होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह,
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह।
नह्नो-अकरब की बंसी बजायी, मन अरफ़ा नफ्सहू की कूक सुनायी,
फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूल-अल्लाह।
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
18वी शताब्दी के मशहूर सूफी संत शाह क़ादरी @ बुल्लेशाह शाह अगर बिस्मिल्लाह कहकर होली खेलने की बात करते है तो वही नवाबी दौर में अवध में होली को "गुलाबी ईद" के नाम से जाना जाता था।
मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर होली पर लिखते है
क्यू मो पे मारी रंग की पिचकारी,
देखो कुँवर जी दूंगी गारी।
और इसके अलावा जितने भी सूफी संत हुए है जितना इन्होंने होली पर लिखा उतना शायद ही किसी हिन्दू कवि या लेखक ने लिखा है, सूफ़ी शायर शाह नियाज़ कहते हैं कि,
होली होए रही है अहमद जिया के द्वार,
हज़रत अली का रंग बनो है हसन-हुसैन खिलार।
ऐसो होली की धूम मची है…
जो लोग होली को सिर्फ एक हिन्दू त्योहार की नज़र से देखते उनसे बड़ा नादान कोई हो नही सकता, दर हक़ीक़त होली सिर्फ त्योहार नही बल्कि हिंदुस्तान की क़ौमी यकजहती की आबरू है।
तभी तो उर्दू अदब के उस्ताद शायर ख्वाजा हैदर अली आतिश कहते है....
होली शहीद-ए-नाज़ के खूं से भी खेलिए,
रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की।
तो अज़ीम शायर हसरत मोहानी लिखते है कि
मोसे छेड़ करत नंदलाल,
लिए ठाड़े अबीर गुलाल।
ढीठ भई जिनकी बरजोरी,
औरन पर रंग डाल डाल।
शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी की शायरी भी होली के रंगों से शराबोर है...
गोकुल बन में बरसा रंग
बाजा हर घर में मिरदंग
खुद से खुला हर इक जूड़ा
हर इक गोपी मुस्काई
हिरदै में बदरी छाई
कृष्ण के वियोग में तड़पती राधा की होली का जो बयान बासित बिसवानी ने किया है वो ग़ौर करने लायक है…
होली तन मन फूंक रही है दूर सखी गिरधारी है
दिल भी टुकड़े-टुकड़े है और ज़ख़्म-ए-जिगर भी कारी है
हाय अकेली खेल रही हूं सारी डूबी सारी है
खून-ए-तमन्ना रंग बना है आंखों की पिचकारी है
दर हक़ीक़त हमारे इन बुज़ुर्गों ने ना सिर्फ होली की अज़मत को बयांन किया है बल्कि पूरी दुनिया को धार्मिक सद्भाव का भी संदेश दिया है।
आखिर में, नाज़िर खय्यामी के इस पैग़ाम के साथ आप सभी को होली मुबारक!
ईमां को ईमां से मिलाओ
इरफां को इरफां से मिलाओ
इंसां को इंसां से मिलाओ
दैर-ओ-हरम में हो न जंग
होली खेलो हमरे संग!
तमाम अहल-ए-वतन को होली की मुबारकबाद...
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