माघ
अलविदा हो चला है। मौसम का मिजाज फागुनी हो चला है। जवान ठंड अब बुढ़ी हो
गई है। हल्की पछुवा की गलन सुबह – शाम जिस्म में चुभन और सिहरन पैदा करती
है। गुनगुनी धूप थोड़ा तीखी हो गई है। घास पर पड़ी मोतियों सरीखी ओस की
बूँदें सूर्य की किरणों से जल्द सिमटने लगी हैं। प्रकृति के इस बदलाव के
साथ फागुन ने आहिस्ता- आहिस्ता क़दम बढ़ा दिया है। फसलों की रंगत बदल गई
है। गाँवों में रंग रंगीली होली के दिन करीब आने वाले हैं। लेकिन होली की
कोई आहट नहीँ दिखती। प्रकृति तो हमें वसंत का भरपूर ऐहसास दिलाती दिखती
है। सिवान की मेंडों से गुजरते वक्त फसलें उसी सिद्दत से पछुवा हवाओं के
साथ झूम कर आलिंगन करती हैं। गदराई सरसों के खेत पीले- पीले फूलों और हरी
फलियों से झुक गए हैं। अलसी और तीसी के नीले फूल झूम- झूम कर वसंत के
स्वागत में लगे हैं। जौ की सुनहली बालियां बौराई सी झूम रहीं हैं। मटर फूल
और फली से लद गई है। टेंशू , गेंदा और गुलाब फागुन की मस्ती में खिलखिला
रहे हैं। अमराइयों में आम में लगे बौरों की मादकता अजीब गंध फैला रहीं है।
भौंरे कलियों का रसपान कर वसंत के गीत गुनगुना रहे हैं। पेड़ों से पत्ते
रिश्ते तोड़ वसंत के स्वागत में धरती पर बिछ जाने को आतुर हैं। प्रकृति और
उसका ऐहसास फागुन के होने की दस्तक देता है। भौजाई की ठिठोली और मसखरी जाने
कहां खो गई। फागुन के गीतों पर ढोल- मंजीरे की थाप सुनाई नहीँ देती है।
पूर्वांचल में फागुन के गीत को फगुवा के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन अब
यह गीत और उसे गाने वाले लोग गायब हैं।
आधुनिक
विकास ने गांव की परिभाषा को निगल लिया है। अब गांव की असली तस्वीर केवल
पुरानी हिंदी फिल्मों में कैद हो चुकी है। कभी गांव का नाम जेहन में आते ही
खपरैल, घास- फूस और छप्पर की तस्वीर उभर आती थी। दिमाग में कोल्हू, हल-
बैल, कुएं , तालाब , दुबला , रहट, नार- मोट, ढेकुली, मंदिर और लुका- छिपी
का खेल नाचने लगता था। हुक्का गुड़गुडाते सुक्खु चाचा और टूटे चश्मे की
फ्रेम आँखों पर चढ़ाई दादी गायब है। यहीं नहीँ उसकी डाट में छुपी मिठास और
हाथों की छड़ी भी बदले दौर में गुम हो गई। अब तो नई पीढ़ी को गांव और दादी
गूगल पर ही मिलेगी। माघ- फागुन के मौसम में चरखी से निकले गन्ना के रस में
दही मिला सीखरन तैयार होता था। फ़िर मटर की सलोनी के साथ उसे पीने का आनंद
और स्वाद ही अलग था। अब गाँवों से गन्ने की खेती गायब हो चली है। कड़ाहे
गुड़ और खांड की सोंधी गंध नाक को तृप्त नहीँ करती। वह वक्त भी था जब पकती
खांड में हम आलू डालने जाते तो दादा की खूब डाट मिलती। लेकिन सब कुछ बदल
गया है। अब गांव कंकरीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं। धनाढ्यों ने कई
मंजिला इमारतें खड़ी कर शहरी अभिजात संस्कृति का आगाज किया है। घरों में
टिमटिमाती ढेबरी की जगह एलीडी और इनवर्टर की प्रकाश ने ले लिया है। कभी –
