अजय कुमार, लखनऊ
लखनऊ। इस बार की होली ने समाजवादी कुनबे के ‘रिश्तों का रंग’ और भी फीका कर दिया। इस बार की होली में न तो मुलायम सिंह यादव होली मनाने सैफई पहुंचे, न ही शिवपाल यादव सैफई मंच पर नजर आए। मुलायम की ‘जगह’ प्रोफेसर और सांसद रामगोपाल यादव ने मंच की कमान संभाल रखी थी तो, जो किरदार मुलायम के रहते शिवपाल यादव निभाया करते थे, अबकी होली में वह किरदार अखिलेश यादव निभाते नजर आए। इस बार सैफई की होली में नया इतिहास लिखा गया जो पहले की अपेक्षा पूरी तरह से बदला-बदला था। शायद मुलायम सिंह सैफई मंच पर मौजूद होते तो वह ऐसा कभी नहीं होने देते जिससे रिश्तों की दीवारें और भी बड़ी हो जाती। चाचा शिवपाल यादव मौजूद तो सैफई में ही थे, लेकिन वह अपने पिता के नाम से बने एक स्कूल में अपने समर्थकों के साथ होली खेलते और फाग सुनते नजर आए, जबकि अखिलेश सैफई में अपने आवास पर होली खेलते रहे।
होली के दिन सैफई गांव में चचा-भतीजे के बीच बढ़ी दूरियां की सुगबुगाहट अब तल्खी बनकर चचा-भतीजे के बयानों में भी नजर आने लगी है,जिसका असर अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में तो पड़ ही सकता है, इससे पूर्व पंचायत चुनाव में भी समाजवादी कुनबे के बीच की दूरियां समाजवादी प्रत्याशियों के लिए मुसीबत का सबब बन सकती हैं। क्योंकि शिवपाल यादव भी विधान सभा चुनाव से पूर्व अपने प्रत्याशियों को पंचायत चुनाव में अजमा लेना चाहते हैं।
सैफई में होली के दिन समाजवादी कुनबे में जो घटनाक्रम घटा। उसके तुरंत बाद शिवपाल यादव खेमें द्वारा लखनऊ में प्रदेश में नई सियासी धारा विकसित करने की कवायद शुरू कर दी गई है। होली पर भतीजे अखिलेश की बेरुखी देख चाचा शिवपाल सिंह यादव की उम्मीदें टूटती नजर आ रही हैं। वह अब इंतजार के मूड में नहीं हैं और अलग तैयारी में जुट गए हैं। सैफई से लौटने के बाद वह सुबह-शाम अलग-अलग इलाके के पदाधिकारियों के साथ बैठकें कर रहे हैं। उन्होंने साफ कह दिया है कि भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए समान विचारधारा वालों को एक मंच पर लाएंगे। यह नया मंच प्रदेश की सियासत में क्या नया अध्याय रचेगा यह तो समय ही बताएगा। शिवपाल का इशारा एआईएमआईएम प्रमुख और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर की तरफ था, जिससे शिवपाल यादव की बातचीत भी चल रही है।
बात अखिलेश यादव की कि जाए तो अखिलेश ने शिवपाल सिंह यादव के सैफई की होली से नदारत रहने पर सांकेतिक भाषा मे बड़ा बयान दिया है। अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल सिंह यादव को लेकर कहा कि वो होली कहीं और मना रहे होंगे। राजनैतिक पंडितों ने इसका मतलब यही निकाला की अखिलेश अपने चचा को भाजपा के साथ खड़ा दिखाना चाहते हैं, ताकि सपा प्रत्याशियों को नुकसान पहुंचाया जा सके,लेकिन अखिलेश इस पर खुल कर कुछ नहीं बोलना चाहते हैं।
बहरहाल, एक बार फिर यह कहना गलत नहीं होगा कि घर का झगड़ा अगर घर के भीतर सुलझने की बजाए बाहर आ जाए तो जगहंसाई के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है। बस फर्क इतना है कि जब आम आदमी के घर-परिवार में झगड़ा होता है इसकी चर्चा कम होती है,लेकिन जब यही झगड़ा किसी बड़ी हस्ती के वहां छिड़ता है तो सब लोग तमाशा देखते हैं। आपसी झगड़े के चलते न जाने कितने औद्योगिक घराने तबाह हो गए। कितने बड़े-बड़े नेताओं का रसूख और सियासत पारिवारिक झगड़े के चलते ‘अर्श से फर्श’ पर आ गई। अब यही बानगी मुलायम सिंह यादव के परिवार में ‘चाचा-भतीजे की जंग के रूप में देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है कि मुलायम के सक्रिय राजनीति से दूरी बना लेने के बाद समाजवादी पार्टी के बुरे दिन खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। 2012 के विधान सभा चुनाव सपा मुलायम सिंह यादव के नेृतत्व में लड़ी और जीती थी। चुनाव जीतने के बाद पुत्र मोह में फंसकर मुलायम ने मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी और स्वयं विश्राम की मुद्रा में आ गए। यही से समाजवादी पार्टी के पतन का दौर शुरू हो गया था। मुलायम की कम होती सक्रियता के बीच सपा के दिग्गज नेता आजम खान और शिवपाल यादव अपने आप को पार्टी का अघोषित आका समझने और अखिलेश यादव को नियंत्रित करने लगे। करीब ढाई वर्ष तक अखिलेश इसी द्वंद में फंसे रहे की पार्टी का असल नेता कौन है,सपा को साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों वाली पार्टी की उपमा मिलने लगी, लेकिन यह भ्रम ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका।
