14.5.19

महल सी चमचमाती मस्जिदें और उजड़ी क़बरों से घरों में क़ैद करवटें बदलता मुस्लमान

बीते कुछ वर्षों से मैं यह देख रहा हूं कि मस्जिदों के निर्माण में काफ़ी परिवर्तन सा आता जा रहा है. यह बदलाव केवल मैंने अपने शहर में ही नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के जिस भी शहर के मुस्लिम क्षेत्रों में गया,वहां यह परिवर्तन देखने को मिला.पुरानी मस्जिदों को तोड़कर उनके आधारभूत ढ़ाचे को पूरी तरह किसी आलीशान इमारत जैसा बना देना.किसी नई मस्जिद का निर्माण करना, तो किसी आलीशान महल की तरह.
मस्जिदों को पूरी तरह से वातानुकूलित बनाना. महंगे से महंगा टाईल्स लगाकर मस्जिदों को एक भव्य और सुन्दर रूप देना.किसी ख़ूबसूरत महल की तरह मस्जिद के निर्माण का चलन मुस्लमानों की बस्तियों में बढ़ता ही जा रहा है. आपसी मतभेद के चलते मस्जिदों के निर्माण में भी प्रतिस्पर्धा होने लगी है। सुन्नी की मस्जिद ज़्यादा भव्य और सुंदर होना चाहिए. वहाबी की मस्जिद सुन्नियों से भव्य और सुंदर होनी चाहिए.

नमाज़ हर मुस्लमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ (अनिवार्य ) है. हालांकि, महिलाओं के मस्जिद में नमाज़ पढ़ने पर पाबंदी है, जो आज-कल एक मुद्दा भी बना हुआ है.नमाज़ को मस्जिद के अलावा अन्य स्थानों पर भी पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है.मस्जिद ख़ुदा का घर कहलाया जाता है.

मस्जिदों के आलीशान निर्माण करने के लिय कहां से आते हैं लाखों-करोड़ों रुपए?

मस्जिदों के आलीशान निर्माण के लिय लाखों-करोड़ों की मात्रा में चंदा (दान) मांगा जाता है. छोटे-छोटे लोगों का समुह एक संस्था का रूप लेकर चंदा इकठ्ठा करने के कार्य में सालों लगा रहता है. जहां भी देश के जिस शहर में मुस्लिम बस्तियों में आप जाएगें, वहां इस तरह के कुछ लोग मस्जिद के नाम पर चंदा मांगते हुए आपको मिल ही जाएगें. किसी-किसी शहर में तो कुछ संस्थाओं का रूप काफ़ी व्यापक होता है, जो आर्थिक रूप से काफ़ी मज़बूत होती हैं.

मैं मस्जिदों के आलीशान निर्माण से नहीं बल्कि मुस्लमानों की इस सच्चाई के परेशान हूं.

देश को आज़ाद हुए 70 बरस बीत चुके हैं. इन 70 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है.लेकिन, इन 70 वर्षों में देश में बसने वाले करोड़ो मुस्लमानों का क्या बदला? यह सवाल आज भी अपने आप अनसुल्झा सा है. यूपीए के समय मुस्लमानों को लेकर आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट हो या फिर रंगनाथ मिश्रा कमीशिन की रिपोर्ट.दोनों में बताया गया है कि देश में मुस्लमानों के आर्थिक औऱ सामाजिक हालात दलितों से भी बहुत बदत्तर हैं.

इन्हें आरक्षरण की अधिक आवश्यतकता है.सरकारी नौकरियों के हर शोबों में मुस्लमान की भागीदारी एक प्रतिशत भी नहीं है. 5 करोड़ मुस्लिम परिवार ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहा है. 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषित. शिक्षा के क्षेत्र में भी सबसे पीछे हैं .देश में सबसे ज्यादा भिखारियों का भी खिताब मुस्लमानों के पास ही. ऐसे में ज़रा सोचिये, जिस देश का पहला शिक्षा मंत्री एक मुस्लिम रहा हो.जिसने देश को यूजीसी जैसा संस्थान दिया (मौलाना अबुल कलाम आजाद) आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री. उस क़ौम की तालीम में हिस्सेदारी देख कर अफसोस होता है.

इतनी गंभीर समस्याओं से जूझ रही क़ौम कुछ हद तक ख़ुद भी अपनी इस हालात की ज़िम्मेदार है. धार्मिक जल्सों और दीनी शिक्षा की आड़ में पैसों की बर्बादी. मस्जिद और मदरसों के बनाने के नाम पर करोड़ों रूपय की बर्बादी.सवाल यह कि कौन इन चुभते सवालों का जवाब ढूढने निकलेगा. हर छोटी-बड़ी बात सामंप्रदायिकता का रूप ले लेती है.

बड़ा सवाल यह है कि जिस क़ौम के लाखों लोगों के पास रहने के लिय घर, पेट भरने के लिय दो वक़्त की रोटी न हो, औऱ उसी क़ौम के कुछ लोग लाखों, करोडों का चंदा महज़ इस लिय जमा करते हैं, ताकि एक आलीशान मस्जिद का निर्माण किया जा सके.मैंने तो कुछ मुस्लिम क्षेत्रों में देखा है कि कुछ ऐसे मुस्लिम परिवार हैं, जो भूखे ही घरों में सो जाते हैं और उनके घरों के सामने आलीशान मस्जिद बनकर तय्यार होती रहती है. बच्चों को मां-बाप बेहतर शिक्षा इस लिय नहीं दे पाते, क्योंकि आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होते. वहीं, मस्जिदों में ए.सी लोग खड़े-खड़े लगवाकर चले जाते..

मैं फ़िर कह रहा हूं कि मुझे मस्जिदों के आलीशान होने से किसी तरह की समस्या नहीं. अगर समस्या है, तो कौम के रहबरों से, जिन्होंने कौम को ग़र्त में ढ़केल दिया है. आप अपनी आने वाली पीढ़ी के लिय एक ऐसा अंधेरा क़ैद कर रहें हैं, जिसकी ज़द में आकर उनकी आंखें रौशनी के लिए दर-दर की ठोकरें खाती फिरेंगी

नेहाल रिज़वी
nehalrizvikanpur@gmail.com

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