satish pednekar
Prabhash joshi and Jansatta : कभी मैंने एक मित्र से कहा था कि मुझे जनसत्ता का भविष्य अंधकारमय लगता है क्योंकि उसके संपादक प्रभाष जोशी गांधी और विनोबा दोनों के कट्टर शिष्य थे। करेला और नीम चढा वाला मामला था। उनसे आजतक कोई अखबार (मध्यदेश, प्रजानीति, आसपास) नहीं संभला।
उसके कुछ साल बाद जनसत्ता का मुंबई संस्करण और चडींगढ संस्करण बंद हो गया था।
कलकत्ता इसलिए बंद नहीं हुआ था क्योंकि अनन्या गोयनका कोलकत्ता की रहनेवाली थी। दिल्ली संस्करण का सर्कुलेशन कुछ न होने के बावजूद दिल्ली का संस्करण इसलिए चलता रहा क्योंकि अखबार ने दिल्ली में सरकार से जमीन ली हुई थी।
कुछ साल पहले संपादक ओम थानवी को सप्रे संग्रहालय का पुरस्कार दिया गया था तब मैंने सप्रे संग्रहलय के फेसबुक पेज पर लिखा था कि ओम थानवी को अखबार का सर्कुलेशन तीन हजार तक पहुंचाने के लिए पुरस्कार दिया गया है इतना इसलिए है क्योंकि मशीन इससे कम नहीं छापती।
संग्रहालयवालों ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
मुझे लगता है कुछ संस्थाएं अखबार डुबाने के लिए पुरस्कार देती हैं। जनसत्ता डूब गया। उसे न प्रभाष जोशी का सेकुलरिज्म बचा पाया, न बोलचाल की भाषा के तीखे तेवर, न ही साहित्यकारों के बड़े बड़े लेख।
मगर कुछ लोग कहते हैं जनसत्ता को राम आंदोलन खा गया। मुझे तो हमेशा से ही यह लगता रहा संपादकों के हाथ कभी पाठकों की नब्ज पर थे ही नहीं। प्रभाषजी के तो कभी नहीं।
satish pednekar
satishgpednekar@gmail.com
Prabhash joshi and Jansatta : कभी मैंने एक मित्र से कहा था कि मुझे जनसत्ता का भविष्य अंधकारमय लगता है क्योंकि उसके संपादक प्रभाष जोशी गांधी और विनोबा दोनों के कट्टर शिष्य थे। करेला और नीम चढा वाला मामला था। उनसे आजतक कोई अखबार (मध्यदेश, प्रजानीति, आसपास) नहीं संभला।
उसके कुछ साल बाद जनसत्ता का मुंबई संस्करण और चडींगढ संस्करण बंद हो गया था।
कलकत्ता इसलिए बंद नहीं हुआ था क्योंकि अनन्या गोयनका कोलकत्ता की रहनेवाली थी। दिल्ली संस्करण का सर्कुलेशन कुछ न होने के बावजूद दिल्ली का संस्करण इसलिए चलता रहा क्योंकि अखबार ने दिल्ली में सरकार से जमीन ली हुई थी।
कुछ साल पहले संपादक ओम थानवी को सप्रे संग्रहालय का पुरस्कार दिया गया था तब मैंने सप्रे संग्रहलय के फेसबुक पेज पर लिखा था कि ओम थानवी को अखबार का सर्कुलेशन तीन हजार तक पहुंचाने के लिए पुरस्कार दिया गया है इतना इसलिए है क्योंकि मशीन इससे कम नहीं छापती।
संग्रहालयवालों ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
मुझे लगता है कुछ संस्थाएं अखबार डुबाने के लिए पुरस्कार देती हैं। जनसत्ता डूब गया। उसे न प्रभाष जोशी का सेकुलरिज्म बचा पाया, न बोलचाल की भाषा के तीखे तेवर, न ही साहित्यकारों के बड़े बड़े लेख।
मगर कुछ लोग कहते हैं जनसत्ता को राम आंदोलन खा गया। मुझे तो हमेशा से ही यह लगता रहा संपादकों के हाथ कभी पाठकों की नब्ज पर थे ही नहीं। प्रभाषजी के तो कभी नहीं।
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