पी. के. खुराना
कहा जाता है कि ज्ञान शक्ति है, पर क्या आप जानते हैं कि यह एक अधूरा सच है। ज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। ज्ञान, शक्ति में तभी परिवर्तित होता है जब इसे प्रयोग में लाया जाए। यही नहीं, जब इसे रचनात्मक ढंग से काम में लाया जाए तो यह एक बड़ी शक्ति बन जाता है। ज्ञान के रचनात्मक प्रयोग में कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है। रचनात्मक कल्पनाशक्ति का विकास उसी तरह संभव है जैसे हम तैरना, पढ़ना या चित्र बनाना सीखते हैं। वस्तुत: लगभग हर कला को वैज्ञानिक विधि से सीखा जा सकता है। कला और विज्ञान के इस संगम ने ही मानव की अपरिमित ऊँचाइयों तक पहुंचाया है।
कल्पनाशक्ति के विकास के लिए बुद्धिमत्ता, ज्ञान अथवा अनुभव की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती। जान पर आ बनी हो तो हमारी कल्पनाशक्ति ज्यादा मुखर हो जाती है। एक मनोवैज्ञानिक ने इसे एक बार सिद्ध कर दिखाया। उन्होंने एक विशाल भवन की बारहवीं मंजिल के एक कमरे में बैठे लोगों से प्रश्न किया, ‘‘यदि अभी भूकंप आ जाए और यह भवन दो मिनट में गिरने वाला हो तो आप क्या करेंगे?’’ अधिकांश लोग कोई सार्थक हल सुझा पाने में असमर्थ रहे। इसके बाद वे साथ के कमरे में गये और वहां बैठे लोगों से इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में उनका एक सहायक बदहवास हालत में वहां भागता आया और बोला कि भूकंप आ गया है, सारा भवन गिर रहा है। उनके सहायक का अभिनय इतना शानदार था कि कमरे में मौजूद लोगों को सहज ही उसकी बात पर विश्वास हो गया। दो मिनट के भीतर कमरे में मौजूद सभी लोग भवन से बाहर थे। कोई सीढ़ियों से उतरा, पाइप से लटका या खिड़की से कूदा, पर सभी भवन से बाहर आ गये ! जीवन को खतरे में जानकर कल्पनाशक्ति मुखर हुई और हर कोई जान बचाने की जुगत में जुट गया।
इस प्रयोग से सिद्ध हो गया कि कल्पनाशक्ति कई तरह के चमत्कार कर सकती है। कल्पनाशक्ति का प्रयोग करते रहने वाले व्यक्ति की कल्पना बढ़ती उम्र के साथ अधिक मुखर और परिपक्व हो जाती है। खेद का विषय है कि हमारी शिक्षा पद्धति में केवल स्मरणशक्ति के प्रयोग पर अनावश्यक बल देकर कल्पनाशक्ति के विकास पर कुठाराघात किया है। विभिन्न परीक्षाओं एवं प्रतियोगिताओं में कल्पनाशक्ति के बजाए ज्ञान और स्मरणशक्ति का महत्व बढ़ जाने के कारण कल्पनाशक्ति के विकास का कोई प्रयास आरंभ ही नहीं हुआ।
हमारा विचारशील मस्तिष्क दो भागों में बंटा हुआ है। इसका पहला भाग तर्कशील है जो विश्लेषण और तुलना के बाद दो या अधिक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करता है और दूसरा भाग रचनात्मक है जो मानसिक चित्र गढ़ता है, अनुमान लगाता है और नये विचारों का सृजन करता है। तर्कशील मस्तिष्क और रचनात्मक मस्तिष्क कई मामलों में एक-सा कार्य करते हैं। दोनों ही विश्लेषण और संश्लेषण (जोड़ना, मिलाना) का कार्य करते हैं। तर्कशील मस्तिष्क तथ्यों का क्रमवार विभाजन करता है, उन्हें परखता है, तुलना करता है, कुछ को अस्वीकार कर देता है और कुछ को अपना लेता है और तब उन्हें सिलसिलेवार करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। रचनात्मक मस्तिष्क भी यह सब करता है पर कोई निर्णय देने के बजाए किसी नये विचार को जन्म देता है। तर्कशील मस्तिष्क उपलब्ध तथ्यों का विश्लेषण करता है जबकि रचनात्मक मस्तिष्क कल्पनाशक्ति के सहारे अज्ञात में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है तथा कुछ नया कर दिखाता है। तर्कशील मस्तिष्क का कार्य मुख्यत: ऋणात्मक है। ‘‘अरे, इसमें तो यह दोष है’’, ‘‘नहीं, नहीं, यह नहीं चलेगा’’ आदि-आदि तर्कशील मस्तिष्क की उपज हैं, जबकि रचनात्मक मस्तिष्क को मुख्यत: सृजनात्मक कार्य करने होते हैं। वह आशावादी और उत्साहपूर्ण होता है, इसीलिए वह नये विचारों का सृजन कर पाता है। रचनात्मक मस्तिष्क बुरी से बुरी स्थिति में भी आशा की किरणें खोजता है जबकि तर्कशील मस्तिष्क हर योजना में कमियां ढूंढ़ता है।
