21.6.21

ऐसे निस्तेज हुए योगी

Krishan pal Singh-

उत्तर प्रदेश में हाल में सत्तारूढ़ पार्टी के अंदर चली उठा पटक में पहले सीएम योगी आदित्यनाथ ने तेवर दिखाये जिससे पार्टी की शीर्ष नेतृत्व बैकफुट पर जाते दिखा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूत सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी अरविन्द शर्मा को मंत्री न बनाने से लेकर कई मामलों में सीएम योगी ने केन्द्रीय नेतृत्व की खुली अवज्ञा की। नौबत उनको मुख्यमंत्री पद से शिफ्ट करने तक की आ गयी लेकिन संघ उनके लिए ढ़ाल बन गया। इससे योगी का मनोबल और बुलंद हो गया था लेकिन अंततोगत्वा केन्द्रीय नेतृत्व ने ऐसे पैंतरे दिखाये कि योगी की हालत दयनीय बन गई। योगी मुख्यमंत्री पद पर तो बने रहेंगे लेकिन उनका वजूद पुतले से ज्यादा नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में विभिन्न पार्टियों के साथ गठबंधन करने से लेकर राज्य मंत्रिमंडल में शामिल किये जाने वाले चेहरे तय करने तक के सारे अधिकार केन्द्रीय नेतृत्व ने अपने हाथ में ले लिये हैं। यहां तक कि उन्हें सुबह शाम पानी पी-पीकर गाली देने वाले ओमप्रकाश राजभर को भी दुबारा ससम्मान अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए तैयार रहने का निर्देश योगी के ऊपर पारित कर दिया गया है।


अब चर्चा का विषय है कि योगी की हेकड़ी को केन्द्रीय नेतृत्व ने कैसे इस कदर खत्म किया। यह कोई बहुत गूढ़ विषय नहीं है। दरअसल जब भाजपा के उत्तर प्रदेश के प्रभारी राधा मोहन सिंह ने दुबारा लखनऊ पहुंचकर राज्यपाल आनंदी बेन पटेल से मुलाकात करते हुए उनके हाथ में एक बंद लिफाफा थमाया था तभी योगी को पस्त करने का व्यूह तैयार हो गया था। बताते यह हैं कि लिफाफे में भाजपा के योगी से असंतुष्ट 200 से अधिक विधायकों के हस्ताक्षर एक ज्ञापन के साथ संलग्न थे। योगी को जब इसकी भनक लगी तो उनके हाथों से तोते उड़ गये। वे जान गये कि केन्द्रीय नेतृत्व ने किसी भी असाधारण स्थिति में उनकी सरकार को शून्यकरणीय बनाने का आधार तैयार कर दिया है। यह पेशबंदी जरूरत पड़ने पर उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई की भूमिका है जिसके बाद योगी के बल जाते रहे।

योगी के बहुत ही विनम्र बयान आने शुरू हो गये। टाइम्स आफ इंडिया को दिये गये इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि उनकी कोई राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं है। जाहिर है कि इंटरव्यू पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को उसकी आशंकाओं के संबंध में संबोधित करने की दृष्टि से दिया गया था। साथ ही वे दौड़े-दौड़े दिल्ली पहुंचे जहां पहले उनकी क्लास गृह मंत्री अमित शाह ने ली इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के लिए उन्हें अगले दिन का इंतजार करना पड़ा। दोनों ही जगह मुलाकात में उनकी बाडी लैंग्वेज नोटिस की गई। सिकुड़े से बैठे रहे योगी की भयभीत मानसिकता की स्पष्ट झलक इस दौरान देखने को मिल रही थी।

इसके पहले कुछ और ड्रामे हुए। ब्राह्मणों और पिछड़ों में राज्य सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ने की खबरें पहले से जारी थी जिसका गंभीर नतीजा पंचायत चुनाव में सामने आया था। बावजूद इसके योगी इसका कोई तोड़ नहीं ला पा रहे थे। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने यह जाहिर करते हुए कि योगी के किये बुते का कुछ नहीं है जिसके कारण उसे पहल कदमी को तत्पर होना पड़ेगा कांग्रेस के नेता जितिन प्रसाद को योगी को किनारे कर ब्राह्मणों की तोप के बतौर पार्टी में शामिल किया। इसी तर्ज पर पिछड़ों के बदोंबस्त के लिए अपना दल एस की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी के संजय निषाद से भी अमित शाह ने मुलाकात की और दोनों को उनकी मांगों के संबंध में सकारात्मक आश्वासन दिये।

इतना ही नहीं भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने यह भी संदेश दिया कि सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर को भी मनाया जायेगा और उन्हें उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल कराया जायेगा। इन जोड़तोड़ में योगी की क्षमताओं को कमतर जताने का उपक्रम करके उनकी पर्याप्त फजीहत की गई है जिसे योगी भी महसूस कर रहे होंगे। राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे योगी इस तरह एक जातिवादी नेता के रूप में सीमित कर दिये गये हैं। ऐसा साबित किया गया है कि अगर केन्द्रीय नेतृत्व संकट मोचक की भूमिका निभाने के लिए आगे न आये तो योगी के अति ठाकुरवाद की वजह से ब्राह्मण भी भाजपा से मुह मोड़ लेगें और पिछड़े व दलित भी।

