4.7.20

जीवन की सार्थकता


                                  पी. के. खुराना
भारतवर्ष आध्यात्मिक लोगों का देश है। यहां संतों-मुनियों की लंबी परंपरा रही है। आज भी संतों, महंतों, डेरों, गुरुओं और अन्य आध्यात्मिक लोगों की महत्ता बदस्तूर बनी हुई है और देश के मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों और चर्चों में आने वाले श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या इस बात का प्रमाण है कि आध्यात्मिकता में हमारा विश्वास लगातार कायम है। इस के बावजूद आम आदमी जीवन के संघर्ष से जूझता प्रतीत होता है। गरीब और अमीर समान रूप से दुखी हैं। जो व्यक्ति हमें बहुत सुखी नज़र आता है, उसके दुखों का पिटारा तब खुल जाता है जब हम उसके नज़दीक जाते हैं। यह कहावत सच ही है कि यदि सारी दुनिया के लोग किसी एक जगह पर इकट्ठे हो जाएं और अपने-अपने दुख और तकलीफें सबके सामने रखें और सबको यह सुविधा हो कि वह अपने दुखों का पिटारा किसी और के दुखों के पिटारे से बदल ले तो हर व्यक्ति अंतत: अपने दुखों और तकलीफों का पिटारा ही वापिस लेना पसंद करेगा। इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि दुनिया में आज भी बहुत से दुख और बहुत सी तकलीफें हैं और सारी आध्यात्मिकता और इतने सारे धर्मों के बावजूद हम सुखी नहीं है।

