CHARAN SINGH RAJPUT
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आर्थिक तंगी के चलते दो बच्चों को जहर देकर दंपति ने आत्महत्या की है। मीडिया से लेकर सामाजिक संगठन और राजनीतिक संगठनों ने तो औपचाकिरता निभाकर जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली। हां सोशल मीडिया पर यह मामला जरूर मजबूती से उठा। मामला इसलिए भी गंभीर है क्योंकि मामला प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का है। प्रधानमंत्री भी ऐसे कि देश के विकास का ढिंढोरा पूरे विश्व में पीटते फिर रहे हैं। दूसरे देशों में जा-जाकर अपनी कीर्तिमान गिना रहे हैं। संपन्न लोगों के बीच में जाकर सेल्फी ले रहे हैं। अमेरिका जैसे देश में जाकर अपनी महिमामंडन में कार्यक्रम करा रहे हैं।
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पूजंपीतियों के दम पर राजनीति करने वाले राजनेताओं ने कृषि प्रधान देश में कारपोरेट संस्कृति इतनी हावी कर दी है कि जो परिवार का मुखिया अभव में भी बड़े-बड़े परिवार को पाल देता था, एक से बढ़ एक जिम्मेदारी निभा देता था वही मुखिया जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर पूरे के पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर ले रहा है। सत्ता के दलालों ने आम आदमी को पूरी तरह से बेबस बना दिया है। किसान-मजदूर की चिंता करने वाले देश में कारपोरेट घरानों की चिंता हो रही है। कहना गलत न होगा कि गरीब, किसान मजदूर की कमाई देश के गिने-चुने पूंजीपतियों को लूटाई जा रही है।
आम आदमी तो बस अपनी बेबसी पर सहमा-सहमा नजर आ रहा है। परिवार के साथ आत्महत्या के मामले सुनने में भले ही साधारण घटना लगे पर जरा गहराई से सोचिए कि जो व्यक्ति जिन बीबी-बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहता हो वह अपने ही हाथों से उन्हें जहर दे दे रहा है या फिर गला दबा दे रहा है, कितनी बेबसी होगी उस व्यक्ति के सामने। हम इन मामलों को आत्महत्या के रूप में देख लेते हैं पर यह आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या होती है। ऐसी बेबसी जिन बच्चों के सामने पूरी जिंदगी पड़ी है उसकी जान ले ली जाती है। क्या इसके लिए पूरे का पूरा समाज जिम्मेदार नहीं है ? प्रश्न यह नहीं है कि घर का मुखिया अपने ही बच्चों की हत्या कर दे रहा है। प्रश्न यह है कि जिस देश में अभावों में भी संघर्ष करने की परंपरा रही है। एक से बढ़कर एक विपदा में भी जिस देश का व्यक्ति नहीं टूटता था।
वह छोटी से छोटी सी परेशानी में टूट जा रहा है। ऐसा क्यों ? ऐसी परिस्थिति समाज में अचानक नहीं पैदा हु ई है। ऐसा माहौल बनने के लिए यदि शासन और प्रशासन जिम्मेदार है तो समाज भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। दरअसल समझौता कर-करके व्यक्ति इतना कमजोर हो जा रहा है कि वह जरा सी विपदा में ही विचलित होकर खौफनाक कदम उठा ले रहा है। चाहे देश की शिक्षा प्रणाली हो, घर का माहौल हो, राजनीतिक संगठन हो, सामाजिक संगठन हो या फिर कार्यालयों का माहौल कहीं पर भी गलत बात का विरोध कर विपरीत परिस्थितियों में भी खड़े होने का हुनर नहीं सिखाया जा रहा है। या फिर जो लोग विपरीत परिस्थितियों भी खड़े हैं उनकी कोई हौसलाअफजाई करने का तैयार नहीं। बल्कि उनकी परेशानियों को गिनाकर दूसरे लोगों को और कमजोर करने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है।
