2.10.20

मोदी युग के मुकेश, पवन, विनय और अक्षय।

-अमरेंद्र किशोर- 

 

इन्हें पहचानिए। निर्भया कांड के बाद संसद से लेकर गलियों में जमकर बहस हुई। कठोर कानून बनाये गए। उम्मीद थी अब दुष्कर्म करने से पहले कोई दस बार सोचेगा। निर्भया के गुनाहगारों को फांसी दी गयी। जैसे लगा रेप रुक जाएगा। लेकिन हैदराबाद का कांड सामने आया। इसी बीच कई निर्भया खबरों से बेखबर की गई। हैदराबाद कांड के दोषियों को मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाया गया। इसी बात की वाहवाही हुई। कहां तो निर्भया कांड में इतने साल और कहां हैदराबाद कांड। दोनों तरह की अतिवादिता न्याय प्रक्रिया पर सवाल है। सोच समझकर लाश ठिकाने की सफल कवायद हुई। कोई मृतक की कटी हुई जुबान का साक्ष्य फ़ोटो फुटेज के रूप में सार्वजनिक न कर दे। बधाई सरकार। बलात्कार रोकना किसी के बूते की बात नहीं। लाश का अंतिम संस्कार तो सख्ती से किया जा सकता है। तो वही किया। जय हो सरकार श्री राम की। रामराज्य मुबारक़ दोस्तों।


अब हाथरस खबरों में है। दलित नामक शब्द घूम रहा है। शायद इस कांड की गम्भीरता इससे बढ़ेगी। सवाल है, क्या बलात्कार किसी दलित कन्या का किया गया या यह एक अदद मादा देह का आखेट था। दूसरा सवाल, गाय और हथिनी की हत्या पर रुदाली करती जमात अब क्या सोच रहे हैं ? बोलिये मेनका गांधियों। प्रकाश जावेडकरों। काश, यह कांड उस धर्म विशेष के लौंडों-शोहदों ने किया होता, तो हिंदुत्व की तमाम सेनाएं तीर कमान लेकर नौटंकी पर उतारू हो जातीं। लेकिन ये शोहदे कमल के फूल के साथ साईकल पर सवार होकर हाथी देखते हुए पंजा लहरानेवाले भेड़िए हैं। ये मजार पर चादर चढ़ानेवाले नहीं हैं। लिहाजा, सब सोच समझकर कार्यवाई होगी। जैसे जबरिया लाश जलाई गई।

सवाल है कि उत्पीड़िता की जुबान किसकी जेब में है। किस पार्टी की झोली में है। जिसकी झोली में है वह इसे सियासी जंग का हथियार बना ले तो आश्चर्य नहीं। चुनावी जंग में इस जिव्हा का सच सरकार पर भारी पड़ेगा। प्रचार इसी बात का हो। मौत अपने देश मे जरिया है। सहानुभूति जगाने का। सहानुभूति की आड़ में जनादेश हासिल करने का। लेकिन यह मौत हाई प्रोफाइल मौत नहीं है जिसकी कीमत चुकाई जाए। यह मौत उस कुनबे में हुई मौत है जो भोजन के अधिकार जैसे कानून और मनरेगा के प्रावधानों के बूते ज़िंदा है।

सच तो यही है कि अपराध के आयाम बदल रहे हैं। अब मान मर्दन कर केवल हत्या नहीं की जा रही है बल्कि जुबान नहीं खोलने का विकल्प छोड़ने की भूल बलात्कारी नहीं करते। यह नए तरीके का लोकतंत्र है। बलात्कारियों का लोकतंत्र। सरकार से प्रेरणा लेकर जुबान बन्द करते लोग आखिर कब तक भेड़ियातन्त्र को जिंदा रखेंगे, इस भीड़तन्त्र की व्यवस्था में? थाली, ताली और शंख के इस लोकतंत्र में यह सवाल सबसे है।


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