वैसे तो दिल्ली, नोएडा के अलावा कई शहरों में मीडिया हाउस मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाल रहे हैं पर छत्तीसगढ़ में चार महीने में अखबारों से चार महीने में 90 मीडियाकर्मियों के निकाले जाने की सूचना है। ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में ही ऐसा हाल है। देश के लगभग हर राज्य का यही हाल है। यदि मौजूदा हालात की बात करें तो आज की तारीख में वैसे हर क्षेत्र के लोग परेशान हैं पर मीडिया क्षेत्र पर जो आफत आई है वह किसी से छिपी नहीं हुई है। यदि कोई मीडियाकर्मी अभी भी गलत फहमी में घूम रहा है तो वह खुद अपने को ही धोखा दे रहा है।
ऐसा भी नहीं है कि लॉक डाउन के बाद मीडिया हाउस कंगाल हो गये हों । हां मक्कारी में महारत में हासिल करने वाले मीडिया हाउसों के मालिकान को लॉकहाउन का बहाना मिल गया है मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकालने का। मीडिया ऐसा क्षेत्र बन चुका है, जिसमें कर्मचारियों के दुश्मन मालिकान कम और अधिकारी ज्यादा हैं। मालिकों के जूते साफ-साफ कर मैनजरों से संपादक बने आज के बड़के पत्रकारों ने देश और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा लेकर मीडिया के क्षेत्र में आये युवकों को गुलाम बनाकर रख दिया है। इसी का फायदा ये अधिकारी और मालिकान उठा रहे हैं।
जब मजीठिया वेज बोर्ड की मांग उठाने वाले मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाला गया तो ये सभी संपादक और मीडियाकर्मी थे जिन्हें सांप सूंघ गया था। सहारा मीडिया में तो मीडियाकर्मियों को निकालने के समय कई महीने का वेतन भी बकाया था। दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, नव भारत टाइम्स, भास्कर के अलावा काफी अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़े मीडियाकर्मी विषय परिस्थितियों में भी अपने हक की आवाज बुलंद करते रहे हैं। हां देश में मीडियाकर्मियों के मान-सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले अनगिनत प्रेस क्लब खुले हुए हैं। प्रेस परिषद भी पर ये सभी मौजूदा हालत में बेकार साबित हो रहे हैं। आज जो भी साथी निकाले जा रहे हैं या जिन पर निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है, इन सभी को हिम्मत रखका अपने हक की आवाज बुलंद करनी होगी।
साढ़े चार साल से हम लोग भी तो लड़ रहे हैं भाई। हक के लिए लड़ना ही चाहिए। कायरता के साथ आत्महत्या करने के बजाय लड़ते-लड़ते दम तोड़ना ज्यादा सम्मानजनक होता है। मैं मानता हूं कि आज की तारीख में विरोध का मतलब नौकरी जाना है पर साथियों यदि विरोध नहीं होगा तो ये मालिकान और अधिकारी ऐसे ही साथियों की नौकरी लेते रहेंगें। बड़ी पीड़ा होती है कि जब सुनने में आता है कि फला मीडियाकर्मी ने आर्थिक तंगे के चलते आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करना तो कायरता है। लड़ो हालात से। हक के लिए लड़ना ही एक मजबूत व्यक्ति की पहचान है। हां मैं यह जरूर कहूंगा कि जिन लोगों को मीडियाकर्मियों के हित में मोदी या योगी सरकार से कुछ उम्मीद है वह यह उम्मीद न पालें। मोदी सरकार में ही प्रिंट मीडिया मालिकान को सुप्रीम कोर्ट से अवमानना के मामले में राहत मिली है। उत्तर प्रदेश के लेबर कोर्ट का क्या हाल है यह किसी से छिपा नहीं है। देश में मीडियाकर्मियों के सामने दो दो ही विकल्प हैं। एक तो प्रबंधन के सामने हद से ज्यादा झुककर तमाम बीमारियों को पालते हुए विभिन्न बीमारियों से ग्रसित होकर काम करते रहो। या फिर एकजुट होकर हो रहे इस अन्याय का विरोध करें।
CHARAN SINGH RAJPUT
ऐसा भी नहीं है कि लॉक डाउन के बाद मीडिया हाउस कंगाल हो गये हों । हां मक्कारी में महारत में हासिल करने वाले मीडिया हाउसों के मालिकान को लॉकहाउन का बहाना मिल गया है मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकालने का। मीडिया ऐसा क्षेत्र बन चुका है, जिसमें कर्मचारियों के दुश्मन मालिकान कम और अधिकारी ज्यादा हैं। मालिकों के जूते साफ-साफ कर मैनजरों से संपादक बने आज के बड़के पत्रकारों ने देश और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा लेकर मीडिया के क्षेत्र में आये युवकों को गुलाम बनाकर रख दिया है। इसी का फायदा ये अधिकारी और मालिकान उठा रहे हैं।
जब मजीठिया वेज बोर्ड की मांग उठाने वाले मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाला गया तो ये सभी संपादक और मीडियाकर्मी थे जिन्हें सांप सूंघ गया था। सहारा मीडिया में तो मीडियाकर्मियों को निकालने के समय कई महीने का वेतन भी बकाया था। दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, नव भारत टाइम्स, भास्कर के अलावा काफी अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़े मीडियाकर्मी विषय परिस्थितियों में भी अपने हक की आवाज बुलंद करते रहे हैं। हां देश में मीडियाकर्मियों के मान-सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले अनगिनत प्रेस क्लब खुले हुए हैं। प्रेस परिषद भी पर ये सभी मौजूदा हालत में बेकार साबित हो रहे हैं। आज जो भी साथी निकाले जा रहे हैं या जिन पर निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है, इन सभी को हिम्मत रखका अपने हक की आवाज बुलंद करनी होगी।
साढ़े चार साल से हम लोग भी तो लड़ रहे हैं भाई। हक के लिए लड़ना ही चाहिए। कायरता के साथ आत्महत्या करने के बजाय लड़ते-लड़ते दम तोड़ना ज्यादा सम्मानजनक होता है। मैं मानता हूं कि आज की तारीख में विरोध का मतलब नौकरी जाना है पर साथियों यदि विरोध नहीं होगा तो ये मालिकान और अधिकारी ऐसे ही साथियों की नौकरी लेते रहेंगें। बड़ी पीड़ा होती है कि जब सुनने में आता है कि फला मीडियाकर्मी ने आर्थिक तंगे के चलते आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करना तो कायरता है। लड़ो हालात से। हक के लिए लड़ना ही एक मजबूत व्यक्ति की पहचान है। हां मैं यह जरूर कहूंगा कि जिन लोगों को मीडियाकर्मियों के हित में मोदी या योगी सरकार से कुछ उम्मीद है वह यह उम्मीद न पालें। मोदी सरकार में ही प्रिंट मीडिया मालिकान को सुप्रीम कोर्ट से अवमानना के मामले में राहत मिली है। उत्तर प्रदेश के लेबर कोर्ट का क्या हाल है यह किसी से छिपा नहीं है। देश में मीडियाकर्मियों के सामने दो दो ही विकल्प हैं। एक तो प्रबंधन के सामने हद से ज्यादा झुककर तमाम बीमारियों को पालते हुए विभिन्न बीमारियों से ग्रसित होकर काम करते रहो। या फिर एकजुट होकर हो रहे इस अन्याय का विरोध करें।
CHARAN SINGH RAJPUT
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