30.4.19

लोकतंत्र में चुनाव उत्सव है जंग नहीं

यूं तो चुनाव मूलतौर से मानसिक स्तर पर एक द्वंद है। द्वंद इसलिए कि जब हम चुनाव करते हैं किन्हीं दो या दो से अधिक के बीच में यह समय निःसंदेह बड़ा ही कष्टकर होता है, पहले तो हम स्वयं से ही लड़ते हैं, अपने से अपनी प्रकृति के अनुसार। दूसरा अब लोकतंत्र में जनसेवा की भावना दफन हो चुकी है। हकीकत में हम केवल सेवा भाव का वचन, स्वप्न ही दिखाते हैं लेकिन, वस्तुतः होते नहीं है। वास्तव में सेवा की आड़ में अपना धंधा और मोटा पैसा बनाने के लिए ही राजनीति में आते हैं, तभी तो करोड़पति जन प्रतिनिधियों की संख्या में बेहताशा वृद्धि हुई है, फिर मुफ्त के पैसे का आनंद ही अलग है, अनूठा है, निराला है, आकर्षण है।

तीसरा नेताओं ने समाज को वोट के नफा-नुकसान के आधार पर बांट खाई ही पैदा की है। चैथा अपना उल्लू साधने के पश्चात् फिर वह नेता/प्रतिनिधि जनता के बीच से फुर्र हो जाता है, जब तक जनता अपने साथ हुए धोखे को समझ पाती है, तब तक वह या तो पार्टी बदल लेता है या क्षेत्र, कभी-कभी तो राजनीतिक पार्टियां किसी दूसरे शहर का आदमी ही पकड़ ला जनता पर थोप देती है। निःसंदेह यह उस स्थानीय जनता के साथ अन्याय है। पांचवा एक ओर तो चुनाव में नोटा को भी एक प्रत्याशी मानते हैं तभी तो उसे भी वोट देते हैं लेकिन, यह भी एक विडंबना ही है कि उसे जीता हुआ मानने से इंकार करते हैं, यहां चुनाव में सुधार की आवश्यकता है।

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में चुनाव को ले कुछ अच्छी बात कही, जैसे चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशी लोकतंत्र की मजबूती के लिए खड़े होते है, वह कोई दुश्मन नहीं होता। आज हर एक नेता दूसरे को दुष्ट, चरित्रहीन और आतंकी तक बताने को तुला हुआ है और अपनी कही गई बातों को कई तरह से सही सिद्व करने में भी जुटा हुआ है। ये कैसे हो सकता है? यह देश संविधान एवं नियमों से चलता है। छठवां जबसे नेताओं ने धर्म और राजनीति को एक साथ तोलने का प्रयास किया है तबसे एक वर्ग संघर्ष ही बढ़ा है।

राजनीति में धर्म के बढ़ते उपयोग के अपने ही खतरे, अपनों से ही है। जब लड़ाई में धर्म की आड़ मिल जाए तो लड़ाई और मनमानी और भी आसान हो जाती है, और धर्म विहिन राजनीति चल पड़ती है। यदि धर्म के पथ पर चले तो भ्रष्ट होने में बड़ी कठिनाई होगी। लेकिन हम राजनीति में धर्म का तड़का लगाते है, इससे लोगों को ठगना और भी आसान हो जाता है। चूंकि व्यक्ति के संस्कार धर्म के नजदीक होते हैं इसलिए राजनीति में धर्म के घाल-मेल से यदि किसी को नुकसान हुआ है तो, वह धर्म है। इसी के परिणाम स्वरूप आदमी में भटकाव एवं विक्षिप्तता भी पैदा हुई है। जो व्यक्ति अपना ही स्वधर्म नहीं पहचानता वह धर्म क्या समझेगा?

पहले तो एक बात स्पष्टतौर से समझ ले कि धर्म का कोई भी रंग नहीं होता, व्यक्ति का हो सकता है। वास्तव में धर्म एक गहरा विज्ञान है बल्कि यूं कहे जहां, विज्ञान खत्म होता है वहीं से धर्म शुरू होता है। पहले धर्म को समझने का प्रयास करें, व्यक्ति की चेतना की ही पहचान धर्म है, प्रज्ञा जब जागृत हो जाती है तब, उसकी सभी इन्द्रियां उसके वश में स्वतः ही हो जाती है, अब बुद्वि भी प्रभु की ही ओर ले जायेगी। निःसंदेह बुद्धि का उपयोग हम कर्तव्य अकर्तव्य, ग्राह-अग्राह में भेद करने के लिये किया जाता है, और ज्ञान का प्रकाश होते ही आभासी दुनिया तत्काल छूट जाती है। इस स्थिति में व्यक्ति मोह और कामनाओं के पार हो जाता है अब सोना, हीरा, जवाहरात और मिट्टी में कोई भी भेद नहीं रहता, बस यही से सच्ची सेवा शुरू होती है। चूंकि आज नेताओं की वासनाएं इतनी अधिक बढ़ गई है कि सही-गलत का भेद ही जाता रहा है, तभी तो हमारी निष्ठाएं भी बदलती रहती है।

लेखिका डा. शशि तिवारी सूचना मंत्र की संपादक हैं.

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