कल्पनाशक्ति की उड़ान ही हमें स्वप्न की दुनिया को जीवन में उतारने को प्रेरित करती है। इनमें से कई विचार तो प्रथम दृष्टि में ही असंभव लगते हैं, लेकिन बाद में उन्हें भी वास्तविकता में बदलना संभव हो जाता है। इस प्रकार जो कभी कल्पना था, बाद में वह वास्तविकता बन सकती है। यह देखना आवश्यक है कि हमारा तर्कशील मस्तिष्क हमारे रचनात्मक मस्तिष्क में उपजने वाले विचारों की भ्रूण हत्या न कर दे। यह एक अकाट्य सत्य है कि लगभग हर नये विचार को तुरंत तर्कसंगत ढंग से गलत सिद्ध किया जा सकता है। कई बार तो ये तर्क इतने पुख्ता लगते हैं कि व्यक्ति अपनी योजना को सिरे से ही त्याग देता है, अत: यह आवश्यक है कि विचारों को तुरंत ठीक और गलत या संभव और असंभव की कसौटी पर परखना आरंभ कर देने से पहले उसे कुछ और परिपक्व हो लेने देना चाहिए।
स्मरणशक्ति एक मशीनी अंदाज का काम है। एक विषय को बार-बार दोहराते रहने से वह हमें याद हो जाता है। इसी प्रकार एक कार्य को बार-बार दोहराने से हमें उसका अभ्यास हो जाता है। कल्पनाशक्ति किसी विषय को दोहराते समय भी उसे दोहराने या याद करने के बेहतर और आसान तरीके खोज निकालती है। क्विज कार्यक्रमों में भाग लेने वाले अथवा परीक्षाओं में बढ़िया अंक लेने वाले बच्चों की स्मरणशक्ति तो बेहतर हो सकती है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनकी कल्पनाशक्ति भी वैसी ही विकसित हो। कक्षा में कमजोर रहने वाले विद्यार्थी भी कल्पनाशील हो सकते हैं।
कल्पनाशक्ति का प्रयोग एक रचनात्मक क्रिया है और कल्पनाशक्ति एक रचनात्मक, सृजनात्मक शक्ति है। कल्पनाशक्ति का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में बखूबी हो सकता है। घर या दफ्तर की छोटी-छोटी समस्याओं से लेकर देश अथवा विश्व की बड़ी से बड़ी समस्या तक के हल में कल्पनाशक्ति का प्रयोग संभव है। प्रथम विश्व युद्ध के समय टॉमस एडिसन को उनके देश की सरकार ने किसानों के अनाज की बरबादी बचाने के तरीके सोचने के लिए कहा और एडिसन के ही सुझावों का फल था कि सदाबहार भंडारण-गृहों का विचार कार्यान्वित हो सका। इसी प्रकार यदि रचनात्मक लोगों को देश की समस्याओं का हल खोजने का कार्य सौंपा जाए तो देश की अधिकांश समस्याओं का सार्थक समाधान संभव है।
‘‘वाओ हैपीनेस’’ की ट्रेनिंग में मैं यही सिखाता हूं कि किसी भी समस्या से दो-चार होने पर अपने आसपास नजर दौड़ाइए। यह जानने का प्रयत्न कीजिए कि कितने लोगों को वैसी या उस जैसी समस्या से जूझना पड़ा, उन्होंने समस्या का समाधान कैसे किया, उन्हें क्या कठिनाइयां आईं, आदि-आदि। समस्या के बारे में खुद सोचिए, मित्रों और शुभचिंतकों से विचार-विमर्श कीजिए। एक-दो बार के प्रयत्न से ही आप समस्या का समाधान ढूंढ़ लेंगे।
इस सारे विवेचन का उद्देश्य सिर्फ एक ही है, और वह यह है कि आप जिस प्रकार रोजमर्रा की समस्याओं से जूझने के लिए अपनी तर्क और विश्लेषण शक्ति का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करना भी आरंभ करें। एक बार आपने कल्पनाशक्ति का योजनाबद्ध प्रयोग आरंभ कर दिया तो आपको इसके लाभ मिलने आरंभ हो जाएंगे और सफलता कुछ और आसान हो जाएगी।
“दि हैपीनेस गुरू” के नाम से विख्यात, पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।
