हम धन्य है इस जग जननी कि, सेवा का अवसर है पाया
इसकी माटी, वायु, जल से, दुर्लभ जीवन है विकसाया
यहाँ पुष्प उसी के चरणों में, माँ प्राणों से भी प्यारी है
मन मस्त फकीरी धारी है अब एक ही धुन जय जय भारत ।
जब-जब प्रो. बलदेव भाई का स्मरण हो आया, उनकी कर्मठता, ज्ञान तथा जीवन मूल्यों के समर्पण को देखकर यही शब्द अंतस से बाहर निकल आते हैं। आज वे कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। वास्तव में यह धन्यता इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए भी है कि उनके यहां ऐसे श्रेष्ठ पत्रकारिता में ही नहीं बल्कि समाज के मर्मज्ञ एवं मनीषी कुलपति बलदेव भाई जी के रूप में उनका मार्गदर्शन करने उपलब्ध हुए हैं।
वैसे तो यह विश्वविद्यालय पत्रकारिता शिक्षा के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित कर रहा है, किंतु प्रो. बलदेव भाई ने कुलपति बनने के बाद से आगे जो यह नई दिशा तय करेगा वह कहना चाहिए कि शिक्षा में मूल्यों के लक्ष्य को पूरा करने के साथ समाज के लिए कुछ ठोस कार्य कर देने वाला सिद्ध होगा। वस्तुत: आज यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि बलदेव भाई शर्मा ने मीडिया को माध्यम बनाकर सही मायनों में देश की जो सेवा की है वह अतुलनीय है। उनके पूरे जीवन की पत्रकारिता ध्येय निष्ठ पत्रकारिता रही है और यह ध्येय क्या है? पत्रकारिता के माध्यम से समाज में राष्ट्रीयता का बोध जाग्रत करते जाना । उनका शुरू से यही मानना रहा है, राष्ट्र रहेगा तो समाज समुन्नत रहेगा, वह आगे बढ़ेगा और खुश रहेगा। यहां यह भी समझना होगा कि वे राष्ट्र, राष्ट्रबोध, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के साथ भारतीय संस्कृति को जोड़ना कभी नहीं भूलते हैं।
वे कहते हैं कि ऋषियों, मुनोयों, संतों का तप, अनमोल हमारी थाती है, बलिदाली वीरों कि गाथा अपनें राग-राग लहराती है। गौरवमय नव इतिहास रचें-अब अपनी ही तो बारी है, अब एक ही धुन जय जय भारत। विशेषकर आज की युवा पीढ़ी और नौजवानों को खासकर यह अवश्य जानना चाहिए कि राष्ट्रवाद क्या है । वास्तव में आज इस विषय पर कई भ्रम पैदा कर दिए गए हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। राष्ट्रवाद के बिना जीवन का ही कोई अर्थ नहीं है, किसी भी देश का नागरिक यदि नागरिकता के बोध से जुड़ा नहीं है तो उसके जीवन के लिए ही वर्तमान एवं भविष्य मुश्किल भरा है। इसलिए हमारे कवियों ने भी कहा जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।
कवि मैथिलीशरण गुप्त की इस कविता का जिक्र करते हुए बलदेव भाई यहीं नहीं रुकते वे कई अवसरों पर कहते हुए दिखाई देते हैं कि स्वदेश के प्रति जो प्रेम भक्ति और अपनत्व का भाव है वास्तव में यही राष्ट्रीयता है । इसके साथ ही वे सावधानी पूर्वक यह स्पष्ट करना भी नहीं भूलते कि जो राष्ट्रवाद शब्द है, यह भारतीय शब्द नहीं । यह यूरोपियन शब्द है। नेशन और नेशनलिज्म के तौर पर भारत में जो नया बौद्धिक आन्दोलन हुआ था, उस समय यह यहां प्रत्यारोपित किया गया। फिर वे बहुत ही दृढ़ता के साथ स्थापित करते हुए दिखते हैं कि भारत में साहित्य स्रजन ऋग्वेद काल से हो रहा है । यहां वेद में एक मंत्र आया है वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः यानी कि हम सब लोग (पुरोहित) राष्ट्र को जीवंत ओर जाग्रत बनाए रखेंगे। हम राष्ट्र के प्रति सचेत हों।
