सक्षम द्विवेदी
"अगला स्टेशन रविन्द्र भवन है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे।" स्टेशन के नाम बेशक बदल सकते हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ये वाक्य कोलिकाता, दिल्ली, बंगलुरू और अन्य महानगरों के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। दरअसल बढ़ती आबादी और ट्रैफिक के उलझे जंजाल के बीच डेली लोकल सफर को आसान बनाना कभी भी आसान नहीं रहा। किसी को ऑफिस की जल्दी है तो किसी का एक्जाम छूटा जा रहा है। सड़कें वही हैं, रास्ते वही हैं, जनसंख्या और निर्माण बढ़ते जा रहेहैं। ऐसे बढ़ते दबाव में अनवरत यातायात की वैकिल्पक व समानांतर व्यवस्था के प्रयास भी हमेशा से ही जारी रहे हैं। आज पटरियों में भाग रही मेट्रो इसी व्यवस्था की संकल्पना का मूर्त रूप है।
ये सब अचानक नहीं हुआ। इस व्यवस्था ने एक लंबा सफर किया है। बात अगर भारत के संदर्भ में की जाए तो लोकल यात्रा के लिए पटरियों में दौड़ती जीवन रेखा 'ट्राम' के लिए कोलिकाता मशहूर रहा है। कोलिकाता में आज भी दौड़ते ट्राम लोगों को आकर्षित तो करते ही हैं साथ ही दुग्ध व्यवसाय से जुड़े लोगों सहित श्रमिक व अन्य वर्गों के लिए एक बड़ी राहत भी हैं।
दरअसल ट्राम या ट्रॉली कार एक रेल वाहन है जो सामान्यतः नगरीय सड़कों के समानांतर बिछाई गई पटरियों पर चलता है। वर्तमान में ट्राम डीज़ल और विद्युत द्वारा चलाया जा रहा है। आरम्भिक दौर में इसे घोड़ों या खच्चरों द्वारा खींचा जाता था।
24 फरवरी 1873 को कोलिकाता स्थित सियालदह से आर्मोनियम स्ट्रीट के बीच देश की पहली ट्राम सेवा की गई। उस समय ट्राम को घोड़े खींचते थे। बाद में 27 मार्च 1902 को बिजली से चलने वाली ट्राम प्रारम्भ की गई। अगर विश्व की बात की जाए तो पहली ट्राम लाइन, आयरिश मूल के अमेरिकी जॉन स्तेफेंसों द्वारा विकसित की गई।
भारत में सामान्यतः यही माना जाता रहा है कि ट्राम का संचालन सिर्फ कोलिकाता में ही होता था। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि कभी पटना के लोग भी ट्राम के सफर का लुत्फ उठाते थे।
पत्रकार नवीन मिश्रा की रिपोर्ट व प्रशासनिक अभिलेख बताते हैं कि लगभग 125 साल पहले पटना में ट्राम चला क़रतीं थीं। प्रशासनिक रिपोर्ट के अनुसार पटना ट्रामवे में व्यय 27,247 रुपये किया गया जबकी आमदनी महज 31,639 रुपये की हुई। यही नहीं इसे तीन दुर्घटनाओं का सामना भी करना पड़ा। पटना में घोड़े से चलने वाली ट्राम पर तत्कालीन बंगाल के गवर्नर द्वारा यात्रा करने का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
हालांकि सोचने वाली बात ये भी है कि कोलिकाता में ट्राम को संजोए हुए मेट्रो तक का सफर किया जबकि पटना इस सफर में काफी पीछे रह गया।
तमाम उठापठक, कशमकश के साथ तमाम खट्टी-मीठी यादों के साथ धीमी गति से ही सही आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में ट्राम का सफर भी बदस्तूर जारी है।
सक्षम द्विवेदी,
रिसर्च इन इंडियन डायस्पोरा,
महात्मा गांधी इंटरनेशनल हिंदी यूनिवर्सिटी वर्धा, महाराष्ट्र।
पता- 20 नया कटरा दिलकुशा पार्क, प्रयागराज।
मोबाइल नम्बर- 7380662596
sakshamdwivedi62@gmail.com