कहा जाता है कि ज्ञान शक्ति है, पर क्या आप जानते हैं कि यह एक अधूरा सच है। ज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। ज्ञान, शक्ति में तभी परिवर्तित होता है जब इसे प्रयोग में लाया जाए। यही नहीं, जब इसे रचनात्मक ढंग से काम में लाया जाए तो यह एक बड़ी शक्ति बन जाता है। ज्ञान के रचनात्मक प्रयोग में कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है। रचनात्मक कल्पनाशक्ति का विकास उसी तरह संभव है जैसे हम तैरना, पढ़ना या चित्र बनाना सीखते हैं। वस्तुत: लगभग हर कला को वैज्ञानिक विधि से सीखा जा सकता है। कला और विज्ञान के इस संगम ने ही मानव की अपरिमित ऊँचाइयों तक पहुंचाया है।
कल्पनाशक्ति के विकास के लिए बुद्धिमत्ता, ज्ञान अथवा अनुभव की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती। जान पर आ बनी हो तो हमारी कल्पनाशक्ति ज्यादा मुखर हो जाती है। एक मनोवैज्ञानिक ने इसे एक बार सिद्ध कर दिखाया। उन्होंने एक विशाल भवन की बारहवीं मंजिल के एक कमरे में बैठे लोगों से प्रश्न किया, ‘‘यदि अभी भूकंप आ जाए और यह भवन दो मिनट में गिरने वाला हो तो आप क्या करेंगे?’’ अधिकांश लोग कोई सार्थक हल सुझा पाने में असमर्थ रहे। इसके बाद वे साथ के कमरे में गये और वहां बैठे लोगों से इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में उनका एक सहायक बदहवास हालत में वहां भागता आया और बोला कि भूकंप आ गया है, सारा भवन गिर रहा है। उनके सहायक का अभिनय इतना शानदार था कि कमरे में मौजूद लोगों को सहज ही उसकी बात पर विश्वास हो गया। दो मिनट के भीतर कमरे में मौजूद सभी लोग भवन से बाहर थे। कोई सीढ़ियों से उतरा, पाइप से लटका या खिड़की से कूदा, पर सभी भवन से बाहर आ गये ! जीवन को खतरे में जानकर कल्पनाशक्ति मुखर हुई और हर कोई जान बचाने की जुगत में जुट गया।
इस प्रयोग से सिद्ध हो गया कि कल्पनाशक्ति कई तरह के चमत्कार कर सकती है। कल्पनाशक्ति का प्रयोग करते रहने वाले व्यक्ति की कल्पना बढ़ती उम्र के साथ अधिक मुखर और परिपक्व हो जाती है। खेद का विषय है कि हमारी शिक्षा पद्धति में केवल स्मरणशक्ति के प्रयोग पर अनावश्यक बल देकर कल्पनाशक्ति के विकास पर कुठाराघात किया है। विभिन्न परीक्षाओं एवं प्रतियोगिताओं में कल्पनाशक्ति के बजाए ज्ञान और स्मरणशक्ति का महत्व बढ़ जाने के कारण कल्पनाशक्ति के विकास का कोई प्रयास आरंभ ही नहीं हुआ।
हमारा विचारशील मस्तिष्क दो भागों में बंटा हुआ है। इसका पहला भाग तर्कशील है जो विश्लेषण और तुलना के बाद दो या अधिक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करता है और दूसरा भाग रचनात्मक है जो मानसिक चित्र गढ़ता है, अनुमान लगाता है और नये विचारों का सृजन करता है। तर्कशील मस्तिष्क और रचनात्मक मस्तिष्क कई मामलों में एक-सा कार्य करते हैं। दोनों ही विश्लेषण और संश्लेषण (जोड़ना, मिलाना) का कार्य करते हैं। तर्कशील मस्तिष्क तथ्यों का क्रमवार विभाजन करता है, उन्हें परखता है, तुलना करता है, कुछ को अस्वीकार कर देता है और कुछ को अपना लेता है और तब उन्हें सिलसिलेवार करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। रचनात्मक मस्तिष्क भी यह सब करता है पर कोई निर्णय देने के बजाए किसी नये विचार को जन्म देता है। तर्कशील मस्तिष्क उपलब्ध तथ्यों का विश्लेषण करता है जबकि रचनात्मक मस्तिष्क कल्पनाशक्ति के सहारे अज्ञात में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है तथा कुछ नया कर दिखाता है। तर्कशील मस्तिष्क का कार्य मुख्यत: ऋणात्मक है। ‘‘अरे, इसमें तो यह दोष है’’, ‘‘नहीं, नहीं, यह नहीं चलेगा’’ आदि-आदि तर्कशील मस्तिष्क की उपज हैं, जबकि रचनात्मक मस्तिष्क को मुख्यत: सृजनात्मक कार्य करने होते हैं। वह आशावादी और उत्साहपूर्ण होता है, इसीलिए वह नये विचारों का सृजन कर पाता है। रचनात्मक मस्तिष्क बुरी से बुरी स्थिति में भी आशा की किरणें खोजता है जबकि तर्कशील मस्तिष्क हर योजना में कमियां ढूंढ़ता है।
