9.7.20

भाजपा-कांग्रेस की सियासी जंग से अखिलेश पशोपेश में


अजय कुमार, लखनऊ

लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव मार्च 2022 में प्रस्तावित हैं। चुनावों  में अभी करीब पौने दो साल का समय बाकी है, लेकिन विपक्षी दलों के नेताओं की तीखी बयानबाजी से प्रदेश की सियासी गर्मी अभी से बढ़ा दी है। कांगे्रस महासचिव प्रियंका वाड्रा  पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के समय से ‘मिशन 2022’ की तैयारी में जुटी हुई हैं। वहीं समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव को इस बात का गुमान है कि कांगे्रस जितनी भी मेहनत कर लें 2022 के विधान सभा में मुकाबला तो भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच ही होना है। अखिलेश के विश्वास की वजह पिछले वर्ष हुए विधान सभा के उप-चुनाव के नतीजें हैं, जिसमें सपा का प्रदर्शन तो बेहतर रहा था,वहीं भाजपा को एक सीट पर नुकसान उठाना पड़ा था,जबकि कांगे्रस और बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था।

बीते वर्ष उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी गठबंबधन को एक सीट का नुकसान हुआ था। भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा की सात सीटों पर कमल खिलाया है, वहीं सहयोगी पार्टी अपना दल के प्रत्याशी राजकुमार पटेल चुनाव जीतने में सफल रहे थे।  उपचुनाव में कांग्रेस और बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। वहीं सपा ने बसपा से उसकी जलालपुर सीट छीन ली थी। इसके अलावा ने रामपुर की सीट बरकरार रखी है, वहीं जैदपुर सीट बीजेपी से छीन ली थी।

इसी वजह से कांगे्रस महासचिव प्रियंका वाड्रा की अति सक्रियता को अनदेखा करते हुए सपा प्रमुख को यही लगता है कि कांगे्रस 2022 विधान सभा चुनाव के मुकाबले में कहीं नजर नहीं आएगी। 2017 के विधान सभा चुनाव में जिन अखिलेश यादव ने राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांगे्रस पर भरोसा जताते हुए उसके साथ मिलकर विधान सभा चुनाव लड़ा था, उन्हीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश कांगे्रस का नेतृत्व करने वाली प्रियंका पर जरा भी ऐतबार नहीं है।

सपा नेता अखिलेश द्वारा गत दिनों मीडिया से रूबरू होते समय जो बातें कहीं गईं उसका सार यही था कि प्रियंका को यूपी के सियासी मोर्चे पर अग्रणी दिखाकर भारतीय जनता पार्टी ‘एक तीर से कई निशाने’ करना चाहती है। एक तरफ भाजपा, समाजवादी पार्टी की ‘ताकत’ को लेकर मतदाताओं में भ्रम पैदा करना चाहती है तो दूसरी ओर इसी भ्रम के सहारे वह कांग्रेस को गठबंधन की सियासत से पूरी तरह से अलग-थलग कर देना चाहती है। क्योंकि कांगे्रस को जब इस बात का भ्रम हो जाएगा कि वह यूपी में मजबूत स्थिति में  है तो फिर उससे कोई दल जमीनी हकीकत को देखते हुए समझौता नहीं कर पाएगा, ऐसे में तमाम विधान सभा सीटों पर त्रिकोणीय या चतुकोणीय मुकाबला होगा, जिसका सीधा फायदा भाजपा के प्रत्याशियों को मिलेगा।