यहां बलदेव भाई शुरू से ही यह मानते हुए और तथ्यों के साथ अपनी बात स्पष्ट करते हुए दिखते हैं कि पत्रकारिता और साहित्य राष्ट्र अलग नहीं है बल्कि साहित्य के माध्यम से भावों का संचार होता है और पत्रकारिता से सूचनाओं का संवाद होता है। सच पूछिए तो भारतीय राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रभाव यूरोप का नेशनल और नेशनलिज्म नहीं है । ये राजनीतिक शब्दावली है और हम जिस राष्ट्रीयता की बात करते हैं वह सांस्कृतिक बोध है। वेद कहता है कि सॐ सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् देवा भागं यथा पूर्वे , संजानाना उपासते। हम साथ रहे, आचार,विचार,उच्चार की समानता रहे। मन मस्तिष्क के सुख-दुःख,चुनौतियां समान हो, हमारी प्रार्थनाओं,आकांक्षाओं,उद्देश्यों,भावनाओं में समानता रहें। यही कारण है कि भारत में राष्ट्रीयता का बोध सांस्कृतिक अवधारणा है वह राज्यीक नहीं है।
प्रो. बलदेव भाई समझाते हैं, भारत का राष्ट्रवाद पश्चिम का भाव नहीं, वह सत्ता से नहीं जुड़ा, सत्ता का भाग नहीं। ऐसे में जो भी इस भेद को नहीं समझेंगे वे राष्ट्रवाद के नाम पर झगड़ते रहेंगे । इसलिए हमको यह समझना होगा कि भारत का राष्ट्रभाव पश्चिम का उपनिवेशवाद का भाव नहीं है। दूसरों का उत्पीड़न करनेवाला भारत का राष्ट्रवाद नहीं है। भारत का राष्ट्रवाद सांस्कृतिक अवधारणा पर टिका हुआ है।
हमारे बलदेव भाई अक्सर सहज रूप से अपनी यह बात हम जैसे सभी पत्रकारिता, साहित्य और भारत के जन को समझा देते हैं कि खुद कमाकर खाना यह प्रकृति है, दूसरे का छीनकर खाना ये विकृति है, लेकिन खुद कमाकर दूसरों को खिलाना यह संस्कृति है, जोकि भारत में है। इसलिए भारतीय परंपरा में सबके साथ मिलकर सुखी होने की बात कही गई है, जिसको कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने व्यक्त किया है।
औरों को हँसते देखो मनु
हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो
सबको सुखी बनाओ।
यह जो जग को सुखी बनाने का जो भावबोध है, यही वास्तव में भारत का राष्ट्रबोध और राष्ट्रीयता है । इसलिए नए संदर्भों में इसी को राष्ट्रवाद समझें । दूसरों का उत्पीड़न करना, दूसरों के राज्यों को हड़पना, दूसरो की सत्ता पर नियंत्रण करके उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता की पहचान को नष्ट करना, यह भारत की राष्ट्रीयता का लक्षण कभी नहीं रहा। भारत की राष्ट्रीयता मनुष्य की चेतना और विकास पर टिकी हुई है।
वे कहते हैं कि भारत का राष्ट्रभाव समझने के लिए मनुष्यता का बोध अपने में रखना होगा । इसलिए तुलसी दास ने कहा है कि जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। इसमें कहीं कोई जाति, भाषा वर्ग का भेद नहीं है । तुलसीदास सभी कुछ ईश्वरीय मानते हैं और उसी तरह का उनका आचरण है। वास्तव में यही दर्शन भारतीय और भारतीयता से उपजा राष्ट्रबोध एवं राष्ट्रवाद है।
वस्तुत: आज ऐसी श्रेष्ठ सोच एवं विचार रखनेवाले कुलपति पाकर निश्चित ही रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय धन्य हुआ है। बल्कि कहें कि उनकी ध्येयनिष्ठ और भारतबोध से भरी अब तक की पत्रकारिता का जो सार इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को अब से मिलेगा, उससे वे आज के वैमनस्यता से उपजे वातावरण में भी सृजनात्मक और सकारात्मक वातावरण बना लेने में सफल होंगे । विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर जहां भी जाएंगे वे वहां नकारात्मकता को बहुत दूर छोड़कर प्रो. बलदेव भाई की तरह ही उत्साह का वातारण एवं रचनात्मक सृजन करने में सफल हो उठेंगे।
लेखक डॉ. मयंक चतुर्वेदी पत्रकार एवं फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य हैं
No comments:
Post a Comment