Krishan pal Singh-
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नतीजे सामने आ चुके हैं। अब समय उनके निष्कर्षो के चीढ़ फाड़ का है। मुझ सहित अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक प्रदेश की सरकार के बारे में अपने अंदाजे बिफल हो जाने से परेशान हैं। चुनाव में किसी तरह की हेरा फेरी साबित करने का कोई सबूत तलाशने से भी नहीं मिला सो प्राश्यचित इस बात का है कि जमीनी सच्चाई जानने में हमसे कहां चूक हुई। बड़ी संख्या में खिन्न लोग हमें मिले थे जिन्होंने चुनाव के पहले सरकार के कामों पर तीव्र असंतोष प्रकट किया था जबकि इनमें से अधिकांश ने 2017 में भाजपा की ही पालकी ढ़ोने में गुरेज नहीं किया था। हमारे लिए पहेली बन गया है कि ये वोट कहां चले गये। आकलन में हमसे कहां से चूक हुई ताकि भविष्य में अपनी विश्वसनीयता के लिए हम अधिक सतर्कता से काम कर सकें।
ध्रुवीकरण का कैसे भाजपा को मिला फायदा-
यह चुनाव सीधे-सीधे आमने सामने का हो गया था। द्विध्रुवीय चुनाव में सत्ता विरोधी कारक से सपा को जबरदस्त लाभ होने के मुगालते में हम रहे जबकि भाजपा को जो लाभ हुआ अपने पूर्वाग्रहों के कारण हम भांप नहीं पाये। वास्तविकता में इस स्थिति ने सपा को सिर्फ इतना प्लस किया कि मुस्लिम वोट एक मुस्त अधिकतम मतदान के साथ उसकी झोली में जा गिरा लेकिन दूसरी पार्टियों का अन्य समुदाय का जो वोट उनसे छिटका वह किस तरह सत्ता विरोधी कारक को संतुलित कर गया इसकी हमने अनदेखी कर दी। इसमें बसपा के वोटर खासतौर से चिहिंत किये जा सकते हैं जो मुस्लिम मतदाताओं के एकदम मुंह मोड़ लेने से इस पार्टी के सजातीय उम्मीदवारों की हालत पतली देखकर आखिर में भाजपा की ओर मुखातिब हो गये क्योंकि इन्हें यादवों से एलर्जी जो थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने आपस में गठबंधन किया था। यह गठबंधन बुरी तरह नाकाम हुआ था क्योंकि जहां समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार मैदान में था वहां कांग्रेस के वोट ट्रांसफर नहीं हुए थे और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व ने इस पर क्षोभ भी प्रकट किया था। जाहिर है कि कांग्रेसी मानसिकता को सपा हजम नहीं होती ऐसे लोग कांग्रेस को गिनती में न देख वोट की बर्बादी रोकने के नाम पर कमल निशान का बटन दबा बैठे।
दलितों से दुराव-
सपा के मुखिया अखिलेश यादव की अवचेतन में पोषित हो रही दलितों के प्रति हिकारत उन्हें भारी पड़ गई। दलितों पर हुई बड़ी वारदातों के मामलों में उन्होंने उदासीनता दिखाई फिर चाहे बात हाथरस की हो या आगरा की। सोनभद्र में आदिवासियों के संहार के मामले में भी उन्होंने प्रियंका बाड्रा की तरह मौके पर जाना गंवारा नहीं किया था। उन्हें दलितों के बारे में यह संस्कार अपने पिता से विरासत में मिले हैं जिन्होंने 1995 में बसपा के साथ गठबंधन के टूटने पर दलितों की आस्था से जुड़े महापुरूषों की अवमानना की। कई बार बाबा साहब अम्बेडकर के लिए भी भला बुरा कहा जबकि भाजपा सवर्ण शाही की हिमायती पार्टी मानने के बावजूद सार्वजनिक तौर पर उनके प्रति श्रृद्धा निवेदित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसी प्रभाव में अखिलेश ने मुख्यमंत्री बनने पर जो काम सबसे पहले किये उनमें पदोन्नति दलित अफसरों को रिवर्ट करना प्रमुख था। बाद में जब भाजपा