(कंवल भारती)
उत्तरप्रदेश की भगवा दल वाली योगी सरकार ने हाथरस कांड से हुए राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए को प्रत्येक जिले में वाल्मीकि-जयंती (31 अक्टूबर) सरकारी स्तर पर मनाने का निर्णय लिया था. राज्य सरकार के मुख्य सचिव आर. के. तिवारी ने मंडल आयुक्तों और जिला अधिकारियों को जो आदेश जारी किया था, उसमें कहा गया है कि महर्षि वाल्मीकि से सम्बन्धित स्थलों व मंदिरों आदि पर अन्य कार्यक्रमों के साथ-साथ दीप प्रज्वलन, दीप-दान और अनवरत आठ, बारह या चौबीस घंटे का वाल्मीकि-रामायण का पाठ तथा भजन आदि का कार्यक्रम भी कराया जाए. निश्चित रूप से यह वाल्मीकियों को लुभाने की ऐसी शातिर चाल है, जो एक तीर से दो निशाने साधती है.
योगी जी को भलीभांति मालूम है कि वाल्मीकि समुदाय की शिक्षा में क्या स्थिति है?वे यह भी जानते हैं कि सरकारी नौकरी के नाम पर सिर्फ नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी का पद ही उनके लिए है. झाड़ू ही उनकी नियति बना दी गई है. क्या वे इसी नियति के लिए बने हैं? क्या उन्हें उच्च शिक्षित होने का हक नहीं है? भाजपा ने उनके लिए पृथक आरक्षण का प्रावधान तो कर दिया, क्योंकि ऐसा करके उसने सफाई कर्मचारियों को बड़ी चतुराई से उन दलितों से अलग कर दिया, जो आंबेडकरवादी हैं, ताकि वे भी आंबेडकरवादी न बन जाएँ. लेकिन उनकी शिक्षा के विकास की दिशा में भाजपा सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. आखिर क्यों? जब उनके पास शिक्षा ही नहीं होगी, तो क्या पृथक आरक्षण का प्रावधान उन्हें बेवकूफ बनाना नहीं है?
रामायण का अखंड पाठ और भजन-कार्यक्रम क्या हैं? इनका क्या मतलब है? क्या यह उसी तरह का ‘लटका’ नहीं है, जैसे आज़ादी के बाद के दशकों में ब्राह्मणों ने अपने धर्म की जड़ें मजबूत करने के लिए ‘कीर्तन’ नाम का एक नया लटका निकाला था. मुझे याद है,हमारी बस्ती में भी यह कीर्तन होता था. तब मेरी उमर दस-बारह साल की थी. अशिक्षित बस्ती थी, इसलिए मुझे भी कीर्तन अच्छा लगता था. कल जगदीश के घर में, आज हमारे घर में, तो परसों रामलाल के घर में यह कीर्तन होता था. यह क्यों होता था? इसका निहितार्थ जानने की वह मेरी उमर नहीं थी. पर जब मैंने 1975 में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की किताब ‘ईश्वर और उसके गुड्डे’ पढ़ी, तो मैं समझा कि ब्राह्मणों ने यह कीर्तन का लटका क्यों निकाला था?अगर दलित वर्गों के एक भी घटक में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध क्रान्ति होती है, तो ब्राह्मणवाद बेचैन हो जाता है और उसका दमन करने के लिए तुरन्त प्रतिक्रांति आरम्भ कर देता है. उस समय ब्राह्मणों को डर था कि कहीं दलित-पिछड़ी जातियों में डा. आंबेडकर की क्रान्ति पैदा न हो जाए, इसलिए उन्होंने कीर्तन का लटका निकालकर दलित वर्गों को हिन्दू बनाने का उपक्रम शुरू कर दिया. जिज्ञासु ने लिखा था—‘सारे देश में कीर्तन की धूम है. देश के एक छोर से दूसरे छोर तक नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, मुहल्ले-मुहल्ले कीर्तन-मंडलियां कायम हैं. घर-घर कीर्तन और अखंड कीर्तन का रिवाज चल पड़ा है. यहाँ तक कि सरकारी रेडियो द्वारा भी कीर्तन सुनाया जाता है. ....और हरे रामा हरे कृष्णा की रट लगवाकर भोलीभाली जनता को ब्राह्मणों के गुड्डे ईश्वरों का अंध-भक्त बनाकर ब्राह्मणशाही धार्मिक साम्राज्य की हिलती हुईं जड़ें मजबूत की जाती हैं.