सवाल यह है कि आखिर जीवन की सार्थकता क्या है? हम क्या करें कि हमारा जीवन हंसी-खुशी से बीते? आखिरकार हमारे पास जीने के लिए केवल एक ही जीवन है। हमारी ऊर्जा सीमित है, शक्ति सीमित है, समय सीमित है, ऐसे में इस एक जीवन का भरपूर लाभ उठाने के लिए हम क्या करें? हम सब खुश रहना चाहते हैं और ऐसे काम करना चाहते हैं जिससे हमें प्रेम मिले, यश मिले और हमारे आसपास का वातावरण खुशगवार हो। हमारी यही इच्छा होती है कि हम अधिकाधिक मनचाहे काम कर सकें और जरूरी चीजें निपटा सकें। तो, सवाल उठता है कि हमारे लिए सार्थक क्या है? हम क्या करें और क्या छोड़ दें? जी हां, सुखी रहने के लिए यह समझना तो जरूरी है ही कि हम क्या करें, लेकिन उससे भी ज्य़ादा जरूरी यह जानना है कि हम क्या छोड़ दें। वस्तुत: हमारी खुशियों का पिटारा यही जानने में छुपा है कि हम क्या छोड़ दें। यह स्पष्ट है कि हम कुछ भी कर लें, हम पूरे जीवन को समेट नहीं सकते। कई काम अधूरे रह ही जाएंगे। इसलिए यह समझना जरूरी है कि अनिवार्य क्या है और अपने भले के लिए हम क्या छोड़ दें। तो आइये, इसका विवेचन करते हैं।
हमारे दुखों का बड़ा कारण यह है कि हमने अपने जीवन को बोझिल बना लिया है। आडंबर इतना बढ़ गया है कि वह खुद में एक परेशानी हो गया है। हम अमीर न हों तो भी अमीर दिखना चाहते हैं। अपने बच्चों के जन्मदिन पर भी हम उनके साथ बैठ कर समय बिताने के बजाए आर्चीज़ का कार्ड देने लग गए हैं। घर में फर्नीचर का दिखावा, कपड़ों का दिखावा, गाड़ी का दिखावा, उपहारों का दिखावा आदि कितने ही रोग पाल लिये हैं हमने। अमीरों की नकल करके हम और दुखी हो रहे हैं। यदि आपके पास साधन हैं, अगर ऐसे खर्च करना आपके बूते में है तो खुशी की बात है, पैसा है तो उसका आनंद लेना ही चाहिए, पर जहां पैसा सीमित है तो उसे दिखावों पर खर्च करने के बजाए अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए उपयोग करना ज्य़ादा हितकर है। गरीबी के दौर में भी मन की खुशी के लिए कभी-कभार मनोरंजन पर खर्च करना बुरा नहीं है, पर उसकी अति नहीं होनी चाहिए, वैसे ही जैसे कंजूसी की अति नहीं होनी चाहिए।
जीवन सांप-सीढ़ी का खेल है। कभी हम जीतते हैं तो कभी हमारी सारी सावधानियों और सारे प्रयत्नों के बावजूद कोई और बाजी मार ले जाता है। हम हमेशा ही जीतते या हारते नहीं रह सकते। ऐसे में अपनी हर हार पर यदि हम असंतुष्ट हो जाएं, खुद को गलत मान लें, साथियों अथवा परिवार के सदस्यों की नुक्ताचीनी करने लगें, तो हम हार के दुख से तो दुखी होंगे ही, उसके अलावा आपस में बहस बढ़ाकर हम कई नये दुखों को भी आमंत्रित करेंगे। असंतोष और असंतोष से उपजी चिंता हमें घुन की तरह खाती है अत: यह आवश्यक है कि दुखी होने के बजाए हम अपनी हार के कारणों का विश्लेषण करें और यह देखें कि उस हार को जीत में बदलने के लिए हम क्या कर सकते हैं या फिर उस हार से हुए नुकसान को कम करने के लिए क्या कर सकते हैं। जीवन के उतार-चढ़ाव जीवन की सच्चाइयां हैं। उन्हें समझने, उनका विश्लेषण करने, नई स्थितियों के अनुसार नई दिनचर्या तय करने में ही समझदारी है। इसमें कठिनाई तो होगी ही, जो अभाव बना है वह खलेगा भी, पर चूंकि उसे भरने का और कोई चारा नहीं है इसलिए हमें उस अभाव के साथ ही जीना सीखना होगा। यही जीवन का सच है। इसी तरह कभी हमारे साथ कोई अन्याय हो जाता है या हमसे कोई भूल हो जाती है तो जीवन के उन कमजोर क्षणों में धीरज रखकर कुछ समय गुजर जाने देना सदैव श्रेयष्कर होता है। कुछ समय के बाद जब मन निर्मल हो जाए, अपमान की चोट या अपराध बोध कुछ कम हो जाए तो यह सोचना चाहिए कि जीवन को संवारने के लिए अब क्या किया जाए। अपने साथ अन्याय होने पर खुद को कमजोर और असहाय मान लेना गलत है। अपमान में जलते रहकर मन पर बोझ डाले रखने से कुछ नहीं होता। इसके बजाए खुद को शक्तिशाली बनाकर योजनाबद्ध तरीके से अन्याय का प्रतिकार करना ही एकमात्र उपाय है। यदि भूलवश कुछ कदाचार हो जाए तो अपराध बोध से भरकर पछताने के बजाए उस कदाचार को भुलाकर जीवन में सदाचार उतार लेना ही सही हल है। एक भूल से सीख लेकर किसी दूसरी भूल से दूर रहने में ही बुद्धिमानी है।
हम हमेशा से यह पाठ पढ़ते आये हैं कि लालच बुरी बला है। कई बार हमारी महत्वाकांक्षा लालच में बदल जाती है। महत्वाकांक्षी होना गलत नहीं है, किसी भी चीज़ की अति होना गलत है। जब हम महत्वाकांक्षी हों और इस हद तक चले जाएं कि सारी संवेदनाएं, रिश्ते-नाते, दोस्तियां आदि भूल जाएं और सिर्फ अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाएं तो हो सकता है कि कुछ देर के लिए हम सफल हो जाएं, ज्यादा लाभ कमा लें, लेकिन उससे कई महत्वपूर्ण रिश्ते टूट जाएंगे, शुभचिंतक साथ छोड़ देंगे और दूरगामी लाभ से वंचित हो जाएंगे क्योंकि तब हमारे साथियों में हमारी छवि ऐसी बन जाएगी कि अपने स्वार्थ के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसे में हर रिश्ता सिर्फ स्वार्थ और जरूरत पर आधारित होगा और वह लंबे समय तक नहीं चलेगा।
हमारी आयु समय से मापी जाती है। हमारा जीवन एक-एक क्षण जोड़कर बनता है। समय की बर्बादी जीवन की बर्बादी है। गुजरा समय वापिस नहीं आ सकता। इसलिए उन्हीं कामों की ओर ध्यान दें जिन्हें करना आवश्यक है, लाभदायक है और सबके लिए मंगलकारी है। आडंबर, चिंता और लालच से बचना इसीलिए आवश्यक है। इसी में जीवन की सफलता और सार्थकता है।       

लेखक पी. के. खुराना हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।

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