का तेजी से उभार हुआ और उन्होंने पाया कि सवर्णों के लिए उनकी लीडरशिप झेलना कितना मुश्किल हो रहा था तो गलती सुधारने के लिए उन्होंने एक बार फिर मायावती से 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन किया। मैनपुरी की सभा में उन्होंने दलितों में अपना अनुराग और आदर प्रदर्शित करने के लिए पत्नी डिंपल से मंच पर मायावती के चरण स्पर्श करा दिये लेकिन इससे यादवों का अहम इतना चोटिल हुआ कि वे अखिलेश को खरी खोटी कहने लगे। बाद में जब अखिलेश को अपनी हालत माया मिली न राम की लगी तो उन्होंने इससे सबक लेकर दलितों से दूरी बना ली। उनके समर्थक दलित बुद्धिजीवी तक इस रवैये को लेकर उन्हें आगाह करने का प्रयास करते रहे पर अखिलेश ने अपनी नीति नहीं बदली। इसका नतीजा यह हुआ कि जब इस चुनाव में बसपा लगभग खत्म होने की स्थिति में दिखी तो दलित वोटर सपा के लिए डायवर्ट होने की बजाय भाजपा के प्रति डायवर्ट हो गया। इन अंतःक्रियाओं से एंटीइनकम्बेंसी ने जितना भाजपा का नुकसान किया उससे ज्यादा पूर्ति कर दी।
यादवों का प्रोजेक्शन-
कम से कम मुझ जैसे जो लोग सकारात्मक गुणों के कारण यादव समाज के बहुत कायल हैं। वे जानते हैं कि एक समय उत्तर प्रदेश में प्र्रगतिशील राजनीति के बड़े संवाहक के रूप में यादवों ने भूमिका निभाई थी पर मुलायम सिंह यादव ने उन्हंे दूसरा चस्का लगा दिया। इसके असर के कारण हाल के चुनाव में यादवों का प्रोजेक्शन अपने वर्चस्व की बहाली के लिए कटिबद्ध होने के रूप में हुआ क्योंकि सपा से उनके भावुक लगाव में कहीं कोई राजनीतिक औचित्य नजर नहीं आया। नतीजतन यादवों के अति उत्साह ने अन्य समुदायों को यहां तक कि दलितों के साथ-साथ दूसरी पिछड़ी जातियों के लोगों को भी सशंकित कर दिया इसका प्रमाण भाजपा की मत प्राप्ति के प्रतिशत में देखा जा सकता है। जिस तरह से योगी शासन के खिलाफ लोग मुखर थे उसके चलते भाजपा का मत प्रतिशत कम होना चाहिए था पर इसकी बजाय बढ़ गया। निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि सपा का मत प्रतिशत केवल मुस्लिम वोटों के उसके पक्ष में एकजुट हो जाने से बढ़ा है जबकि अन्य समुदायों का विश्वास बटोरने में वह कोई सफलता हासिल नहीं कर सकी है। यही कारण है कि एंटीइनकम्बेंसी फैक्टर केवल भाजपा के पक्ष में असंतुष्ट वोटरों के मतदान के लिए न निकलने तक सीमित रहा यह भाजपा के खिलाफ वोटिंग में फलित नहीं हुआ।
सामाजिक न्याय के मुद्दे से कतराने का खामियाजा-
अखिलेश यादव ने अभिजात वोटरों का जायका खराब न हो जाने के भय से सामाजिक न्याय के मुद्दे को उठाने से परहेज किया। वे चाहते तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की चोरी, अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग हाशियें पर पड़े तबकों की उपेक्षा, पिछड़ों और दलित समुदाय के मंत्रियों को श्रीहीन विभाग दिये जाने की बात को मुद्दा बना सकते थे पर वे अपने भाषण में ऐसी चर्चा से संकोच करते रहे। दूसरे वर्ण व्यवस्था की सफलता का मुख्य कारण विद्वानों ने यह बताया है कि इसमंे हर समुदाय को दूसरे किसी के मुकाबले श्रेष्ठ का गौरव हासिल करने की गुंजाइश है और इसके सुख से कोई जाति वंचित नहीं होना चाहती। यादव दलितों पर अपनी सुपरनेशी के इतने लालायित हैं कि वर्ण व्यवस्था से भिड़कर इससे हाथ धोना देने चाहते। जैसे अनुसूचित जातियों