हर कोई हर किसी से समझौता करने को कहता प्रतीत हो रहा है। चाहे वह व्यवहारिक समझौता या फिर चारित्रिक समझौता। यही वजह है कि प्रभावशाली लोग आम आदमी की बेबसी का फायदा उठा रहे हैं और आम आदमी कीड़े-मकोड़े की जिंदगी जीने को मजबूर है। या तो वह चाटुकारिता करके तरह-तरह के समझौता करके अपना काम निकालने की युक्ति सोचता है। यदि इन सबसे भी बात नहीं बन रही है तो मानसिक रूप से बीमार हो जा रहा है। समाज कटा होने की वजह से कितने लोग समस्याओं में जकड़ता देख फंदे पर झूलकर जान दे रहे हैं।
वैसे तो आत्महत्या जैसा कदम कोई खुशी से नहीं उठाता है पर जो लोग अपने परिवार की हत्या कर खुद आत्महत्या कर लेते हैं, ऐसे मामलों को सहानुभूति के रूप में नहीं कायरता के रूप में देखा जाना चाहिए। वह व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों के लिए अपने परिवार की बलि लेता है। आत्महत्या से बेहतर समस्याओं से लड़ते-लड़ते मर जाना है। जो लोग विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ रहे हैं उनसे प्रेरणा लेने की प्रत्तृत्ति समाज में बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए।
इस तरह के मामलों के लिए आत्महत्या करने वाले लोग ही जिम्मेदार नहीं होते हैं। इन मामलों के लिए उनके परिचित, रिश्तेदार और पूरा का पूरा समाज भी जिम्मेदार होता है। हमारे सजाम में बूरे वक्त में मदद करने की परंपरा रही है। आज के माहौल में बुरे दिनों को कमजोरी समझी जाती है। बुरे दिन में अपने ही करीब कन्नी काटने लगते हैं। अक्सर देखा जाता है जब व्यक्ति को मदद की जरूरत होती उसे ताने मिलते हैं। जब उसे सहानुभूति की जरूरत होती है उसे दुत्कार मिलती है। हां इसके लिए व्यक्ति खुद भी जिम्मेदार होता है। दिखावे के पीछे भागते-भागते आदमी समाज से कटता जा रहा है।
अपनों से अच्छे संबंध आज की तारीख में न के बराबर रह गये हैं। जो व्यक्ति अपनो को साथ लेकर चले। उसे वे ही लोग पागल समझने लगते हैं। दूसरों के लिए समर्पण की भावना रखने वाले व्यक्ति को सीधा-साधा और दूसरों का बेवकूफ बनाकर अपना काम निकालने वाले को चतुर समझा जा रहा है। समाज ने अपनी ही हिसाब से शब्दों की ही परिभाषा बदल कर रख दी है। समाज में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सब कुछ दिखावा ही दिखावा है। आदमी बोल कुछ और रहा है और उसके अंदर चल कुछ और रहा है। यही सब कुछ आदमी को समाज से काट रहा है। समाज से कटने की वजह से ही आदमी मानसिक बीमारी की जगड़ आ जा रहा या फिर आत्महत्या जैसा कायराना कदम उठा ले रहा है। यदि ऐसे मामलों से छुटकारा पाना है तो फिर से एक-दूसरे से मिलने-जुलने और साथ देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।
देश में ऐसी व्यवस्था हो कि यदि किसी जिले में कोई व्यक्ति किसी समसया परेशान है या उसे परेशान किया जा रहा है। उसकी आत्महत्या करने या फिर भूख से मरने की नौबत आती है तो उसकी जवाबदेही जिलाधिकारी के साथ संबंधित जनप्रतिनिधियों की निर्धारित की जानी चाहिए। ऐसे मामलों में संबंधित नौकरशाह और जनप्रतिनिधि के लिए दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए। मतलब यदि वाराणसी संसदीय क्षेत्र में किसान दंपति ने दो बच्चों जहर देकर खुद आत्महत्या की है तो इसके लिए वहां के जिलाधिकारी के साथ ही विधायक और सांसद यानी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। अक्सर देखने में आता है कि जनता वही फाकाकसी में उलझी रहती है और क्षेत्र के नौकरशाह और जनप्रतिनिधि करोड़ों-अरबों में खेलने लगते हैं।
