऋषिवर को कैद करके हमने उनके द्वितीय एवं भव्य जीवन दर्शन का अवमूल्यन करने का अपराध किया है। यह ठीक है कि समकालीन समस्याओं से भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा था लेकिन यह उनके संघर्ष की इति नहीं आरंभ था। दयानंद का मूल्यांकन पूर्वाग्रहों से नहीं बल्कि उस दृष्टिकोण से होगा जो आगे चल कर रोम्यांरोला, योगी अरविंद घोष, साधु टी.एल. वास्वानी आदि ने अपनाया। वस्तुत: महर्षि दयानंद मानवतावादी, वैश्य-संस्कृति के उद्गाता, विश्व शांति के महानायक, साम्प्रदायिक, सद्भावना के उन्नायक, समाजवादी मूल्यों के प्रवक्ता तथा अन्याय, अज्ञान, अभाव और शोषण के विरुद्ध संघर्षरत रहने वाले कालजयी योद्धा थे।
महर्षि के इस विराट रूप से आज की पीढ़ी अनभिज्ञ हैक्योंकि किसी भी युग पुरुष के मूल्यांकन करने के लिए सौ सवा वर्षों की अवधि बहुत ही कम होती है और इस काल खंड के समलोचक प्राय: किसी वाद अथवा पूर्वाग्रह का शिकार होकर अपने निष्कर्ष निकालते हैं। राम और कृष्ण, बुद्ध और क्राइस्ट न तो अपने समय में अवतार घोषित हुए थे और न ही दो सौ तीन सौ साल बाद तक। जब उनके नाम पर सम्प्रदाय स्थापित हुए, उन्हें राज्याश्रय प्राप्त हुआ, उनमें अवतारी अंशों की कल्पना की गई तब जाकर उन्हें लोक प्रसिद्धि मिली। लेकिन दयानंद का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना बेमिसाल था कि इसके अपवाद बनकर वह अपने जीवनकाल में ही इस बुलंदी का स्पर्श करने लगे थे।
स्थूल रूप में हमें ऐसा आभास होता है कि महर्षि दयानंद का संघर्ष मूलत: पौरणिक हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों व सिखों से था क्योंकि उनके धर्मग्रंथों को लेकर उन्होंने कठोर टिप्पणियां अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थप्रकाशÓ में की हैं लकिन ऐसा निष्कर्ष निकालने से पूर्व हम उनके ऋषित्व को भूल जाते हैं और प्राय: यह भी भूल जाते हैं कि खंडन में यदि उन्होंने दस पृष्ठ लिखे है तो मो मंडन में सौ पृष्ट भी चके हैं। ऋषिवर का खंडन तर्कयुक्त, धर्मयुक्त, विज्ञानयुक्त और वैदिक गरिमा से ओत-प्रोत है। इन खंडनात्मक टिप्पणियों के आलोक में परभावित सम्प्रदायों से अपने पूज्य ग्रंथों में संशोधन भी किये हैं तथा व्याख्या एवं भाष्य को बदला भी है फिर भी समकालीन परस्थितियों को देखते हुए आर्य समाज का सर्वाधिक बल शास्तार्थ परम्परा को पुनजीर्वित करने, शुद्धि आंदोलन को सफल बनाने तथा अपने मुखर विरोधियों का सामना करने पर अधिक रहा, जिससे न चाहने पर भी साम्प्रदायिक कटुकता फैली। इससे एक तो दयानंद का समग्र ङ्क्षचतन पूर्णतया अभिव्यक्त न हो सका तथा दूसरे दयानंद दर्शन को समझने का धैर्य लोगों में पैदा न हो सका। इस तथ्य को अनदेखा कर दिया जाता है कि 'सत्यार्थप्रकाशÓ के अतिरिक्त भी दयानंद ने छोटे-बड़े लगभग साठ ग्रंथों की रचना और की थी। उनके इन ग्रंथों के प्रचार एवं विशद व्याख्या पर इतना ध्यान यद्यपि नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था तथापि प्रभाव की दृष्टि से इन ग्रंथों को कम आंकना दुष्कर है। यही कराण था कि दनयानंद का आलोचक स्वरूप अधिक प्रखर एवं मुखर होकर सामने आया। इन उपेक्षित ग्रंथों में से कुछ की चर्चा यहां करना अप्रासंगिक न होगा।
