8.5.20

माननीय रहने तक बोले नहीं, तो अब इलहाम कैसे हुआ!


Nand kishor Pareek

राजकीय सेवाकाल से निवृत्त होना सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन कई दूरद्रष्टा इसे खास बना देते हैं, जैसे कि माननीय उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति श्रीमंत दीपक जी गुप्ता साहेब ने किया।


सेवानिवृत्त के ठीक बाद बीती बुद्ध पूर्णिमा पर देश ने ''शलाका पुरुष'' रूप में उनके नए जन्म को देखा।

अंतिम दिन वर्चुअल विदाई भाषण में उन्होंने हम सब की ''विश्वास पीठ'' यानि न्यायपालिका पर बिना वक़्त गंवाए एक तीखी टिप्पणी की, जिसे मीडिया के माध्यम से हम सब देख चुके हैं।

श्रीमंत गुप्ता साहेब ने देश के 130 करोड़ भारतीयों की भावना से जुड़ी इस ''अति विशिष्ट पीठ'' का कथित रूप से मान - मर्दन करने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई।

जबकि वही न्यायपालिका सेवाकाल की निर्धारित समयावधि तक उनकी अपनी जीविकोपार्जन का भी एकमात्र जरिया एवं गरिमामय पेशा रही है।

अपनी तल्ख एवं असामयिक टिप्पणी में उन्होंने कहा, कि अमीरों की मुठ्ठी में कैद है, कानून और न्याय व्यवस्था।यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया।

और सोचने लगा, कि "माननीय" रहते हुए श्रीमंत गुप्ता साहेब अंतर्मन से कितने अधिक भरे हुए थे ?

उनकी अधीरता का पैमाना इतना अधिक छलक रहा था, कि उन्होंने देश को कोविड
- 19 की अति - गंभीर स्थिति से बाहर निकलने तक का समय नहीं दिया।

तब के ''माननीय'' से अब के "श्रीमंत" गुप्ता जी को सादर प्रणाम करते हुए उन्हीं से जानने की उत्कंठा है, कि माननीय उच्चतम न्यायालय की दहलीज लांघने के तत्क्षण आखिर यह ''इलहाम'' कैसे हुआ ? 

बुद्ध पूर्णिमा के पवित्र दिन ही आपश्री द्वारा प्रतिपादित इस टिप्पणी अर्थात अलौकिक ज्ञान का क्या मन्तव्य है ?

मान लेते हैं, कि आप सही बोले, लेकिन क्या आप यह बात किताब लिखकर एकाध वर्ष बाद जाहिर नहीं कर सकते थे ?

विंनंति करता हूं कि फिलहाल आप तनिक विस्तार से समझा दें, ताकि देश की निर्बल अति अल्प ज्ञानी जनता और हम जैसे बेसुध, नाचीज, दुर्बल, दुर्बुद्धि, तुच्छ प्राणी खुद को इस मायावी भवसागर से बाहर निकाल सकें।

प्रश्न यह है, कि आप श्रीमंतगण माननीय उच्चतम न्यायालय में ''मी - लॉर्ड'' की कुर्सी पर पदासीन रहते हुए अपनी कार्यशैली अथवा अभिव्यक्ति का दुस्साहस आखिर क्यों नहीं करते ?

उच्चस्थ पदों से आखिर यह नए प्रकार की रवायत क्यों चल निकली ? कहीं ऐसा तो नहीं है, कि आपका यह बयान नई पारी का संकेत हो ? यथा - राजनीति, जिसे आज की जीवन शैली में '' समाज सेवा '' भी कहा जाता है।

कदाचित यह राजकीय सेवाकाल बाद "श्रीमंत समाज" की ओर से प्रदत्त किया जाने वाला ''हाई प्रोफाइल बॉन्ड" है, जिसे पाने की इच्छाशक्ति लिए अनेकानेक के पहुंचने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

कहीं आप भी उसी नक्शे कदम पर तो नहीं हैं, जिस पर कुछ दिन पहले माननीय से श्रीमंत हुए रंजन गोगोई साहेब चल पड़े ?

वर्चुअल साथी थोड़ा गंभीरता से याद करें, श्रीमंत रंजन जी गोगोई साहेब का सेवा कार्यकाल विगत दिनांक 17 नवम्बर 2019 को समाप्त हुआ था।

उससे मात्र 05 माह की कम समयावधि में ही, इन्होंने दिनांक 19 मार्च 2020 को अति विशिष्ट हाउस राज्य सभा में जाने का मार्ग बनाकर बतौर सांसद शपथ ग्रहण कर ली।

थोडी देर के लिए हम यह स्वीकार भी कर लें, कि निर्धारित राजकीय सेवाकाल पूर्ण करके या स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति उपरांत कोई न्यायाधीश, आईएएस, आईपीएस, आईएफएस सहित किसी भी सेवा क्षेत्र का अधिकारी या कर्मचारी प्रचलित समाज सेवा एवं राजनीति में नई पारी आरम्भ करना चाहता है।

लेकिन इन सुसभ्य एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों को यह इजाजत कतई नहीं दी जानी चाहिए, कि वह अपने पैतृक सेवा अनुभाग के मस्तक पर आखिरी दिन की दहलीज पार करते हुए कथित बदनामी का टीका लगा दें।

या कि उस विभाग की अंदरूनी व्यवस्था एवं कार्य प्रणाली को बिना किसी जांच - पड़ताल अथवा विधिसम्मत निष्कर्ष के सार्वजनिक रूप से जाहिर कर दें।

क्या यह बात उस जिम्मेदार एवं सभ्य व्यक्ति की राजकीय सेवा अनुबंध का हिस्सा नहीं है ? यह किस तरह की छूट हो गई, कि हर कोई इधर से सरकारी नौकर छोड़ते ही सर्वमान्य आचार संहिता गढ़ने की जुगत लगाने लग गया ?

क्या इनके भीतर हिलोर लेती सर्वकल्याण की भावना सेवाकाल की अवधि में सोयी रहती है ?

क्या माननीय उच्चतम न्यायालय को इस पर स्वप्रेरणा से संज्ञान नहीं लेना चाहिए ?

 Nand kishor pareek

No comments:

Post a Comment