सुधीर के बोल : विचारों के प्रवाह समय से भी अधिक गतिमान है, आपको दिनभर में कितने विचार आते है गिनती करना सम्भव नही। मन की चंचलता के कारण ऐसा होता है और मन पर भारत के मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा है।
सारे उपद्रव की शुरुआत मन से ही होती है और जगत कर्म या आचरण को बदलने में लगा हुआ है, उपदेशक भी यही बता रहे है कि अपने आचरण अच्छे रखो, चित्त में कुछ और पनप रहा है आचरण आप और कुछ करना चाह रहे है यही से अंतर्द्वंद हो रहा है, जिसे हम पाखण्ड भी कह सकते है। रोचक बात है जो साधु संत आचरण सुधारने का उपदेश दे रहे है उनका स्वयं चित्त आसक्ति से ओतप्रोत है। आज के साधु जितना समाज का नुकसान कर रहे है उतने तो राजनेतिक भी नही कर रहे है। आप दो राजनेताओं को सत्ता के लिये गड़जोड करते देख सकते हो परन्तु दो साधुओं की संस्थाओं को विलय होते नही देख सकते हो, यहाँ तक भी एक ही संस्था के दो केंद्र भी विलय होना असंभव है क्योंकि साधुओं को शिखर पर काबिज रहना है, पद में आसक्ति है।
आचरण के बदलने के बजाय चित्त या मन पर काम करने की अधिक आवश्यकता है जिस प्रकार पौधे को उन्नत किये बिना अच्छे फल की प्राप्ति असम्भव है उसी प्रकार दूषित विचार से किये गए कार्य से फल असम्भव है।
अनासक्ति से किया हुआ कर्म बंधनमुक्त होता है। वह तप भी जिसमे मोक्ष की आकांक्षा हो या पद, धन प्रतिष्ठा सब असक्तियुक्त है यह सब वासनाओं के विस्तार है। जहाँ पाने की इच्छा है वह कर्म अनासक्ति लिए नही हो सकता यदि आप यह सोच कर की यह कर्म कुछ भी न पाने हेतु है तो बता दू सोच कर किया कर्म आसक्ति को ही प्राप्त होता है मात्र शांत चित्त से किया हुआ कर्म ही अनासक्त हो सकता है, कर्म महत्वपूर्ण नही है। आप महत्वपूर्ण हो आपका अंतर्मन शांत है तो कर्म भी मुक्तता लिए होगा। आवश्यकता भीतर बदलाहट की है बाहरी कर्म को कितना भी शिष्टाचार का आवरण पहना दो, कर्म के मूल आप हो, उद्गम आपसे हो रहा है। अपने भाव को बिना शुद्ध किये आचरण पाखण्ड ही होगा। जो व्यक्ति सच्चे व संवेदनशील होते है वह मन के विरूद्ध आचरण करते करते अवसादग्रस्त हो जाते है। चाहते कुछ है सभ्यतावश आचरण कुछ और करना है उनका मन तो असक्ति युक्त है भारी अंतर्द्वंद्व में जीवन कष्ट में है ऐसे व्यक्तियों का।
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निर्माण अंधेरे में होता है यह हत्या केवल अशांत चित्त का प्रकटीकरण है हत्या का जन्म तो महीनों, वर्षो पहले चेतना में आकृति लेने लग गया था, ऐसा नही संकेत भी मिल रहे होंगे पर व्यवस्था ने पाला पोसा इस विचार को। कहने का आशय है कि कर्म का बीज अदृश्य, गहरे, अंधकार में बन रहा होता है विचार के रूप में और जितना अशांत चित्त उतना आसक्त कर्म, जितना शांत चित्त उतना अनासक्ति कर्म।
पूर्व में भारत मे गुरुकुल में चित्त की शिक्षा दी जाती थी आधुनिकता में कर्म की शिक्षा दी जा रही है परिणाम सामने है। कर्म को बदलने की शिक्षा पागलपन है। आप अभिव्यक्ति को बदलने की चेष्ठा विचार के निर्माण को बदल कर ही कर सकते हो।
अन्तस् अच्छा है तो आचरण अच्छा होगा। जिस प्रकार राजनेतिक चित्त का व्यक्ति भेष बदलकर धार्मिक चोला पहन लें तब धर्म मे राजनीति करेगा TV डिबेट में आप धार्मिक चोले में अनेको राजनेतिक चित्त के व्यक्ति देखते होंगे उनका अंतस, चित्त राजनेतिक है। कहने का अर्थ आचरण कुछ भी हो कर्म का फल चित्त के भाव से ही फलित होगा।
प्रत्येक क्षेत्र में आज पाखंड का बोलबाला है उसका कारण चित्त में कुछ आचरण में कुछ। आज हम बच्चों को शिक्षा देते हैं झूठ मत बोलो, गलत काम मत करो पर हम यह नहीं सिखाते हैं की मन में भाव गलत न लाना, केवल कर्म को सही रखने की सलाह दे रहे है। कर्म सूचक है आपके अंतस का, अन्तस् धर्म से, आचरण नीति से सम्बंधित है।
धर्मिक व्यक्ति अनिवार्य रूप से नैतिक होगा, पर नैतिक व्यक्ति धर्मिक हो आवश्यक नही क्योंकि आचरण बदलना नैतिकता है और चित्त शांत रखना धार्मिकता है।
इसलिये नैतिक मनुष्य कष्ट में जीते है, क्योकि वह स्वयं से अंतर्द्वंद में है, जबकि दुर्जन व्यक्ति प्रकट में है जैसे है वैसे आचरण कर रहे है। मन के विपरीत नही है दुर्जन।
संत व दुर्जन में एक समानता होती है अंतःकरण व आचरण में कोई अंतर नही होता है। संत के अन्तस् के अनुसार आचरण व दुर्जन के अन्तस् अनुसार आचरण अर्थात पाखण्ड नही होता। सज्जन नैतिकताओं में अटका रहता है । अन्तस् में अपराधी व आचरण में साधु बड़ा तनाव में रहता है ऐसे व्यक्ति फिर वह या तो पाखंडी या पागल दो ही गति को प्राप्त होगा।
सुधीर शुक्ला
globalvvn@gmail.com
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