अजय कुमार, लखनऊ
कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा सियासत की पुरानी खिलाड़ी हैं। कभी वह अपनी माॅ सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली और भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी तक सिमटी थीं। आम चुनाव में पूर्वी उत्तर प्रदेश (जिसे मोदी-योगी का गढ़ माना जाता है) में कागे्रस को चुनाव जिताने की जिम्मेदारी प्रियंका पर डाली गई तो मानों कांगे्रसियों को हौसले की उड़ान मिल गई। होता भी क्यों नहीं, प्रियंका को वर्षाे से कांगे्रस का छिपा हुआ ट्रम्प कार्ड माना जा रहा था। पूर्वी यूपी की प्रभारी बनते ही प्रियंका ने पूर्वांचल से भाजपा और मोदी की जड़े खोदने के लिए खूब हाथ-पैर मारे। मोदी एंड टीम को लगातार कोसा। पूर्वी उत्तर प्रदेश की करीब 50 सीटों के प्रत्याशी उनके ही द्वारा तय किए गए,लेकिन नतीजा शून्य रहा। प्रियंका का न तो जादू चला, न कोई चमत्कार हुआ। कांगे्रस का वोट प्रतिशत और सीटें जीतने दोनों के मामले में पिछड़ गई। अर्थात कांगे्रस को सबसे बुरा वक्त प्रियंका ने दिखा दिया था।
खैर, प्रियंका तो प्रियंका ठहरी। गांधी परिवार में तो बच्चे ‘चांदी की चम्मच’ के साथ जन्म लेते हैं। इसीलिए प्रियंका से कोई सवाल नहीं पूछा गया। हार के कारणों को प्रियंका से दूर डाइवर्ट कर दिया गया। प्रियंका के दामन पर आंच नहीं आए इस लिए संगठन की कमजोरी, नेताओं की मनमानी और गुटबाजी पर सारा ठीकरा फोड़ दिया गया। जिस तरह से राहुल गांधी लगातार कई चुनावोें में फ्लाप होने के बाद भी कांगे्रस अध्यक्ष पद पर विराजमान थे,उसी प्रकार प्रियंका को भी आगे बढ़ाने के लिए ‘रेड कार्पेट’ बिछा दिया गया।
हद तो तब हो गई जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में पूरे प्रदेश सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी कांगे्रस को मिली करारी हार के बाद भी प्रियंका को पूरे यूपी की जिम्मेदारी सौंपने के लिए सोनिया गांधी ने कदम आगे बढ़ा दिए। राहुल गांधी ने नैतिकता के आधार पर कांगे्रस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, मगर प्रियंका गांधी वाड्रा ने ऐसा कुछ नहीं किया। बल्कि वह राहुल गांधी की जगह कांगे्रस अध्यक्ष बनने का सपना देखने लगीं। उन्होंने गोलमोल शब्दों में अपने मन की बात मीडिया के सामने रखी भी,परंतु शायद सोनिया और राहुल नहीं चाहते होंगे कि कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से निकल कर वाड्रा परिवार के हाथों में पहुंच जाएं। इसी लिए पूरी तरह से स्वस्थ्य नहीं होने के बाद भी सोनिया गांधी ने पार्टी की बागडोर स्वयं संभालना ज्यादा बेहतर समझा। प्रियंका इस निर्णय से अचंभित भले न हुईं हों,लेकिन उनके लिए यह फैसला किसी सदमें से कम नहीं था। सोनिया ने कमान संभाली तो प्रियंका ने अपने आप को फिर से उत्तर प्रदेश में स्थापित करने की मुहिम छेड़ दी। वह पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर योगी सरकार के खिलाफ हमलावर हो गईं, तो सोनिया गांधी ने भी प्रियंका को यूपी तक में सीमित करने की नियत से उन्हें(प्रियंका)पूरे उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी उनके कंधो पर डालने में देरी नहीं की।
वैसे भी लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद से यूपी में प्रियंका के रोल को लेकर कांग्रेस में लगातार मंथन चल रहा था। प्रियंका ऐसे समय में यूपी की जिम्मेदारी संभाल रही हैं जबकि राहुल गांधी यूपी से किनारा कर चुके हैं। राजनैतिक पंडितों को भले ही बदले सियासी माहौल में प्रियंका वाड्रा से कोई खास उम्मीद नहीं हो कि वह कांगे्रस के लिए कुछ कर पाएंगी,मगर कांगे्रस कार्यकर्ताओं और कांगे्रस का भला चाहने वालों को जरूर लगता है कि प्रियंका डूबती कांगे्रस के लिए तिनके का सहारा बन सकती हैं।
प्रियंका लगातार योगी सरकार पर हमलावर हैं। सोनभद्र में जब भूमि विवाद में हत्याएं हुईं तो प्रियंका ने वहां जाकर खूब सियासत की थी। प्रदेश की बदहाल कानून व्यवस्था से लेकर प्रियंका भाजपा नेताओं के अमर्यादित आचरण के खिलाफ अक्सर आग उगलती रहती हैं।
