29.7.20

भय, आशा और आत्मविश्वास

पी. के. खुराना

कहते हैं कि डर और आशा का मिश्रण बड़ा खतरनाक और कारगर होता है। यह बड़ा विरोधाभासी कथ्य है और इसे ध्यान से समझने की आवश्यकता है। आशा के होते हुए भी अगर डर बना रहे तो आदमी आधे-अधूरे मन से कार्य करता है और अपनी असफलता की गारंटी कर लेता है। डर हमारे आत्मविश्वास को हर लेता है और हम नकारा हो कर रह जाते हैं। यदि हम सिक्के के दूसरे पहलू पर दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि डर के बावजूद हम आशा का दामन थामे रहें तो डर जाता रहेगा अथवा कम हो जाएगा। आशा का दामन थामे रहने से आत्मविश्वास डिगेगा नहीं और हम पूरे मनोयोग से कार्य करेंगे तथा अपनी सफलता सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयत्न करेंगे।

आशा के साथ थोड़ा डर मिला होने पर हम चौकन्ने रहते हैं और अति-विश्वास के कारण की जाने वाली गलतियों से बचे रहते हैं। आशा में भय का मिश्रण वस्तुत: हमारे लाभ में जा सकता है। भय और आशा का यह मिश्रण बड़ा कारगर साबित हो सकता है बशर्ते कि हम भयाक्रांत ही न हो जाएं। भय हमें सावधान करता है, भय हमें अनावश्यक जल्दी में गलत निर्णय लेने से बचाता है, भय हमें अपनी खूबियों और खामियों तथा अपने साधनों और स्रोतों का सांगोपांग विश्लेषण करने को बाध्य करता है। आम स्थितियों में हम जिन बातों को नजरअंदाज कर जाते, भय हमें उनसे खबरदार रहने की अक्ल देता है। भय एक नकारात्मक घटक है परंतु बुद्धिमान और विवेकी लोगों के जीवन में भय बड़े काम की चीज है। भय और आशा के मिश्रण में भय की इस भूमिका को समझने की आवश्यकता है। यदि हम भय की इन खूबियों को समझ लें तो हम भय से पार पाकर भय का लाभ ले सकेंगे। तब हमारा मन आत्मविश्वास से भर जाएगा और जी-जान से अपनी सफलता के लिए कार्य करेंगे।

जीवन में कभी भी किसी भी स्थिति में भय का भान होने पर हमें यह सोचना चाहिए कि हम क्यों भयभीत हैं। भय के कारणों का विश्लेषण करने से हमें मालूम पड़ जाता है कि क्या करना हमारे लिए गलत साबित हो सकता है और क्या उपाय करके हम भय के कारकों से दूर रह सकते हैं। इस प्रकार भय का विश्लेषण करने से समस्या खुद-ब-खुद हल हो जाती है और भय का हल्का-सा भान हमारे लिए लाभदायक सिद्घ होता है।

भय का भान होने पर यदि हम यह विश्लेषण करें कि हमारे भय का कारण क्या है तो हम समस्या की जड़ तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। किसी भी समस्या को समझने का और उसका तोड़ निकालने का सबसे बढिय़ा तरीका यह होता है कि हम समस्या को चरणों में या टुकड़ों में बांट लें। इससे समस्या को समझना आसान हो जाएगा। इसके बाद हर टुकड़े का समाधान इस प्रकार से किया जाए कि वह पूरी समस्या के समाधान में आसानी से फिट हो जाता हो और समस्या के किसी अन्य हिस्से को इतना न बढ़ाता हो कि समाधान में ही एक नई समस्या जन्म ले ले। इस प्रक्रिया का लाभ यह है कि इस प्रकार हम न केवल केवल को समझ पाते हैं बल्कि उसका प्राभावी समाधान भी खोज लेते हैं। इस प्रक्रिया का दूसरा लाभ यह है कि इससे समस्याओं का समाधान ढूंढऩे के मामले में न केवल हमारा ज्ञान बढ़ता है बल्कि हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है और हमारी सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं।