खैर, यह सिक्के का एक पहलू है। अखिलेश यादव भले ही अभी इस बात से इंकार कर रहे हैं कि उनकी पार्टी 2022 के विधान सभा चुनाव में बसपा-कांगे्रस के साथ किसी तरह का चुनावी गठबंधन करेगी, लेकिन राजनीति में जो कहा जाता है, वह अक्सर होता नहीं है और जो होता है,वह कहा नहीं जाता है। सपा प्रमुख की तरह ही बसपा सुप्रीमों मायावती भी ‘एकला चलो’ की बात कर रही हैं। वैसे मायावती और प्रियंका वाड्रा के बीच जिस तरह का  आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है, उससे नहीं लगता है कि बसपा-कांगे्रस कभी एक मंच पर  आएंगे। ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी दोनों दलों के बीच काफी अनबन देखी गई थी। माया के चलते ही कांगे्रस, सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाई थी और कांगे्रस को अकेले चुनाव लड़ना पड़ा था। नतीजे आने के बाद कांगे्रस की काफी फजीहत हुई थी। कांगे्रस मात्र सोनिया गांधी की एक सीट बचा पाईं थीं, राहुल गांधी तक को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था।

बहरहाल, अखिलेश यादव का एक साक्षात्कार के दौरान यह कहना कि काफी तर्कसंगत लगता है कि राजनीति मेें कल क्या होगा कोई नहीं जानता। सब सत्ता तक पहंुचना चाहते हैं लेकिन, फैसला जनता करती है। इसके साथ अखिलेश यह भी कहते हैं कि भाजपा को पता है की उसकी असली लड़ाई किससे है। इसलिए उसकी इस चाल को समझना होगा कि कि किसे जवाब देकर सामने खड़ा किया जा रहा है। भ्रम फेलाना ही भाजपा की रणनीति है। लेकिन, उम्मीद है कि जनता समाजवादियों को काम देखते हुए हमें मौका देगी। साथ ही अखिलेश अपनी बुआ का नाम लिए बिना यह भी तंज कसते हैं कि जो भी विपक्ष में हैं उन्हें सरकार को एक्सपोज करना चाहिए। अखिलेश ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि पिछले कुछ समय से मायावती, मोदी-योगी सरकार को लेकर काफी पाॅजिटिव दिख रही हैं।

दावों-प्रतिदावों के बीच  कौन कितने पानी में है। इसकी बानगी राज्य के उप विधान सभा चुनाव में देखने को मिल सकती है। इस समय प्रदेश में दो विधायकों की सदस्यता रद्द होने के चलते तो एक सीट विधायक के निधन के चलते खाली हुई है। इस तरह से सूबे की तीन विधानसभा सीटें रिक्त हो गई हैं, जिनमें से दो सीटें बीजेपी के कब्जे में थीं तो एक सीट पर सपा का कब्जा था। इन तीन विधानसभा सीटों में से कुलदीप सिंह सेंगर और अब्दुल्ला आजम खान की सदस्यता रद्द होने के चलते खाली हुई हैं तो एक विधानसभा सीट विधायक देवेंद्र सिंह सिरोही के निधन हो जाने के चलते रिक्त हुई थी, हालांकि चुनाव आयोग ने अभी तक इन सीटों पर उप-चुनाव का ऐलान नहीं किया है।

लब्बोलुआब यह है कि भारतीय जनता पार्टी नेता सोची-समझी रणनीति के अनुसार ही समाजवादी पार्टी को अनदेखा करके कांगे्रस पर हमलावर हो रहे हैं। भाजपा ऐसा दर्शाना चाहती है कि मानों 2022 के विधान सभा चुनाव में उसका मुकाबला सपा से नहीं कांगे्रस के साथ होगा। भाजपा के ऐसा करने से समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटरों में भ्रम पैदा होगा। अगर मुस्लिम मतदाताओं को लगने लगेगा कि मुकाबला कांगे्रस बनाम भाजपा का है तो वह समाजवादी पार्टी का दामन छोड़कर कांगे्रस की तरह मुंह मोड़ सकते हैं। यह भी हो सकता है कि मुस्लिमों का पूरा वोट बैंक कांगे्रस की तरफ ट्रांसर्फर न होकर कुछ प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव कांगे्रस की तरफ हो जाए। वैस प्रियंका स्वयं भी दलितों और मुसलमानों को लुभाने के लिए एड़़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं।

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