कभी मिट्टी का तेल यानी केरोसिन न मिलने से दादी और अम्मा कडुवा तेल का
दीपक जलाती थी। लेकिन अब यह बातें कहानियां हो गई हैं। डाकिया बाबू दिखाई
नहीँ पड़ते। अब कोई भौजाई देवर से पति को पाती लिखवाने की आरजू मिन्नत नहीँ
करती दिखती। मोबाइल ने तो जीवन की सारी रसिकता छीन लिया है। नई पीढ़ी के
लिए गांव, वसंत और फागुन शोध का विषय बन गए हैं।
प्रकृति
में अल्हड़ फागुन जीवंत है लेकिन बदली परम्पराओं और हमारी सोच में वह
बूढ़ा हो चला है। फागुन में रास है न रंग। बस होली के नाम पर औपचारिकता
दिखती है। अब गालों पर गुलाल मलने सिर्फ रस्म निभाई जाती है जबकि दिल नई
मिलते। फाग गीतों की आड़ में दोअर्थी भोजपूरिया गीतों ने हमारी संस्कृति और
संस्कार को गंदा कर दिया है। होली का हुल्लड़ अब फूहड़ हो चला है। गाँवों
में फागुन वाली भौजाई गायब है। जब कच्चे मकान होते थे तो भौजाई और घर की
औरतें माटी- गोबर लगाती थी। क्योंकि बारिश की वजह से छप्पर टपकने से घर की
दीवालें कट जाती थी। पतझड़ का मौसम आते ही पेड़ों की पत्तियों को पोतनी
मिट्टी और गोबर के साथ मिलाकर घरों की पुताई होतीं थी। पूर्वांचल में गांव
की भाषा में इसे गोबरी कहते हैं। गोबरी लगाते वक्त अगर कोई देवर उधर से
गुजरता था तो भौजाई दौड़ा कर मुंह और कपड़े में गोबरी लगा फागुन और होली के
हुडदंग का आगाज करती थी। फ़िर देवर भी भौजाई को छेड़ने के मौके तलाशते थे।
टोलियों के साथ होली मनती थी। वसंत लगते ही रंगत बदल जाती थी। माघ- फागुन
में होने वाली शादी में दूल्हा और बाराती रंगो में नहा उठते थे। होली के
दिन गुड़ में भांग मिलाकर महजूम बनाए जाते थे। भांग मिश्रित ठंढई बनती थी।
बचपन
में हम लोग उसे पीकर होली के हुडदंग में शामिल हो जाते। यह सब वसंत लगते
ही शुरु हो जाता था। लेकिन अब न वह देवर हैं न भौजाई। पूर्वांचल के गाँवों
में पंचायती चुनाव के चलते सौहार्द का समीकरण इतना बिगड़ गया है। कोई किसी
के घर नहीँ जाना चहता है। त्योहारों का उत्साह भी गोलबंद हो चला है। होलिका
अब नहीँ जुटाई जाती है। वह दौर भी था जब वसंत पंचमी के दिन से होलिका
संग्रह होने लगता। बचपन में युवाओं में होलिका को लेकर खास उत्साह होता।
जिस दिन होलिका दहन होता उस दिन दादी ऊबटन और तेल की मालिश कर उसकी लिझी
यानी मैल होलिका में डलवाती थी। लेकिन अब इस तरह के रिवाज़ गायब हैं।
होलिका दहन अब औपचारिक हो चला है। त्यौहारों की मिठास ख़त्म हो चली है।
आपसी प्रेम और सौहार्द गायब है। फागुन एक सोच है। वह जिंदगी को हसीन और
रंगीन बनाने का संदेश है। वह उम्मीदों की नई कोंपल है। लेकिन वक्त इतनी
तेजी से बदला की गांव – गँवई और गवईया गायब हो गए। फागुन और उसकी ठिठोली
खुद को तलाश रहीं है। बेचारा अल्हड़ और अलमस्त फागुन बूढ़ा हो चला है।
prabhu nath shukla
journalist
स्वतंत्र लेखक और पत्रकार
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