"अगला स्टेशन रविन्द्र भवन है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे।" स्टेशन के नाम बेशक बदल सकते हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ये वाक्य कोलिकाता, दिल्ली, बंगलुरू और अन्य महानगरों के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। दरअसल बढ़ती आबादी और ट्रैफिक के उलझे जंजाल के बीच डेली लोकल सफर को आसान बनाना कभी भी आसान नहीं रहा। किसी को ऑफिस की जल्दी है तो किसी का एक्जाम छूटा जा रहा है। सड़कें वही हैं, रास्ते वही हैं, जनसंख्या और निर्माण बढ़ते जा रहेहैं। ऐसे बढ़ते दबाव में अनवरत यातायात की वैकिल्पक व समानांतर व्यवस्था के प्रयास भी हमेशा से ही जारी रहे हैं। आज पटरियों में भाग रही मेट्रो इसी व्यवस्था की संकल्पना का मूर्त रूप है।
ये सब अचानक नहीं हुआ। इस व्यवस्था ने एक लंबा सफर किया है। बात अगर भारत के संदर्भ में की जाए तो लोकल यात्रा के लिए पटरियों में दौड़ती जीवन रेखा 'ट्राम' के लिए कोलिकाता मशहूर रहा है। कोलिकाता में आज भी दौड़ते ट्राम लोगों को आकर्षित तो करते ही हैं साथ ही दुग्ध व्यवसाय से जुड़े लोगों सहित श्रमिक व अन्य वर्गों के लिए एक बड़ी राहत भी हैं।
दरअसल ट्राम या ट्रॉली कार एक रेल वाहन है जो सामान्यतः नगरीय सड़कों के समानांतर बिछाई गई पटरियों पर चलता है। वर्तमान में ट्राम डीज़ल और विद्युत द्वारा चलाया जा रहा है। आरम्भिक दौर में इसे घोड़ों या खच्चरों द्वारा खींचा जाता था।
24 फरवरी 1873 को कोलिकाता स्थित सियालदह से आर्मोनियम स्ट्रीट के बीच देश की पहली ट्राम सेवा की गई। उस समय ट्राम को घोड़े खींचते थे। बाद में 27 मार्च 1902 को बिजली से चलने वाली ट्राम प्रारम्भ की गई। अगर विश्व की बात की जाए तो पहली ट्राम लाइन, आयरिश मूल के अमेरिकी जॉन स्तेफेंसों द्वारा विकसित की गई।
भारत में सामान्यतः यही माना जाता रहा है कि ट्राम का संचालन सिर्फ कोलिकाता में ही होता था। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि कभी पटना के लोग भी ट्राम के सफर का लुत्फ उठाते थे।
पत्रकार नवीन मिश्रा की रिपोर्ट व प्रशासनिक अभिलेख बताते हैं कि लगभग 125 साल पहले पटना में ट्राम चला क़रतीं थीं। प्रशासनिक रिपोर्ट के अनुसार पटना ट्रामवे में व्यय 27,247 रुपये किया गया जबकी आमदनी महज 31,639 रुपये की हुई। यही नहीं इसे तीन दुर्घटनाओं का सामना भी करना पड़ा। पटना में घोड़े से चलने वाली ट्राम पर तत्कालीन बंगाल के गवर्नर द्वारा यात्रा करने का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
हालांकि सोचने वाली बात ये भी है कि कोलिकाता में ट्राम को संजोए हुए मेट्रो तक का सफर किया जबकि पटना इस सफर में काफी पीछे रह गया।
तमाम उठापठक, कशमकश के साथ तमाम खट्टी-मीठी यादों के साथ धीमी गति से ही सही आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में ट्राम का सफर भी बदस्तूर जारी है।
सक्षम द्विवेदी,
रिसर्च इन इंडियन डायस्पोरा,
महात्मा गांधी इंटरनेशनल हिंदी यूनिवर्सिटी वर्धा, महाराष्ट्र।
पता- 20 नया कटरा दिलकुशा पार्क, प्रयागराज।
मोबाइल नम्बर- 7380662596
sakshamdwivedi62@gmail.com
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