14.8.19

जब यादगार बन जाए अनचाही यात्राएं ....!!

जब यादगार बन जाए अनचाही यात्राएं    ....!!
तारकेश कुमार ओझा
जीवन के खेल वाकई निराले होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि ना - ना करते आप वहां पहुंच जाते हैं जहां जाने को आपका जी नहीं चाहता जबकि अनायास की गई ऐसी यात्राएं न सिर्फ सार्थक सिद्ध होती हैं बल्कि यादगार भी। जीवन की अनगिनत घटनाओं में ऐसी दो यात्राएं अक्सर मेरे जेहन में उमड़ती - घुमड़ती रहती है। पहली घटना मेरे किशोरावस्था की है। पत्रकारिता का ककहरा सीखते हुए उस दौर में रविवार, धर्मयुग , दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी तमाम लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो चुकी थी। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के इस काल - खंड में साप्ताहिक समाचार पत्र के तौर पर कुछ नए अखबारों का प्रकाशन शुरू हुआ। कम कीमत वाले इन पत्रों के साथ चार रंगीन पृष्ठों का सप्लीमेंट और एक छोटी सी पत्रिका भी रहती थी। लिहाजा देखते ही देखते ऐसे साप्ताहिक पत्रों ने अच्छा - खासा पाठक वर्ग तैयार कर लिया। देश के चार महानगरों से हिंदी व अंग्रेजी में निकलने वाले एक साप्ताहिक पत्र का एक पन्ना आंचलिक खबरों के लिए था। शुरूआती दौर में मुझे ऐसे किसी मंच की बेताबी से जरूरत थी, लिहाजा बगैर किसी औपचारिक बातचीत के मैने उस समाचार पत्र के क्षेत्रीय कार्यालय को डाक से खबरें भेजना शुरू कर दिया।  अमूमन हर हफ्ते प्रकाशित होने वाली  बाइ लाइन खबरों  ने मुझे क्षेत्र का चर्चित पत्रकार बना दिया था। हालांकि मेरी प्राथमिकता पहचान के साथ पारिश्रमिक भी थी। क्योंकि यह मेरे करियर के शुरूआती दौर के लिए प्राण वायु साबित हो सकती थी। बेरोजगारी का कलंक मेरे सिर से मिट सकता था। लेकिन उस दौर के दो ऐसे समाचार पत्रों ने लिखित घोषणा के बावजूद एक चवन्नी भी कभी पारिश्रमिक के तौर पर नहीं दी तो मैं निराशा के गर्त में डूबने लगा।  क्योंकि अंतहीन प्रतीक्षा के बाद भी कभी कोई मनीआर्डर तो आया नहीं, उलटे ज्यादा तगादा करने पर खबरें छपना भी बंद हो जाती थी। इस बीच शहर में एक वित्तीय कंपनी का कार्यालय खुला। इसके कई कर्मचारी मेरे परिचित थे। तब फोन आदि नहीं बल्कि सीधे घर पहुंचने का जमाना था। लिहाजा इसके कुछ कर्मचारी कई बार मेरे घर यह कहते हुए आ पहुंचे कि आपको महाप्रबंधक बुला रहे हैं। मैं असहज हो गया। क्योंकि मैं जानता था कि अखबारों में समाचार छपवाने  के लिए मुझे बुलाया जा रहा है, जबकि तात्कालीन परिस्थितियों में यह मुश्किल था। लिहाजा मैने कन्नी काटने की भरसक कोशिश की। लेकिन काफी अनुनय - विनय के बाद मुझे उनके दफ्तर जाना ही पड़ा। महाप्रबंधक काफी भद्र आदमी था। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि उनकी कंपनी का विज्ञापन किसी समाचार पत्र में छपवा दूं। इसके लिए कोलकाता जाना पड़े तो चले जाएं, कंपनी के आदमी साथ होंगे। आपको केवल साथ जाना पड़ेगा। मन से राजी न होते हुए भी आखिरकार मुझे कोलकाता निकलना पड़ा। कंपनी के दो मुलाजिम मेरे साथ थे, जिनमें से एक मेरा सहपाठी रह चुका था। ट्रेन से कोलकाता का रुख करते हुए भी कई बार लगा कि ऐसा कुछ हो जाए, जिससे मैं इस अनचाही यात्रा से बच सकूं। रेल अवरोध या तकनीकी समस्या। लेकिन मेरी एक न चली। उधेड़बुन के बीच हम हावड़ा स्टेशन पर थे। पूछते - पाछते बस से उसी साप्ताहिक समाचार पत्र के दफ्तर जा पहुंचे। जहां भविष्य की तलाश में पहले भी दो - एक बार जाना हुआ था। मुझे याद है कोलकाता के एजेसी बोस रोड पर उस अखबार का दफ्तर था।  