बहरहाल, कांग्रेस की जमीनी हकीकत को देखा जाए तो कांगे्रस करीब तीन दशकों से यूपी की सत्ता से बाहर है। अंतिम कांगे्रसी मुख्यमंत्री के रूप में आज भी नारायण दत्त तिवारी का नाम अंकित हैं। तिवारी 25 जून 1988 से 05 दिसंबर 1989 तक यूपी के सीएम रहे थे। मंडल-कमंडल की राजनीति के उभार ने कांगे्रस को कहीं का भी नहीं छोड़ा। आज स्थिति यह है कि कभी यूपी की सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस के वोट शेयर में क्षेत्रीय दल पूरी तरह से सेंध लगा चुके थे।
कांग्रेस का 1984 तक यूपी में सिक्का चलता रहा। कांगे्रस की छवि देश आजाद कराने वाली थी। तब तक कांग्रेस के मुकाबले किसी भी दल का कोई खास जनाधार नहीं था। इंदिरा गांधी जैसा शक्तिशाली चेहरा कांग्रेस की जीत की गारंटी माना जाता था। हालात यह थे कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में भी राजीव गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस ने यूपी की 85 सीटों में से अकेले 83 सीटों पर जीत हासिल कर ली थीं। इस दौरान उसका वोट प्रतिशत 51.03 था। मगर राजीव का करिश्मा लम्बे समय तक नहीं चला। यूपी में कांग्रेस का जनाधार लगातार गिरता गया। 2014 के चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 7 रह गया।
कांग्रेस के मजबूत किले की ढहने की शुरुआत और वजह बना नब्बे के दशक में शुरू हुए राम मनोहर लोहिया आंदोलन, मंडल कमीशन और बीजेपी द्वारा राम मंदिर को लेेकर चलाया गया अभियान। बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे सहित अन्य दोनों वजहों से राज्य में पार्टी का जनाधार लगातार खिसकता चला गया। इसी दौरान मुलायम और मायावती जेसे नेताओं की राजनीति भी खूब चमकी, जिन्होंने वोट बैंक की राजनीति को खूब हवा-पानी दी।
वोट प्रतिशत की बात की जाए तो 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 51.03 प्रतिशत वोट के साथ 83 सीटें हासिल हुईं थी। 1989 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरकर 31.77 रहा गया। उसे महज 15 सीटें हासिल हुई। 1991 में कांग्रेस को 18.02 प्रतिश वोट मिला और 5 सीटें हासिल हुई। 1996 में भी कांग्रेस ने 5 सीटें जीती मगर उसका वोट प्रतिशत 8.14 तक पहुंच गया। 1998 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत सबसे न्यूनतम स्तर 6.02 पर पहुंचा और उसका खाता भी नहीं खुल सका। 1999 के चुनावों में कांग्रेस ने वापसी की और 10 सीटों के साथ उसका वोट प्रतिशत 14.72 पहुंच गया। 2004 के लोकसभा चुनावों में कांगे्रस का वोट प्रतिशत फिर गिरा। वह 12.04 वोट प्रतिशत के साथ कांग्रेस महज 9 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2009 में कांग्रेस ने एक बार फिर वापसी करते हुए 21 सीटें हासिल की जबकि उसका वोट प्रतिशत 18.25 रहा।
चुनाव आयोग से मिले आंकड़ों के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 49.6 प्रतिशत वहीं कांग्रेस को 6.31 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि 2014 में कांग्रेस को 7.50 प्रतिशत वोट मिले थे। यानी कांग्रेस को 1 फीसदी से ज्यादा वोटों का नुकसान हुआ है। राहुल अमेठी से चुनाव हार गए तो सोनिया की जीत का अंतर कम हो गया।
उधर, नई जिम्मेदारी के बीच कांगे्रस को मजबूती देने के लिए प्रियंको ने अपनी टीम तैयार कर ली है,जिसकी जल्द घोषणा हो सकती है। टीम चयन के लिए प्रियंका ने यूपी के आठ हजार से ज्यादा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। ये टीम 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए काम करेगी।प्रियंका गांधी ने टीम चयन के लिए कांग्रेस के पूर्व और वर्तमान सांसदों-विधायकों से लेकर पंचायत और ब्लॉक लेवल पर चुने गए कार्यकर्ताओं से भी मुलाकात की। अपनी टीम में प्रियंका गांधी ने युवाओं और महिलाओं को खास तवज्जो दी है। इस टीम में 35 से 40 की उम्र के नेताओं को प्रमुख रोल दिया।
कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा सियासत की पुरानी खिलाड़ी हैं। कभी वह अपनी माॅ सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली और भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी तक सिमटी थीं। आम चुनाव में पूर्वी उत्तर प्रदेश (जिसे मोदी-योगी का गढ़ माना जाता है) में कागे्रस को चुनाव जिताने की जिम्मेदारी प्रियंका पर डाली गई तो मानों कांगे्रसियों को हौसले की उड़ान मिल गई। होता भी क्यों नहीं, प्रियंका को वर्षाे से कांगे्रस का छिपा हुआ ट्रम्प कार्ड माना जा रहा था। पूर्वी यूपी की प्रभारी बनते ही प्रियंका ने पूर्वांचल से भाजपा और मोदी की जड़े खोदने के लिए खूब हाथ-पैर मारे। मोदी एंड टीम को लगातार कोसा। पूर्वी उत्तर प्रदेश की करीब 50 सीटों के प्रत्याशी उनके ही द्वारा तय किए गए,लेकिन नतीजा शून्य रहा। प्रियंका का न तो जादू चला, न कोई चमत्कार हुआ। कांगे्रस का वोट प्रतिशत और सीटें जीतने दोनों के मामले में पिछड़ गई। अर्थात कांगे्रस को सबसे बुरा वक्त प्रियंका ने दिखा दिया था।
खैर, प्रियंका तो प्रियंका ठहरी। गांधी परिवार में तो बच्चे ‘चांदी की चम्मच’ के साथ जन्म लेते हैं। इसीलिए प्रियंका से कोई सवाल नहीं पूछा गया। हार के कारणों को प्रियंका से दूर डाइवर्ट कर दिया गया। प्रियंका के दामन पर आंच नहीं आए इस लिए संगठन की कमजोरी, नेताओं की मनमानी और गुटबाजी पर सारा ठीकरा फोड़ दिया गया। जिस तरह से राहुल गांधी लगातार कई चुनावोें में फ्लाप होने के बाद भी कांगे्रस अध्यक्ष पद पर विराजमान थे,उसी प्रकार प्रियंका को भी आगे बढ़ाने के लिए ‘रेड कार्पेट’ बिछा दिया गया।
हद तो तब हो गई जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में पूरे प्रदेश सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी कांगे्रस को मिली करारी हार के बाद भी प्रियंका को पूरे यूपी की जिम्मेदारी सौंपने के लिए सोनिया गांधी ने कदम आगे बढ़ा दिए। राहुल गांधी ने नैतिकता के आधार पर कांगे्रस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, मगर प्रियंका गांधी वाड्रा ने ऐसा कुछ नहीं किया। बल्कि वह राहुल गांधी की जगह कांगे्रस अध्यक्ष बनने का सपना देखने लगीं। उन्होंने गोलमोल शब्दों में अपने मन की बात मीडिया के सामने रखी भी,परंतु शायद सोनिया और राहुल नहीं चाहते होंगे कि कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से निकल कर वाड्रा परिवार के हाथों में पहुंच जाएं। इसी लिए पूरी तरह से स्वस्थ्य नहीं होने के बाद भी सोनिया गांधी ने पार्टी की बागडोर स्वयं संभालना ज्यादा बेहतर समझा। प्रियंका इस निर्णय से अचंभित भले न हुईं हों,लेकिन उनके लिए यह फैसला किसी सदमें से कम नहीं था। सोनिया ने कमान संभाली तो प्रियंका ने अपने आप को फिर से उत्तर प्रदेश में स्थापित करने की मुहिम छेड़ दी। वह पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर योगी सरकार के खिलाफ हमलावर हो गईं, तो सोनिया गांधी ने भी प्रियंका को यूपी तक में सीमित करने की नियत से उन्हें(प्रियंका)पूरे उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी उनके कंधो पर डालने में देरी नहीं की।
वैसे भी लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद से यूपी में प्रियंका के रोल को लेकर कांग्रेस में लगातार मंथन चल रहा था। प्रियंका ऐसे समय में यूपी की जिम्मेदारी संभाल रही हैं जबकि राहुल गांधी यूपी से किनारा कर चुके हैं। राजनैतिक पंडितों को भले ही बदले सियासी माहौल में प्रियंका वाड्रा से कोई खास उम्मीद नहीं हो कि वह कांगे्रस के लिए कुछ कर पाएंगी,मगर कांगे्रस कार्यकर्ताओं और कांगे्रस का भला चाहने वालों को जरूर लगता है कि प्रियंका डूबती कांगे्रस के लिए तिनके का सहारा बन सकती हैं।
प्रियंका लगातार योगी सरकार पर हमलावर हैं। सोनभद्र में जब भूमि विवाद में हत्याएं हुईं तो प्रियंका ने वहां जाकर खूब सियासत की थी। प्रदेश की बदहाल कानून व्यवस्था से लेकर प्रियंका भाजपा नेताओं के अमर्यादित आचरण के खिलाफ अक्सर आग उगलती रहती हैं।