समस्या का इस प्रकार से विश्लेषण करने की प्रक्रिया में हमारी जिज्ञासा जागृत होती है और हम मामले की गहराई में उतरते हैं। किसी समस्या के समाधान के लिए हम जितना गहराई में जाते हैं उतना ही उस समस्या को समझ पाने की समझ विकसित होती है और हमारा समाधान भी उतना ही प्रभावी होता है। तो समझने की बात यह है कि समस्या कोई समस्या नहीं है, बल्कि समस्या को लेकर हमारा दृष्टिकोण असली समस्या है। यानी, यदि हम समस्या को चुनौती के रूप में देखें और इसका विश्लेषण करके उसके समाधान का प्रयत्न करें तो समस्या दूर हो सकती है, लेकिन यदि समस्या से दो-चार होने पर हम चिंतित हो जाएं और समस्या को समझने के बजाए उदासी या चिंता को खुद पर हावी होने दें तो समस्या के समाधान में तो कोई सहायता नहीं मिली, हम हमने समय और सेहत का नुकसान अलग से कर लेते हैं। सफल और असफल व्यक्तियों में दृष्टिकोण का यही अंतर प्रमुख होता है।

जीवन कोई फूलों की सेज नहीं है। जीवन के रास्ते बड़े ऊबड़-खाबड़ हैं। हर रोज आप नये व्यक्तियों और नयी स्थितियों से दो-चार होते हैं। कभी आप को मनचाही सफलता मिल जाती है तो कभी परेशान कर देने वाली असफलता का मुख देखना पड़ जाता है। कभी आप पर सम्मान थोप दिया जाता है और कई बार बिना किसी दोष के भी आपको अपमान का घूंट पीकर चुप रह जाना पड़ता है। ऐसे में आप कितने संतुलित रहते हैं, आप कितनी कुशलता से स्थिति को संभालते हैं, अक्सर आपके भावी जीवन का दारोमदार इस पर ही निर्भर करता है। दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे कभी भी असफलता का मुख न देखना पड़ा हो। यानी, असफलता हमारे जीवन का एक अविभाज्य अंग है। जीवन भर हम कई निर्णय लेते हैं और कई काम करते हैं। कभी हम सफल होते हैं और कभी-कभार असफल भी हो जाते हैं। हर असफलता हमें कुछ हद तक निराश कर सकती है, लेकिन यदि असफलता को लेकर कुढऩ, चिंता और निराशा बढ़ जाए तो यह हताशा में बदल जाती है। हताश व्यक्ति का किसी काम में मन नहीं लगता, इसलिए वह कोई नया काम नहीं कर पाता और वह अपनी असफलता को स्थाई बनाकर हमेशा के लिए असफल हो जाता है। वहीं यदि हम असफलताओं से घबराये बिना असफलता के कारणों का विश्लेषण करें तो हम न केवल उन गलतियों का तोड़ निकालने की जुगत करते हैं बल्कि वे गलतियां हमें कोई नया सबक सिखा देती हैं। यदि हमारी मानसिकता धनात्मक हो, पाजि़टिव हो तो हमारी असफलताएं हमें नई सीख दे जाती हैं और यदि हमारा दृष्टिकोण ऋणात्मक हो, नेगेटिव हो तो हमारी असफलता पर पक्की मुहर लग जाती है।

दुर्भाग्यवश, हमारा माहौल ऐसा है कि असफल होने पर हमें लज्जित होना सिखाया जाता है और सफल होने पर खुश होना। सफलता के प्रति प्रेम जगाते समय हम यह भूल जाते हैं कि ऐसा असफलता के प्रति भय जगाए बिना भी किया जा सकता है। सफलता और असफलता के प्रति दृष्टिकोण का यही अंतर हमारे जीवन को परिभाषित करता है। स्थितियों से असंतुष्ट रहकर कुढ़ते रहना अथवा स्थितियों से असंतुष्ट होने पर उन्हें बदलने की जुगत में जुट जाना, यह हमारे नजरिये पर निर्भर करता है, इसलिए खुश रहना और उदास रहना भी हमारे अपने हाथ में है। आकाश में अथवा कहीं और कोई स्वर्ग या नरक नहीं हैं। स्वर्ग या नरक अगर कहीं हैं तो इसी धरती पर हैं और हमारे अपने बनाए हुए हैं। इस तथ्य को समझ लेंगे तो असफलता हमें डराएगी नहीं, बल्कि सफलता की सीढ़ी बन जाएगी। 

लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।

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