'सत्यार्थप्रकाश' से तो सभी चिरचित हैं। इस ग्रंथ ने अंधविश्वास, कुरीतियों, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, बहुदेववाद, श्रद्धा, तीर्थाटन पर जो जमकर प्रहार किया ही पर इसके साथ-साथ स्वाधीनता की रणभेरी भी बजाई, अपने इतिहास पर गर्व के भाव उत्पन्न किये, अपनी परम्परा के प्रति आस्था और संस्कृति के प्रति विश्वास जगाया, स्वदेशी का मंत्र जनमानस में फूंका, सेमेटिक सम्प्रदायों द्वारा चलाए जा रहे धर्मांतरण के अभियान पर रोक लगाई। नर-नारी की समानता की अलख जगाई और अस्पृश्यता के विरुद्ध शंखनाद किया।
'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' लिखकर उन्होंने वेदभाष्य की कुंजी विद्धत समाज को दी, पाश्चात्य वेदज्ञों द्वारा वेदों पर हो रहे अनर्गल प्रहारों को रोका, वेदों के उदात, विशाल एवं गंभीर स्वरूप को प्रकट किया। 'गोकरूणानिधिÓ लिखकर उन्होंने जीव हत्या के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया। शाकाहार का पक्ष मजबूत किया और गोरक्षा आंदोलन का आह्वान गोरक्षिणी सभाएं गठित करके किया। अंग्रेेज शासकों को उनके आंदोलन में 1857 के विप्लव की गंध आई और इसे खतरनाक आंदोलन मानते हुए अपने खुफिया तंत्र को सक्रिय कर दिया लेकिन ऋषिवर एक बागी फकीर बनकर अपने ढंग से स्वराज का मंत्र जन-जन तक पहुंचाते रहे। नीचे ही नीचे उन्होंने क्रांतिक की प्रचंड प्रष्ठभूमि तैयार कर डाली। बहुत कम लोगों को पता है कि अपने इस अभियान के कारण ही ऋषि दयानंद को अपना बलिदान देना पड़ा। राजनीतिक हत्याओं के रहस्य शताब्दियों बाद जाकर खुलते हैं। यही त्रासदी ऋषि हत्याकांड के साथ हुई।
यह वह समय था जब पाश्चात्य जीवन मल्यों के प्रति भारतीय जनमानस में आस्था का भाव जगा रहे थे और अनेक सुशिक्षित भारतीय ईसायत की दीक्षा ले चुके थे। राजा राममोहन राय के ब्रह्मसमाज का केशवचंद सेन के नेतृत्व में ईसाइकरण हो रहा था। समय की इस मुखर चनौती का सामना करते हुए ऋषि दयनांद ने 'संस्कारविधिÓ लिखी और भारतीयों को इस देश की मिट्टी की परंपरा व संस्कृति से जाड़ना का सशक्त अभियान चलाया। यह अभियान उन मूर्तिपूजक पुजारियों के लिए एक सुविधाजनक आर्थिक विकल्प था जो सोचते थे कि मूर्तिपूजा छोड़ने से उनकी रोजी-रोटी छिन जाएगी 'संस्कारविधिÓ ने यज्ञ यज्ञोपवीत, संध्या आदि की प्राचीन विलुप्त परम्पराओं को पुनर्जीवित किया, जिन पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार हो गया था। नारी-शिक्षा व नर-नारी समानता की अलख भी 'संस्कारविधिÓ ने जगाई। अत: इससे एक बहुआयामी मानसिक क्रांति का सूत्रपात हुआ।