बहरहाल, कांग्रेस की जमीनी हकीकत को देखा जाए तो कांगे्रस करीब तीन दशकों से यूपी की सत्ता से बाहर है। अंतिम कांगे्रसी मुख्यमंत्री के रूप में आज भी नारायण दत्त तिवारी का नाम अंकित हैं। तिवारी 25 जून 1988 से 05 दिसंबर 1989 तक यूपी के सीएम रहे थे। मंडल-कमंडल की राजनीति के उभार ने कांगे्रस को कहीं का भी नहीं छोड़ा। आज स्थिति यह है कि कभी यूपी की सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस के वोट शेयर में क्षेत्रीय दल पूरी तरह से सेंध लगा चुके थे।
कांग्रेस का 1984 तक यूपी में सिक्का चलता रहा। कांगे्रस की छवि देश आजाद कराने वाली थी। तब तक कांग्रेस के मुकाबले किसी भी दल का कोई खास जनाधार नहीं था। इंदिरा गांधी जैसा शक्तिशाली चेहरा कांग्रेस की जीत की गारंटी माना जाता था। हालात यह थे कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में भी राजीव गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस ने यूपी की 85 सीटों में से अकेले 83 सीटों पर जीत हासिल कर ली थीं। इस दौरान उसका वोट प्रतिशत 51.03 था। मगर राजीव का करिश्मा लम्बे समय तक नहीं चला। यूपी में कांग्रेस का जनाधार लगातार गिरता गया। 2014 के चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 7 रह गया।
कांग्रेस के मजबूत किले की ढहने की शुरुआत और वजह बना नब्बे के दशक में शुरू हुए राम मनोहर लोहिया आंदोलन, मंडल कमीशन और बीजेपी द्वारा राम मंदिर को लेेकर चलाया गया अभियान। बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे सहित अन्य दोनों वजहों से राज्य में पार्टी का जनाधार लगातार खिसकता चला गया। इसी दौरान मुलायम और मायावती जेसे नेताओं की राजनीति भी खूब चमकी, जिन्होंने वोट बैंक की राजनीति को खूब हवा-पानी दी।
वोट प्रतिशत की बात की जाए तो 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 51.03 प्रतिशत वोट के साथ 83 सीटें हासिल हुईं थी। 1989 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरकर 31.77 रहा गया। उसे महज 15 सीटें हासिल हुई। 1991 में कांग्रेस को 18.02 प्रतिश वोट मिला और 5 सीटें हासिल हुई। 1996 में भी कांग्रेस ने 5 सीटें जीती मगर उसका वोट प्रतिशत 8.14 तक पहुंच गया। 1998 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत सबसे न्यूनतम स्तर 6.02 पर पहुंचा और उसका खाता भी नहीं खुल सका। 1999 के चुनावों में कांग्रेस ने वापसी की और 10 सीटों के साथ उसका वोट प्रतिशत 14.72 पहुंच गया। 2004 के लोकसभा चुनावों में कांगे्रस का वोट प्रतिशत फिर गिरा। वह 12.04 वोट प्रतिशत के साथ कांग्रेस महज 9 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2009 में कांग्रेस ने एक बार फिर वापसी करते हुए 21 सीटें हासिल की जबकि उसका वोट प्रतिशत 18.25 रहा।
चुनाव आयोग से मिले आंकड़ों के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 49.6 प्रतिशत वहीं कांग्रेस को 6.31 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि 2014 में कांग्रेस को 7.50 प्रतिशत वोट मिले थे। यानी कांग्रेस को 1 फीसदी से ज्यादा वोटों का नुकसान हुआ है। राहुल अमेठी से चुनाव हार गए तो सोनिया की जीत का अंतर कम हो गया।
उधर, नई जिम्मेदारी के बीच कांगे्रस को मजबूती देने के लिए प्रियंको ने अपनी टीम तैयार कर ली है,जिसकी जल्द घोषणा हो सकती है। टीम चयन के लिए प्रियंका ने यूपी के आठ हजार से ज्यादा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। ये टीम 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए काम करेगी।प्रियंका गांधी ने टीम चयन के लिए कांग्रेस के पूर्व और वर्तमान सांसदों-विधायकों से लेकर पंचायत और ब्लॉक लेवल पर चुने गए कार्यकर्ताओं से भी मुलाकात की। अपनी टीम में प्रियंका गांधी ने युवाओं और महिलाओं को खास तवज्जो दी है। इस टीम में 35 से 40 की उम्र के नेताओं को प्रमुख रोल दिया।
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