आफिस के कर्मचारी अचानक मुझे अपने बीच पाकर हैरान थे। मैने अनमने भाव से मकसद बताया। कुछ देर में ही 3450 रुपये का विज्ञापन फाइनल हो गया। रसीद बनाते समय कुछ कर्मचारियों ने जब मुझसे कमीशन लेने को कहा तो मैं पशोपोश में पड़ गया। क्योंकि साथ गए लोगों के सामने मेरी इमेज खराब हो सकती थी। दूसरी तरफ दफ्तर के लोगों का कहना था कि एजेंसियों को हम 15 फीसद देते हैं। आप हमारे सहयोगी हैं। इसलिए हम आपको केवल 10 फीसद कमीशन दे सकते हैं। इस लिहाज से यह 345 रुपये बन रहा था। लड़कपन के उस दौर में यह मेरे लिए 3 लाख  से कम न था। , या कहें इससे भी ज्यादा । ये रुपये मुझे बगैर मांगे या उम्मीद के मिल रहे थे। मैं जिस  क्षेत ्र में  हाथ पांव मार रहा था, उसमें कमाई भी हो सकती है यह तब कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।  उधेड़बुन के बीच साथ गए लोगों ने यह कहते हुए मुझे धर्मसंकट से उबारा कि अखबार से अगर आपको कुछ मिल रहा है तो इसमें भला हमें क्या ऐतराज हो सकता है। कमीशन के पैसे बैग में रख कर दफ्तर से बाहर निकला तो मैं जिंदगी की पहेली पर हैरान था। क्योंकि लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जहां से मुझे कभी अठन्नी भी नहीं मिली, वहीं से बगैर मांगे इतने पैसे मिल गए कि दशहरा - दिवाली मन जाए।
अनचाही और आकस्मिक यात्रा की एक और मजेदार घटना युवावस्था में हुई। जब मैं अप्रत्याशित रूप से पत्रकारिता से रोजी - रोटी कमाने में सक्षम हो चुका था। तब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बिल्कुल नई बनी थी। इसकी नेत्री ममता बनर्जी  राजनैतिक तनातनी के लिए तब खासे चर्चित चमकाईतला आने वाली थी। जो मेरे ही जिले की सीमा क्षेत्र में है। एक रोज सुबह अखबार का काम निपटाने के बाद स्टेशन से बाहर निकला तो चमचमाती टाटा सुमो खड़ी नजर आई। तब इस गाड़ी में चढ़ना बड़े फक्र की बात मानी जाती थी।  पता लगा  कुछ परिचित  नेता वहां जा रहे हैं। कुछ देर बाद सभी सुमो के नजदीक खड़े मिले । मुझे देखते ही बोल पड़े, आपको लिए बगैर नहीं जाएंगे। मेरे लिए यह काफी आकर्षक प्रस्ताव था, क्योंकि चमकाईतला जाने के लिए हमें केशपुर होकर जाना था, जो उन दिनों राजनैतिक हिंसा के लिए अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में था। लेकिन दुविधा यह कि मेरी प्राथमिकता शहर की खबरें होती थी। मुझे लगा कि मैं बाहर रहा और शहर में कोई बड़ी घटना हो गई तो... इसके साथ तब दोपहर के भोजन के बाद मुझे हल्की झपकी लेने की भी बुरी आदत थी। लिहाजा मैं वहां जाने से आना - कानी करने लगा। लेकिन नेताओं ने एक झटके से सुमो की अगली सीट का दरवाजा खोला और आग्रहपूर्वक मुझे ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठा दिया। इस तरह जीवन की एक और आकस्मिक यात्रा यादगार बन गई। हम हंस पड़े जब सुमो का चालक लगभग रूआंसा हो गया जब उसे पता चला कि गाड़ी केशपुर होकर गुजरेगी। लगभग रोते हुए ड्राइवर बोल पड़ा... बाल - बच्चेदार हूं सर... और वाहन में बैठे सब लोग हंसने लगे।

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*लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार
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