चुनावी युद्ध में भी सब कुछ जायज-
चुनावी मोड में रहना भाजपा की शाश्वत मुद्रा बन चुका है। चुनाव भी एक युद्ध है और युद्ध में सब कुछ जायज होता है। इसी सूत्र के चलते भाजपा के समर्थकों की अपनी पार्टी के प्रति आस्था में उसकी कुटिलताओं और षणयंत्र वादिता के कारण कभी कोई खरोंच आती नहीं दिखती जबकि सार्वजनिक जीवन में उच्च परंपराओं की दरकार रहती है।

अटल-आडवाणी युग में भाजपा का सबसे प्रिय नारा था पार्टी विद ए डिफरेंस। इससे झलकता था कि पार्टी मूल्यों की आदर्शवादी राजनीति की हामी है जिससे दूसरों के मुकाबले अपनी छवि में वह बहुत निखार दिखा सके। उस समय यह माना जाता था कि पार्टी की बढ़त के लिए साफ सुथरी इमेज ही सबसे बड़ा हथियार हो सकती है।

पर आज यह दृष्टि एकदम उलट चुकी है। भाजपा के समर्थकों को पार्टी के सत्ता में बने रहने के लिए हर हथकंडा मंजूर है। अनाचार की इस स्वीकृति ने समूचे समाज की नैतिक व्यवस्था पर गंभीर असर डाला है जिसके चलते कई विकृतियां सामने आ रही हैं।

उप चुनावों ने गफलत में धकेला-
गत वर्ष जुलाई में जब बहु चर्चित बिकरू कांड हुआ था जिसमें आठ पुलिस कर्मियों को शहीद करने वाले कुख्यात विकास दुबे और उसके साथियों के सफाये से समूचा ब्राह्मण समाज प्रदेश सरकार के खिलाफ उद्वलित हो गया था। इसी तरह प्रदेश सरकार के वर्ण व्यवस्थावादी नक्शे कदमों के कारण पिछड़ी और दलित जातियों में असंतोष की खबरें भी गहरा रही थी। बावजूद  इसके नवम्बर में विधानसभा के सात उप चुनावों के नतीजे भाजपा के लिए टानिक बनकर सामने आये। भाजपा ने विपक्ष की भी कुछ सीटें छीनते हुए 6 सीटों पर बढ़त बनाई। यहां तक कि उन्नाव सीट पर ब्राह्मण बाहुल्य होने के बावजूद भाजपा के श्रीकांत कटियार निर्वाचित हो गये। योगी सरकार ने उप चुनावों के इन नतीजों को अपनी लोकप्रियता के प्रमाण पत्र के रूप में लहराते हुए ब्राह्मणों और पिछड़े व दलितों के असंतोष के तथ्य को नकार डाला। पर पंचायत चुनाव आते-आते उसका यह विश्वास गफलत साबित होकर रह गया जिससे पार्टी को हलकान हो जाना पड़ा।

भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का थोथापन
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का थोथापन स्वयं सिद्ध है। सामाजिक मामलों में उसकी राय जिन धार्मिक विश्वासों पर टिकी हुई है वे उसे रूढ़िवादिता से नहीं उबरने देते। मोदी सरकार जब नई नवेली थी तभी बिहार विधानसभा के जो चुनाव हुए उसके दौरान आरक्षण को लेकर दिमाग पर हावी रूढ़िवादिता की वजह से संघ प्रमुख की जुबान फिसल गई जिससे राजद-जद यू गठबंधन ने चुनावी मैदान में भाजपा को पछाड़ दिया था। इस बीच नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को मंचों से पिछड़ी जाति का जाहिर करने की ऐसी मुहिम छेड़ी जो कि सामाजिक मामलों में डैमेज कंट्रोल में नायाब साबित हुई। पर काठ की यह हांडी भी ज्यादा दिन चढ़ी न रह सकी। व्यवहारिक स्तर पर उनकी वर्ण व्यवस्था पोषक नीतियों ने अब उन्हें बेनकाब कर दिया है। मोदी के शुरूआती राज में ही राज्यपालों की नियुक्ति के समय दलितों की घोर उपेक्षा की खबरें इसकी कड़ी बनी। केन्द्रीय मंत्रिमंडल से लेकर केन्द्रीय सचिवालय तक में दलित पिछड़ों को महत्वपूर्ण विभाग देने में जो दुराव किया गया वह भी इसकी एक मिसाल बना। राज्यों में पिछड़ों के वर्चस्व हनन को रोकने में भी मोदी ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। लोगों को इससे जाके पांव फटी न बिबाई, सो का जाने पीर पराई की कहावत में सार समझ में आने लगा। जाति आधारित श्रेष्ठता के सिद्धांतों के अनुसरण के कारण उत्तर प्रदेश में योगी राज में भी पिछड़े और दलित दोयम दर्जे के वर्ताव के लिए अभिशप्त है। बड़े जिलों में इन वर्गो के आईएएस, आईपीएस को अघोषित तौर पर डीएम एसपी बनने से रोक दिया गया है। वे तहसील ब्लाक और थानों के स्तर पर जैसी सीधी हनक चाहते हैं वह नदारत है। उनके मंत्रियों का भी कोई अस्तित्व नहीं है। इस कारण बहुजन समाज कही जाने वाली जातियों में राज्य सरकार को लेकर जबरदस्त कोफ्त है। क्षति प्रबंधन के लिए कोशिशें हो तो रहीं हैं लेकिन बहुजन जातियों को बराबरी का अधिकार देने के मामले में हिचक समाप्त नहीं हो रही जो भाजपा के राजनीतिक पतन का बड़ा कारण साबित हो रहा है।

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