कल्पनाशक्ति की उड़ान ही हमें स्वप्न की दुनिया को जीवन में उतारने को प्रेरित करती है। इनमें से कई विचार तो प्रथम दृष्टि में ही असंभव लगते हैं, लेकिन बाद में उन्हें भी वास्तविकता में बदलना संभव हो जाता है। इस प्रकार जो कभी कल्पना था, बाद में वह वास्तविकता बन सकती है। यह देखना आवश्यक है कि हमारा तर्कशील मस्तिष्क हमारे रचनात्मक मस्तिष्क में उपजने वाले विचारों की भ्रूण हत्या न कर दे। यह एक अकाट्य सत्य है कि लगभग हर नये विचार को तुरंत तर्कसंगत ढंग से गलत सिद्ध किया जा सकता है। कई बार तो ये तर्क इतने पुख्ता लगते हैं कि व्यक्ति अपनी योजना को सिरे से ही त्याग देता है, अत: यह आवश्यक है कि विचारों को तुरंत ठीक और गलत या संभव और असंभव की कसौटी पर परखना आरंभ कर देने से पहले उसे कुछ और परिपक्व हो लेने देना चाहिए।
स्मरणशक्ति एक मशीनी अंदाज का काम है। एक विषय को बार-बार दोहराते रहने से वह हमें याद हो जाता है। इसी प्रकार एक कार्य को बार-बार दोहराने से हमें उसका अभ्यास हो जाता है। कल्पनाशक्ति किसी विषय को दोहराते समय भी उसे दोहराने या याद करने के बेहतर और आसान तरीके खोज निकालती है। क्विज कार्यक्रमों में भाग लेने वाले अथवा परीक्षाओं में बढ़िया अंक लेने वाले बच्चों की स्मरणशक्ति तो बेहतर हो सकती है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनकी कल्पनाशक्ति भी वैसी ही विकसित हो। कक्षा में कमजोर रहने वाले विद्यार्थी भी कल्पनाशील हो सकते हैं।
कल्पनाशक्ति का प्रयोग एक रचनात्मक क्रिया है और कल्पनाशक्ति एक रचनात्मक, सृजनात्मक शक्ति है। कल्पनाशक्ति का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में बखूबी हो सकता है। घर या दफ्तर की छोटी-छोटी समस्याओं से लेकर देश अथवा विश्व की बड़ी से बड़ी समस्या तक के हल में कल्पनाशक्ति का प्रयोग संभव है। प्रथम विश्व युद्ध के समय टॉमस एडिसन को उनके देश की सरकार ने किसानों के अनाज की बरबादी बचाने के तरीके सोचने के लिए कहा और एडिसन के ही सुझावों का फल था कि सदाबहार भंडारण-गृहों का विचार कार्यान्वित हो सका। इसी प्रकार यदि रचनात्मक लोगों को देश की समस्याओं का हल खोजने का कार्य सौंपा जाए तो देश की अधिकांश समस्याओं का सार्थक समाधान संभव है।
‘‘वाओ हैपीनेस’’ की ट्रेनिंग में मैं यही सिखाता हूं कि किसी भी समस्या से दो-चार होने पर अपने आसपास नजर दौड़ाइए। यह जानने का प्रयत्न कीजिए कि कितने लोगों को वैसी या उस जैसी समस्या से जूझना पड़ा, उन्होंने समस्या का समाधान कैसे किया, उन्हें क्या कठिनाइयां आईं, आदि-आदि। समस्या के बारे में खुद सोचिए, मित्रों और शुभचिंतकों से विचार-विमर्श कीजिए। एक-दो बार के प्रयत्न से ही आप समस्या का समाधान ढूंढ़ लेंगे।
इस सारे विवेचन का उद्देश्य सिर्फ एक ही है, और वह यह है कि आप जिस प्रकार रोजमर्रा की समस्याओं से जूझने के लिए अपनी तर्क और विश्लेषण शक्ति का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करना भी आरंभ करें। एक बार आपने कल्पनाशक्ति का योजनाबद्ध प्रयोग आरंभ कर दिया तो आपको इसके लाभ मिलने आरंभ हो जाएंगे और सफलता कुछ और आसान हो जाएगी।
“दि हैपीनेस गुरू” के नाम से विख्यात, पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।
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