13.7.20

दिया तले अँधेरा !



शिवांग माथुर, वरिष्ठ पत्रकार


बीते चार महीने से दुनिया भर में पसरी निराशा और हताशा और उससे जन्मे अंधकार को मिटाने वाली कोई प्रकाश की किरण अब तक नज़र नहीं आई, लेकिन इस अंधकार के विराट् सागर में दुःख और पीड़ा तब और ज़्यादा गहरी हो जाती हैं जब आपका कोई साथी आपको छोड़ कर चला जाए. राजधानी दिल्ली में एक युवा पत्रकार तरुण सिसोदिया अपनी दो नन्ही परियों और अपनी पत्नी को इस क्रूर दुनिया में अकेला छोड़ कर मुक्ति की और चल दिया. यूँ तो तरुण को कोरोना ने जकड रखा था और उसका आल इंडिया ऑफ़ मेडिकल साइंस (एम्स ) में इलाज चल रहा था लेकिन किस्मत देखिये की मौत उसको कोरोना से नहीं बल्कि चौथी मंज़िल से छलांग लगा कर नसीब हुई. तरुण को निजी तौर पर जानने वाले बताते हैं की वो एक ज़िंदा दिल पत्रकार था, कोरोना का शिकार होने के बावजूद उसका हौसला बुलंद था. वो बाकी लोगो को भी मनोबल बनाये रखने की सलाह दिया करता था. ऐसे में एक निर्भीक युवा पत्रकार का यूँ मौत को गले लगा लेना कई गंभीर सवाल खड़े करता हैं. तरुण की मौत, जुगनू सी चमचमाती इस मीडिया इंडस्ट्री के पीछे की काली सच्चाई को चीख चीख कर बयान करती हैं. शीशे सी चमचमाती इन बड़े-बड़े चैनेलो और अखबारों के दफ्तरों की इमारते और उनमे बड़े और उच्च पदों पर आसीन अंधे, बहरे और गूंगे अधिकारियों के पत्थर दिल होने की कहानी हैं तरुण सिसोदिया की मौत. ये मौत हैं या हत्या इसका जवाब पत्रकारों को खुद से भी पूछना चाहिए.

दुनिया का बीड़ा उठाये घूमने वाले हमारे देश के पत्रकारों की सच्चाई असल में कुछ और ही हैं. एयर कंडीशन स्टूडियो में कोट, टाई पहना एंकर सुर्खियों पढ़ते  नज़र ज़रूर आता हैं, लेकिन चेहरे पे पुते फाउंडेशन और पाउडर के पीछे उसके चेहरे के दाग किसी को नज़र नहीं आते. ठीक जिस तर्ज पर एंकर की बदसूरती को मेक अप खूबसूरती में बदल देता हैं, वैसी ही कुछ कहानी हिंदुस्तान के ज़मीनी पत्रकारों की हैं. ये वो पत्रकार हैं जो 48  डिग्री के तापमान में हाथ में माइक लिए फिरते हैं और भोजन करने के लिए गमछा डाल कर विजय चौक पर बैठने के लिए मजबूर हैं. सुबह से लेकर रात तक और उसके बाद भी अपने कमज़ोर कंधो पर समाजिक कल्याण और लोगो तक खबरे पहुँचाने वाले ये पत्रकार असल में खुद निजी तौर पर बेहद कमज़ोर और लाचार हैं. बेबसी का आलम ये हैं की तरुण की मौत के बाद उसकी पत्नी के खाते में पैसे जमा करने की सोशल मीडिया पर मुहीम चल रही हैं.