में ही मायावती के सजातीय बाल्मीकि समाज के अपने भाइयों के साथ वैसा ही दुराव रखते हैं जैसा अन्य जातियां उनके साथ। वैश्य होकर भी लोहिया जी ने उच्चता बोध की इस मृगमरीचिका से सभी को उबारने के लिए जाति तोड़ो आंदोलन से लोगों को जोड़ा पर मुलायम सिंह ने लोहियावाद का ढ़ोंग करते हुए उनकी थ्योरी की गर्भ से कहो कि हम यादव हैं, हम पिछड़े वर्ग के हैं जैसे नारे बुलवाकर उल्टी गिनती शुरू करा दी। अधिकार की मांग का जज्बा लोगों में जगाये रखने की जिम्मेदारी जिन पर थी जब उन्होंने ही सामाजिक न्याय की तड़प को ठंडा करने का काम कर डाला तो इस मुद्दे का ओझल हो जाना लाजिमी था। भाजपा को इसका पूरा फायदा मिला। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरशाही को पनपाने का आरोप लगा जिसे लोगों ने यह सोचकर नजरंदाज कर दिया कि सामाजिक संरचना के कारण जिस जाति का मुख्यमंत्री होगा वह अपनी जाति को अतिरिक्त महत्व देने के लिए प्रेरित किया ही जायेगा। इस मामले में कोई दूध का धुला नहीं है। अखिलेश यादव कौन अपवाद हैं।
भाजपा का लाभार्थी कार्ड-
मोदी-योगी का लाभार्थी कार्ड भी भाजपा को खूब फला। समाजवादी पार्टी की सरकार और इसके पहले रही सरकारों ने भी कल्याणकारी योजनायें चलाई थी पर उनमें खामी यह थी कि नियम कानून की बजाय उनका लाभ सिफारिशों पर देने की परंपरा अपनाई जा रही थी जिससे अपात्र बहुसंख्या में लाभ उठा रहे थे और गरीब कुंठा के शिकार हो रहे थे। दूसरे इन योजनाओं में ऐसी प्रक्रियायें अपनाई गई जिससे संबंधित पार्टी के कार्यकर्ताओं को मजबूती मिले। उन्होंने पैसा भी बनाया और कृतज्ञता का व्यक्तिकरण भी किया। जिनको आवास या पेंशन मिलती थी वे उनके एहसानमंद होते थे जो कार्यकर्ता के भेष में बिचैलियें की भूमिका निभा रहे थे। ऐसे लोगों में तमाम चुनाव के समय अपनी पार्टी बदल लेते थे नतीजतन लाभार्थी की बफादारी भी उनके साथ शिफ्ट हो जाती थी। अब लाभ सीधे हितग्राही के खाते में पहुंचता है जिससे वह सरकार का आभारी होकर उसके साथ बफादारी निभाता है। बसपा के अभाव में इसी कारण दलितों को भाजपा से बफादारी निभाना अपना कर्तव्य लगा। गरज यह है कि लाभार्थी योजनाओं में नार्मस का पूरी तरह पालन सबका साथ सबका विकास के नारे के अनुरूप हुआ जिसमें दलित और मुसलमान गरीब ज्यादा होने की वजह से सर्वाधिक लाभान्वित हुए और ऐसे में दलितों का नमक का हक अदा करने के लिए चुनाव के दौरान कमल का बटन दबा देना स्वभाविक था।
K.P.Singh
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भाई लेखक महोदय अभी भी पूर्वाग्रह से मुक्त नही हुए हैं, व्याख्या विश्लेषण क्या करेंगे, खैर इन्हें यह नही पता कि बसपा का दलित वोट पूरी तरह उसके साथ रहा, रविदास/जाटव ही मुख्य हैं 13-14 प्रतिशत बसपा को उन्ही का वोट मिला, मुलसमानों का, अन्य दलित का, ब्राह्मणों का वोट नही मिला, बसपा और सपा, दोनो का 24-25 वोट है वह अगर बढा तो सत्ता अन्यथा चित, इसबार यादव-मुस्लिम-राजभर-कुर्मी और कुछ प्रतिशत जाट सपा के साथ थे अगर गैर यादव-मुस्लिम साथ मे नही रहते तो 50 के अंदर सिमट जाती सपा, अब सपा कभी अपनी बदौलत सरकार नही बना सकती, वंशवाद, जातिवाद का क्षय होते जाएगा, पीढियों के साथ मानसिकता भी बदलती है ,शादियों में अब बहुये डांस कर रही हैं
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