आज सर्वत्र भ्रष्टाचार, व्याभिचार, नशाखोरी, आतंकवाद, प्रदूषण, हिंसा, अपराधवृत्ति, विकसित राष्ट्रों की दादागिरी शोषण, अन्याय, अज्ञान और अभाव का बोलबाला है। हर समाज व राष्ट्र इन सभी दोषों से आहत एवं व्याकुल हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने इन समस्त रोगों का उपचार 'पंचमहायज्ञÓ का विधान प्रस्तुत करके किया। ये पांच यज्ञ वैदिक संस्कृति के आधार स्तंभ हैं, जिनमें ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, अतिथियज्ञ और पितृयज्ञ अंतर्निहित हैं। सामाजिक, राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर यदि इन पांचों यज्ञों को अपना लिया जाए तो तीसरे विश्व युद्ध का जो खतरा आज मंडरा रहा है वह दूर हो सकता है और समाज जिन आपदाओं से संत्रस्त है उनसे मुक्त हो सकता है। विज्ञान और तकनीक अपने साथ उपभोक्तावादी संस्कृति के अभिशप्त परिणाम भी लाती है जिनका प्रतिकार आध्यात्मिक ङ्क्षचतन द्वारा ही संभव है। पंचमहायज्ञ इस आध्त्यात्मिक ङ्क्षचतन के मूल स्रोत हैं।
महर्षि दयानंद द्वारा पुनर्स्थापित जीवन दर्शन का मूल्यांकन भारतीय संदर्भ में करने के हम अभ्यस्त हो चुके हैं, जिससे उसका स्वरूप संकुचित और प्रभाव क्षीण होता है। महर्षि दयनादं ने वेद, योग, पंचमहायज्ञ, यज्ञोपवीत, आयुर्वेद, इतिहास, संस्कृति, संस्कार आदि के प्रति आस्था-भाव जगाकर उन ऋषिकृत परम्पराओं को पुनजीर्वित करने का प्रयास किया था। जिन परम्पराओं ने अतीत में भारत को विश्वगुरु के पद पर स्थापित एवं प्रतिष्ठित कराया था। उनका आंदोलन भारतीय पुनर्जागरण का आंदोलन न होकर वस्तुत: वैश्य-ङ्क्षचतन को संस्कारित एवं प्रेरित करने का आंदोलन था। निश्चय ही समकालीन परिस्थितियों में यह आंदोलन देश की सीमाओं में ही सिमट कर रह गया है लेकिन आज परिस्थितियां पूर्णतया बदल चुकी हैं।
यह युग तुलनात्मक अध्ययन का युग है। तर्क और विज्ञान की कसौटियों में लोगों का विश्वास पहले से ही अधिक बढ़ा है, अत: दयानंद के जीवन-दर्शन के फलते-फूलने की व्यापक संभावनाएं आज भी मौजूद हैं। इन अवसरों व संभावनाओं का समुचित लाभ उठाकर महर्षि दयानंद की प्रासंगिकता विश्व स्तर पर भी सिद्ध एवं मुखर की जा सकती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि ऋषि दयानंद ने दिल्ली दरबार के अवसर पर सभी सम्प्रदायों के आचार्यांे को आमंत्रित करके एक ऐसी मानव आचार संहिता तैयार करने का आह्वान किया था जो सर्वानुमोदित हो। आधुनिक विश्व आज इसी ओर बढ़ रहा है। महर्षि दयानंद ने जो प्रयोग डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व किये थे। शनै-शनै वे प्रयोग समय की कसौटी पर आज खरे उतर रहे हैं और विश्व स्तर पर मान्यता प्रप्त कर रहे हैं। उनका नरमेधयज्ञ, विश्व नागरिकता आरै अश्वधेयज्ञ वैश्य सरकार के अभिसूचक हैं। आधुनिक ङ्क्षचतन भी इसी ओर अग्रसर है। आज की महती आवश्यकता यह है कि महर्षि दयानंद के जीवन दर्शन को विश्व पटल पर प्रस्तुत करने का अभियान शुरू हो। टेम्स, वोल्गा और गंगा की धाराएं मिलकर जब त्रिवेणी बनाएंगी तभी ऋषि दयानंद का कीर्तिध्वज विश्व भर में लहरा सकेगा।
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