हालाँकि, वाल्मीकि समुदाय को हिंदुत्व से जोड़े रखने के लिए आरएसएस के कई संगठन, जैसे भारतीय वाल्मीकि धर्म समाज (भावाधस) और आदि धर्म समाज (आधस) उनके बीच बराबर काम कर रहे हैं, जो आरएसएस की भावना के अनुरूप काम कर रहा है, लेकिन उनके बीच कुछ आंबेडकरवादी संगठन भी काम कर रहे हैं, जो उन्हें सफाई का गंदा पेशा छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और डा. आंबेडकर की विचारधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. वे उन्हें यह भी शिक्षा देते हैं कि महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण थे, जो सामंती कवि थे, उनका मेहतर समाज के साथ कोई भी संबंध नहीं है. वे उन्हें समझाते हैं कि जब तक तुम वाल्मीकि को अपना भगवान मानते रहोगे, तुम्हारा कोई उत्थान नहीं होगा, अत: तुम्हें जितनी जल्दी हो, वाल्मीकि को त्यागकर आंबेडकरवादी बनो. वाल्मीकि तुम्हें शिक्षित होने को नहीं कहते, वे तुम्हें सिर्फ ब्राह्मणों की रक्षा करने वाले श्रीराम के पदचिन्हों पर चलने को कहते हैं. लेकिन डा. आंबेडकर तुम्हें अपने अधिकारों के लिए शिक्षित होने, संघर्ष करने और संगठित होने को कहते हैं. इसके परिणामस्वरूप मेहतर समुदाय में वाल्मीकि के नाम पर चलाए जा रहे तथाकथित धर्म के विरोध में एक क्रान्ति की धारा भी समानांतर चल रही है. हाथरस-कांड के बाद इस आंबेडकरवादी धारा ने भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध मेहतर समुदाय में जबर्दस्त ध्रुवीकरण किया, जिसने आरएसएस को चौकन्ना कर दिया, और वह तभी से सफाईकर्मी समुदाय को हिन्दूवाद से जोड़े रखने का उपक्रम करने में सक्रिय हो गया. 31 अक्टूबर को मेहतर बस्तियों में सरकारी खर्चे पर वाल्मीकि-जयंती मनाना और रामायण का अखंड पाठ करना उसी उपक्रम के अंतर्गत था.
इसे मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि वाल्मीकि-जयंती पर वाल्मीकि के ग्रन्थ का पाठ होना चाहिए. पर आपत्ति इस बात पर है कि मेहतर बस्तियों में ही रामायण का पाठ क्यों होना चाहिए? यह पाठ उच्च जातियों की हिन्दू बस्तियों में क्यों नहीं हो रहा है? क्या रामायण पाठ की आवश्यकता केवल मेहतर समुदाय को ही है? दलितों में तो और भी बहुत सी जातियां हैं, पर क्या कारण है कि आरएसएस और भाजपा का दलित प्रेम सफाई-कर्मचारियों पर ही प्रकट हो रहा है? क्या इसलिए कि अन्य दलित जातियां वाल्मीकि को भगवान नहीं मानतीं? या इसलिए कि वे सफाई का कार्य नहीं करतीं? जाहिर है कि सवर्ण हिंदुओं को मेहतरों की जरूरत है, शौचालय साफ़ कराने के लिए, सड़कें साफ़ करने के लिए, और नाले और गटर साफ़ कराने के लिए दुनिया में भारत अकेला देश है, जहां गटर की सफाई के लिए सफाई कर्मचारियों से कराई जाती है, जिस तरह वे उनमें घुसकर सफाई करते हैं, वह जान-लेवा है और अब तक कई सौ लोग गटर में घुसकर मर चुके हैं. अन्य देशों में गटर की सफाई मशीनों से होती है, पर भारत में सफाई कर्मियों से इसलिए यह काम कराया जाता है कि मशीन महंगी पड़ती है, जबकि सफाई कर्मी बहुत ही सस्ता मजदूर है, जिसकी मौत की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं होती है. इसलिए उच्च हिंदुओं के लिए बहुत जरूरी है मेहतर समुदाय का अशिक्षित और गरीब बने रहना, क्योंकि शिक्षित होकर वे हिन्दू फोल्ड से बाहर निकल सकते हैं.
हमारे वाल्मीकि समुदाय के लोगों को, खासतौर से शिक्षित लोगों के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है. क्या रामायण का पाठ उनकी जरूरत है? क्या रामायण का पाठ सुनने से उनकी सामाजिक और आर्थिक समस्याएं हल हो जाएँगी? वे कब तक अपनी समस्याओं को नजरंदाज करते रहेंगे? क्या वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई मजदूर बनकर रहना चाहते हैं? अगर नहीं तो आत्मचिंतन करें कि उन्हें अपने बेहतर भविष्य के लिए क्या चाहिए—झाड़ू या शिक्षा?अगर वे अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का बेहतर भविष्य बनाना चाहते हैं, तो झाड़ू का त्याग करें, और शिक्षा को अपनाएं. हर स्थिति में अपने बच्चों को पढ़ाएं, उन्हें गंदे पेशे में न डालें.
मैं अपने दलित भाइयों से यह भी अपील करूँगा कि वे आरएसएस की शाखाओं में जाना बंद करें. यह आपका हितैषी संगठन नहीं है, बल्कि आपको और आपके भविष्य को बर्बाद करने वाला संगठन है. यह ब्राह्मणों का संगठन है, जो भारत में हिन्दू-राज्य कायम करने के लिए काम कर रहा है. इस संगठन का उद्देश्य वर्ण व्यवस्था पर आधारित ब्राह्मण धर्म को मजबूत करना और अपने विरोधियों का नाश करना है. इसके विरोधी ईसाई और मुसलमान हैं, जिनके खिलाफ यह दलितों में नफरत पैदा करता है. संघ की शाखाओं से लोग मनुष्य के रूप में नहीं, बल्कि ईसाई और मुसलमानों के खिलाफ हमलावर साम्प्रदायिक गुंडा बनकर निकलते हैं. यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि आरएसएस मुख्य रूप से दलित-विरोधी संगठन भी है. यह दलितों की शिक्षा, उनके आरक्षण और उनके आर्थिक उत्थान का घोर विरोधी है. वाल्मीकि समाज जब तक आरएसएस के जाल से मुक्त नहीं होगा, तब तक वह अपना स्वतंत्र विकास नहीं कर सकता.
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