कौन है सपा का सबसे बड़ा नेता इसी दुविधा में फंसी समाजवादी पार्टी का 2014 के लोकसभा चुनाव के समय फजीहत का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह 2017 के विधान सभा चुनाव के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव तक थम नहीं सका। यहां तक की बीच-बीच में हुए उप-चुनावों में भी सपा को हार का सामना करना पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार का ठीकरा तो अखिलेश ने आजम और शिवपाल यादव पर फोड़ दिया,लेकिन 2017 के विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में जब सपा को करारी कार का सामना करना पड़ा तो अखिलेश इस हार की जिम्मेदारी लेने की बजाए बगले झांकने लगे। तब उन्हें अपने उस चचा की याद आई, जिनको बेइज्जत करके उन्होंने पार्टी से निकाल दिया था। जब की अखिलेश अच्छी तरह से जानते थे कि समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में मुलायम के बाद सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका चचा शिवपाल यादव ने ही निभाई थी। चचा को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद अखिलेश की दुर्दशा कम होने की बजाए बढ़ती ही जा रही है।
उधर, चचा शिवपाल के जाने के बाद कमजोर होती समाजवादी पार्टी में नई जान फूंकने, यूपी की सत्ता में वापसी से लेकर केन्द्र में समाजवादी पार्टी को मजबूती प्रदान करने तक के लिए अखिलेश ने परस्पर विरोधी विचारधारा वाली कांगे्रस और बसपा से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया था,लेकिन सभी प्रयास और गठबंधन बेकार साबित हुए। खैर, सच्चाई यह भी है कि आज भले चचा-भतीजे के बीच तल्खी कुछ ज्यादा नजर आ रही हो लेकिन कई बार अखिलेश को चचा शिवपाल यादव की ‘ताकत’ का अहसास होता रहा है।
बात शिवपाल यादव की पार्टी के 2022 में होने वाले विधान सभा चुनाव के लिए गठबंधन प्लान की कि जाए तो शिवपाल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के साथ हाथ मिला सकते हैं। इस तरह से शिवपाल की यूपी की तमाम पिछड़ी जातियों के नेताओं का एक मजबूत गठबंधन सूबे में तैयार करने की रणनीति भी है। इसी तरह से ओमप्रकाश राजभर की अगुवाई में बाबू सिंह कुशवाहा की जनाधिकार पार्टी, अनिल सिंह चैहान की जनता क्रांति पार्टी, बाबू राम पाल की राष्ट्र उदय पार्टी और प्रेमचंद्र प्रजापति की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी ने भागीदारी संकल्प मोर्चा के नाम से नया गठबंधन तैयार किया है। ऐसे में शिवपाल यादव की राजनीति भी ओबीसी के इर्द-गिर्द है और ऐसे में इस मोर्चे के साथ मिलकर सूबे में एक नया राजनीतिक समीकरण बना सकते हैं. वहीं, शिवपाल की अपना दल की कृष्णा पटेल और पीस पार्टी के डॉ. अय्यूब अंसारी से भी रिश्ते ठीक हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि शिवपाल इन दोनों के साथ लेकर इस मोर्चा को नया रूप दे सकते हैं. हालांकि, यह देखना होगा कि शिवपाल की इन कुनबे में एंट्री होती है या फिर कोई दूसरे गुट के साथ अपना समीकरण बनाने की कवायद करेंगे। चर्चा इस बात की भी है कि शिवपाल यादव बिहार चुनाव में ओवैसी की पार्टी को मिली शानदार सफलता के बाद उसको भी इस गठबंधन का हिस्सा बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि मुस्लिम वोटों के लिए दावेदारी मजबूत की जा सके। अखिलेश के लिए सिर्फ शिवपाल ही मुश्किल नहीं खड़ रहे हैं,बल्कि उनके छोटे भाई की बहू अपर्णा यादव भी समय-समय पर अखिलेश के खिलाफ बोलती रहती हैं। अपर्णा तो खुलकर मोदी का पक्ष लेने से भी नहीं कतराती हैं।
यादव परिवार के कुकर्म की सजा यहीं भोगनी पड़ेगी ।
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