यह देश की विडंबना ही है कि गरीबी, बेबसी, किसान और मजदूर जैसे शब्द चुनावी जुमलों तक सिमट कर रह गये हैं। देखने की बात यह है कि बीबी बच्चों की हत्या कर खुद आत्महत्या करने वाला व्यक्ति उस समाज से है, जिसे सम्पन्न माना जाता है। हमारे समाज में गुप्ता समाज व्यापारी समाज से आता है। यदि खुदरा व्यापारियों का यह हाल है तो देश की स्थिति का अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है। परिवार के साथ आत्महत्या करने वाले किशन गुप्ता के पिता अमरनाथ गुप्ता के अनुसार उस पर छोटी बहन की शादी में बहुत कर्जा हो गया था और वह बहुत परेशान था।
मतलब बहन की शादी की जिम्मेदारी ही उसकी जान की दुश्मन बन गई। समाज के साथ ही राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट और पूंजपीतियों के गठजोड़ ने आम आदमी के सामने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि यदि वह परिवार की जिम्मेदारी निभाने की भी सोचे तो उसकी जान पर पड़ जा रही है। ये घटनाएं ऐसे दौर में हो रही हैं जब नेताओं, ब्यूरोक्रेट, पूंजीपतियों के अलावा बाबाओं के यहां से सैकड़ों और हजारों करोड़ की नकदी के साथ अथाह संपत्ति निकल रही है। किसन गुप्ता तो मात्र एक उदाहरण है देश में ऐसे कितने किसन हैं जो समाज की मार और देश के कर्णधारों की लूटखसोट की नीति के चलते दम तोड़ दे रहे हैं।
चाहे राजनीकित दल हों, सामाजिक संगठन हों, एनजीओ या फिर दूसरे जिम्मेदार लोग। सबको एशोआराम चाहिए, मौज-मस्ती चाहिए, सत्ता का रूतबा चाहिए। चाहे वह किसी भी तरह से हासिल किया जाए। यही वजह है देश के जिम्मेदार लोग अपनी जवाबदेही से बचकर जनता को बेवकूफ बनाने में लगे हैं और जनता छोटे-छोटे स्वार्थों में इनके पीछे भागे चली जा रही है। गलत को गलत न कहने तथा आगे बढ़ने के लिए संघर्ष को छोड़कर छोटे-छोटे रास्ते तलाशने की प्रवृत्ति आदमी को कमजोर बना रही है। जिसके चलते आत्महत्या जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं।
चरण सिंह राजपूत वरिष्ठ पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट हैं.
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आर्थिक तंगी के चलते दो बच्चों को जहर देकर दंपति ने आत्महत्या की है। मीडिया से लेकर सामाजिक संगठन और राजनीतिक संगठनों ने तो औपचाकिरता निभाकर जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली। हां सोशल मीडिया पर यह मामला जरूर मजबूती से उठा। मामला इसलिए भी गंभीर है क्योंकि मामला प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का है। प्रधानमंत्री भी ऐसे कि देश के विकास का ढिंढोरा पूरे विश्व में पीटते फिर रहे हैं। दूसरे देशों में जा-जाकर अपनी कीर्तिमान गिना रहे हैं। संपन्न लोगों के बीच में जाकर सेल्फी ले रहे हैं। अमेरिका जैसे देश में जाकर अपनी महिमामंडन में कार्यक्रम करा रहे हैं।
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पूजंपीतियों के दम पर राजनीति करने वाले राजनेताओं ने कृषि प्रधान देश में कारपोरेट संस्कृति इतनी हावी कर दी है कि जो परिवार का मुखिया अभव में भी बड़े-बड़े परिवार को पाल देता था, एक से बढ़ एक जिम्मेदारी निभा देता था वही मुखिया जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर पूरे के पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर ले रहा है। सत्ता के दलालों ने आम आदमी को पूरी तरह से बेबस बना दिया है। किसान-मजदूर की चिंता करने वाले देश में कारपोरेट घरानों की चिंता हो रही है। कहना गलत न होगा कि गरीब, किसान मजदूर की कमाई देश के गिने-चुने पूंजीपतियों को लूटाई जा रही है।