देश में शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले ये पत्रकार हर स्तर पर जीवन भर खुद शोषण का शिकार होते रहते हैं. टीवी स्क्रीन पर आने की चाह इन साधारण घरो के बच्चो को एक ऐसी क्रूर दुनिया की तरफ ले जाती हैं, जहाँ ऊपरी उजाले के पीछे का अंधकार, बहुत बाद में नज़र आता हैं. सपनो को पूरा करने की चाह में व्यक्ति इस प्रकार अँधा हो जाता हैं कि उसको सही गलत तक की भी समझ नहीं रहती. शोषण की दास्ताँ भावी पत्रकरों के जीवन में पढाई के दिनों से ही शुरू हो जाती हैं. निजी कॉलेज में लाखो रुपया देकर पढाई करने के बाद जब वो भावी पत्रकार असल दुनिया में उतरता है तो उसकी तन्खा सरकारी दफ्तरों में चाय पिलाने वाले कर्मचारी से भी कम होती हैं. नौकरी मिल जाना तो एक सपना ही होता हैं. दुनिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बड़े संपादक इन युवा पत्रकारों से महीनो नौकरी देने के लालच में मुफ्त में काम करवाते हैं, बावजूद इसके अगर वो पत्रकार इनकी कोटरी में फिट नहीं बैठता तो उसकी काबलियत को दरकिनार कर उसे बहार का रास्ता दिखा दिया जाता हैं. चैनेलो के मालिक और प्रशासन भी ऐसे सम्पादको को पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें पचास व्यक्तियों की जगह एक ही आदमी को मोती रकम देनी पढ़ती हैं. कभी नौकरी पाने के नाम पर तो कभी तन्खा में चार पैसे बढ़वाने के नाम पर, हर जगह शोषण का शिकार ये निर्भीक पत्रकार जीवन भर अपने खुद के निजी दर्द को बयान नहीं कर पाते . चौबीस घंटे और 365 दिन बिना रुके बिना झुके की जा रही देश में पत्रकारिता से पत्रकार दिवाली, होली, ईद जैसे त्योहारों पर भी नौकरी करने को मजबूर हैं. कई पत्रकार तो अपनी खुद की शादी वाले दिन तक भी काम करने पर मजबूर किये गए हैं. तरुण को खुद के दफ्तर के बड़े अधिकारी ने कोरोना पॉजिटिव होने का बावजूद अस्पताल से ही स्टोरी देने के लिए मजबूर किया. पत्रकारों के एक व्हाट्स एप  ग्रुप में तो तरुण ने कुछ ही दिन पहले अपनी हत्या किया जाने तक का ज़िक्र किया था.

बड़े बड़े पदों पर आसीन ये बड़े ओर बुद्धिजीवी संपादक अपने निजी हितो से ग्रसित होकर अपने से नीचे काम करने वाले पत्रकारों को अधिकांश तौर पर कभी आगे बढ़ने का मौका नहीं देते। सभी बड़ी स्टोरीज पर ये अपनी शकल चमकाने का काम करते हैं. ख़ासतौर के आज के दौर में इन अधिकांश पत्रकारों का काम मात्र बाइट बटोरने तक सीमित कर दिया गया हैं. चार चेहरे दिखा कर ही चैनेलो को चलाया जा रहा हैं. इसके पीछे की कहानी भी बेहद रोचक और दिलचस्प हैं.  सरकारी तंत्र के दबाव में आकर बाजार से कैसे खबरों को ग़ायब करना हैं इन बुद्धिजीवी सम्पादको से बेहतर कौन जानता हैं.  यही हाल बड़े अखबारों का भी हैं जहाँ अपने पसंदीदा पत्रकारों को ही आगे बढ़ाया जाता हैं. अच्छी खबरों या आईडिया को दबाने का काम ही बड़े सम्पादको को मोंटी तनख्वा दिलवा पाता  हैं. शोषण मीडिया संस्थानों में केवल पत्रकारों का नहीं बल्कि हर स्तर पर हैं. जहाँ भी हाथ डाला जाएगा कालिख ही हाथ आएगी.


अँधेरा इतना घना और घनघोर हैं की कोई भी व्यक्ति संस्थानों में होते इन शोषणों के खिलाफ बोलने को तैयार नही होता। राजनीति और बॉलीवुड की दुनिया की काली सच्चाई लिखने और दिखाने वाले ये लोग खुद अंदर से बेहद काले हैं. ज़रूरत है की खुद पत्रकार बिरादरी अपने निजी हितो से दूर होकर एक दूसरे के दुख सुख में भाग ले ताकि कल कोई दूसरा तरुण सिसोदिया इसका शिकार न हो.

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