आम आदमी तो बस अपनी बेबसी पर सहमा-सहमा नजर आ रहा है। परिवार के साथ आत्महत्या के मामले सुनने में भले ही साधारण घटना लगे पर जरा गहराई से सोचिए कि जो व्यक्ति जिन बीबी-बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहता हो वह अपने ही हाथों से उन्हें जहर दे दे रहा है या फिर गला दबा दे रहा है, कितनी बेबसी होगी उस व्यक्ति के सामने। हम इन मामलों को आत्महत्या के रूप में देख लेते हैं पर यह आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या होती है। ऐसी बेबसी जिन बच्चों के सामने पूरी जिंदगी पड़ी है उसकी जान ले ली जाती है। क्या इसके लिए पूरे का पूरा समाज जिम्मेदार नहीं है ? प्रश्न यह नहीं है कि घर का मुखिया अपने ही बच्चों की हत्या कर दे रहा है। प्रश्न यह है कि जिस देश में अभावों में भी संघर्ष करने की परंपरा रही है। एक से बढ़कर एक विपदा में भी जिस देश का व्यक्ति नहीं टूटता था।
वह छोटी से छोटी सी परेशानी में टूट जा रहा है। ऐसा क्यों ? ऐसी परिस्थिति समाज में अचानक नहीं पैदा हु ई है। ऐसा माहौल बनने के लिए यदि शासन और प्रशासन जिम्मेदार है तो समाज भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। दरअसल समझौता कर-करके व्यक्ति इतना कमजोर हो जा रहा है कि वह जरा सी विपदा में ही विचलित होकर खौफनाक कदम उठा ले रहा है। चाहे देश की शिक्षा प्रणाली हो, घर का माहौल हो, राजनीतिक संगठन हो, सामाजिक संगठन हो या फिर कार्यालयों का माहौल कहीं पर भी गलत बात का विरोध कर विपरीत परिस्थितियों में भी खड़े होने का हुनर नहीं सिखाया जा रहा है। या फिर जो लोग विपरीत परिस्थितियों भी खड़े हैं उनकी कोई हौसलाअफजाई करने का तैयार नहीं। बल्कि उनकी परेशानियों को गिनाकर दूसरे लोगों को और कमजोर करने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है।
हर कोई हर किसी से समझौता करने को कहता प्रतीत हो रहा है। चाहे वह व्यवहारिक समझौता या फिर चारित्रिक समझौता। यही वजह है कि प्रभावशाली लोग आम आदमी की बेबसी का फायदा उठा रहे हैं और आम आदमी कीड़े-मकोड़े की जिंदगी जीने को मजबूर है। या तो वह चाटुकारिता करके तरह-तरह के समझौता करके अपना काम निकालने की युक्ति सोचता है। यदि इन सबसे भी बात नहीं बन रही है तो मानसिक रूप से बीमार हो जा रहा है। समाज कटा होने की वजह से कितने लोग समस्याओं में जकड़ता देख फंदे पर झूलकर जान दे रहे हैं।
वैसे तो आत्महत्या जैसा कदम कोई खुशी से नहीं उठाता है पर जो लोग अपने परिवार की हत्या कर खुद आत्महत्या कर लेते हैं, ऐसे मामलों को सहानुभूति के रूप में नहीं कायरता के रूप में देखा जाना चाहिए। वह व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों के लिए अपने परिवार की बलि लेता है। आत्महत्या से बेहतर समस्याओं से लड़ते-लड़ते मर जाना है। जो लोग विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ रहे हैं उनसे प्रेरणा लेने की प्रत्तृत्ति समाज में बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए।
इस तरह के मामलों के लिए आत्महत्या करने वाले लोग ही जिम्मेदार नहीं होते हैं। इन मामलों के लिए उनके परिचित, रिश्तेदार और पूरा का पूरा समाज भी जिम्मेदार होता है। हमारे सजाम में बूरे वक्त में मदद करने की परंपरा रही है। आज के माहौल में बुरे दिनों को कमजोरी समझी जाती है। बुरे दिन में अपने ही करीब कन्नी काटने लगते हैं। अक्सर देखा जाता है जब व्यक्ति को मदद की जरूरत होती उसे ताने मिलते हैं। जब उसे सहानुभूति की जरूरत होती है उसे दुत्कार मिलती है। हां इसके लिए व्यक्ति खुद भी जिम्मेदार होता है। दिखावे के पीछे भागते-भागते आदमी समाज से कटता जा रहा है।
अपनों से अच्छे संबंध आज की तारीख में न के बराबर रह गये हैं। जो व्यक्ति अपनो को साथ लेकर चले। उसे वे ही लोग पागल समझने लगते हैं। दूसरों के लिए समर्पण की भावना रखने वाले व्यक्ति को सीधा-साधा और दूसरों का बेवकूफ बनाकर अपना काम निकालने वाले को चतुर समझा जा रहा है। समाज ने अपनी ही हिसाब से शब्दों की ही परिभाषा बदल कर रख दी है। समाज में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सब कुछ दिखावा ही दिखावा है। आदमी बोल कुछ और रहा है और उसके अंदर चल कुछ और रहा है। यही सब कुछ आदमी को समाज से काट रहा है। समाज से कटने की वजह से ही आदमी मानसिक बीमारी की जगड़ आ जा रहा या फिर आत्महत्या जैसा कायराना कदम उठा ले रहा है। यदि ऐसे मामलों से छुटकारा पाना है तो फिर से एक-दूसरे से मिलने-जुलने और साथ देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।
देश में ऐसी व्यवस्था हो कि यदि किसी जिले में कोई व्यक्ति किसी समसया परेशान है या उसे परेशान किया जा रहा है। उसकी आत्महत्या करने या फिर भूख से मरने की नौबत आती है तो उसकी जवाबदेही जिलाधिकारी के साथ संबंधित जनप्रतिनिधियों की निर्धारित की जानी चाहिए। ऐसे मामलों में संबंधित नौकरशाह और जनप्रतिनिधि के लिए दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए। मतलब यदि वाराणसी संसदीय क्षेत्र में किसान दंपति ने दो बच्चों जहर देकर खुद आत्महत्या की है तो इसके लिए वहां के जिलाधिकारी के साथ ही विधायक और सांसद यानी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। अक्सर देखने में आता है कि जनता वही फाकाकसी में उलझी रहती है और क्षेत्र के नौकरशाह और जनप्रतिनिधि करोड़ों-अरबों में खेलने लगते हैं।
यह देश की विडंबना ही है कि गरीबी, बेबसी, किसान और मजदूर जैसे शब्द चुनावी जुमलों तक सिमट कर रह गये हैं। देखने की बात यह है कि बीबी बच्चों की हत्या कर खुद आत्महत्या करने वाला व्यक्ति उस समाज से है, जिसे सम्पन्न माना जाता है। हमारे समाज में गुप्ता समाज व्यापारी समाज से आता है। यदि खुदरा व्यापारियों का यह हाल है तो देश की स्थिति का अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है। परिवार के साथ आत्महत्या करने वाले किशन गुप्ता के पिता अमरनाथ गुप्ता के अनुसार उस पर छोटी बहन की शादी में बहुत कर्जा हो गया था और वह बहुत परेशान था।
मतलब बहन की शादी की जिम्मेदारी ही उसकी जान की दुश्मन बन गई। समाज के साथ ही राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट और पूंजपीतियों के गठजोड़ ने आम आदमी के सामने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि यदि वह परिवार की जिम्मेदारी निभाने की भी सोचे तो उसकी जान पर पड़ जा रही है। ये घटनाएं ऐसे दौर में हो रही हैं जब नेताओं, ब्यूरोक्रेट, पूंजीपतियों के अलावा बाबाओं के यहां से सैकड़ों और हजारों करोड़ की नकदी के साथ अथाह संपत्ति निकल रही है। किसन गुप्ता तो मात्र एक उदाहरण है देश में ऐसे कितने किसन हैं जो समाज की मार और देश के कर्णधारों की लूटखसोट की नीति के चलते दम तोड़ दे रहे हैं।
चाहे राजनीकित दल हों, सामाजिक संगठन हों, एनजीओ या फिर दूसरे जिम्मेदार लोग। सबको एशोआराम चाहिए, मौज-मस्ती चाहिए, सत्ता का रूतबा चाहिए। चाहे वह किसी भी तरह से हासिल किया जाए। यही वजह है देश के जिम्मेदार लोग अपनी जवाबदेही से बचकर जनता को बेवकूफ बनाने में लगे हैं और जनता छोटे-छोटे स्वार्थों में इनके पीछे भागे चली जा रही है। गलत को गलत न कहने तथा आगे बढ़ने के लिए संघर्ष को छोड़कर छोटे-छोटे रास्ते तलाशने की प्रवृत्ति आदमी को कमजोर बना रही है। जिसके चलते आत्महत्या जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं।
चरण सिंह राजपूत वरिष्ठ पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट हैं.
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