7.3.22

पत्रकारिता का राष्ट्रधर्म

जयराम शुक्ल-

राष्ट्रवाद इन दिनों विमर्श के केन्द्र पर है। भारत के संदर्भ में और वैश्विक संदर्भ में भी। राजनीतिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्ष व विपक्ष पर खूब चर्चाएं हुईं, हो रही हैं, तो भला पत्रकारिता इससे क्यों अछूती रहे। उसमें भी राष्ट्रवाद के तत्व तलाशे जा रहे हैं।
मैं 'राष्ट्रवाद' शब्द का पक्षधर नहीं हूँ। क्योंकि जहाँ वाद है वहाँ विवाद स्वमेव चला आता है। राष्ट्र न वाद का विषय है और न विवाद का। वह इससे परे,  इससे उपर है। राष्ट्र एक विचार से भी आगे धर्म है..राष्ट्रधर्म।  यह धर्म सभी पंथों से ऊपर है। पंथ की पहचान आराधना पद्धति, आचरण संव्यवहार से होती है। राष्ट्र किसी भी नागरिकों का आत्मतत्व है जो परिवार- समाज के पथ से आगे बढ़ता हुआ एक विशिष्ट सांस्कृतिक परिचय के साथ प्रकट होता है। यह मेरा अपना विवेचन है।

लेकिन जिस राष्ट्रवाद पर चर्चा होती है उसका अर्थ अलग है। वामपंथी या मार्क्सवादी इसे दक्षिणपंथी अवधारणा मानते हैं। राष्ट्रवाद के विचार के साथ धर्मतत्व को जोड़कर इसे उदात्तता से कट्टरता की ओर धकेल देते हैं। सो इसलिए पहले यह जान लेना जरूरी है कि राष्ट्र क्या है, राष्ट्रवाद क्या है इसके आधारभूत तत्वों को हम जान समझ लें। हमारे देश भारतवर्ष में राष्ट्र की अवधारणा पश्चिम के देशों से अलग है। यूरोपीय देशों का राष्ट्रवाद दो विश्वयुद्धों की कोख से जन्मा है जबकि हमारा राष्ट्रवाद पुरातन और सनातन है।

आज का राजनीति शास्त्र कहता है कि राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जनसमूह के रूप में की जा सकती है जो कि भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पाई जाती हों।

भारत के संदर्भ में राष्ट्र की अवधारणा वृस्तित व व्यापक है। हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं। हम सर्वेभवन्तु सुखिनः की कामना करते हैं।
हमारा धर्म सार्वभौमिक है उसका कोई नाम नहीं, वह सनातन है, सृष्टि के अस्तित्व में और प्राणियों में चेतना के आने के साथ ही।

इसलिए हम प्राणियों में सद्भावना और जगत के कल्याण की बात करते हैं। हम धर्म की जय की कामना करते हैं। क्योंकि धर्म हमारे लिए रिलीजन नहीं बल्कि हमारे समाजिक जीवन में कर्तव्य और आचरण का विषय है। हमारी परिभाषा में धर्म वह तत्व है जो मनुजता को पशुता से अलग पहचान देता है।  

युगों से हमारा धर्म ही हमारा राष्ट्रधर्म रहा है। हमारी राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान रही है। अथर्ववेद में धरती माता का यशोगान किया गया है।
माता भूमिः पुत्रोहं पृथ्विव्याः
अर्थात भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। हम भारतीयों के लिए राष्ट्र कागज में रेखांकित नक्शा कभी नहीं रहा। राष्ट्र हमारे लिए भाव है।

 लंका विजय के पश्चात जब लक्ष्मण वहीं निवास करने की बात करते हैं तब श्रीराम उन्हें उपदेश देते हैं-
'अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते,
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'

लक्ष्मण सोने की लंका तो कहीं लगती ही नहीं जन्मभूमि हमारी माता है..उसके समक्ष स्वर्ग भी तुच्छ है।

महाभारत का जो युद्ध हुआ वह वस्तुतः राष्ट्रधर्म के संस्थापनार्थ हुआ। राष्ट्र उच्च नैतिक मानदंडों का भाव है। महाभारत में इसके संकेत बड़े ही खूबसूरत और प्रग्या चक्षु को खोलने वाले हैं।

गीता में जो उपदेश कृष्ण ने दिया है उसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है...सुप्रसिद्ध श्लोक है- यदा यदा हि धर्मश्य ग्लानिर्भवति भारतः, परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुश्कृतां अभ्युत्थानम् च धर्मश्य संभवामि युगे -युगे।

यहां श्रीकृष्ण जिस धर्म की बात करते हैं वस्तुतः वह राष्ट्रधर्म है। वे कहते हैं कि जब धर्म के पतन से राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में पड़ता है तब मनुष्यों के अभ्युत्थान के लिए मैं आता हूँ।

महाभारत में एक नैतिक मूल्यों के राष्ट्र की स्थापना के लिए युद्ध हुआ है। यह युद्ध विदेशी ताकतों के खिलाफ सीमा विस्तार या साम्राज्यवाद की पिपासा के लिए नहीं था। राष्ट्रधर्म से पथभ्रष्ट व पतित हुए अपनों के खिलाफ राष्ट्रवादियों का युद्ध था।

देखिये कितने शानदार प्रतीक हैं..धर्मराज युधिष्ठिर के नेत्तृत्व में धृत राष्ट्र की सेना के खिलाफ युद्ध है। धृतराष्ट्र यानी कि दिशा और दृष्टहीन राष्ट्र के खिलाफ..। संदेश साफ है कि देश के भीतर भी यदि कोई राष्ट्र के खिलाफ काम करता है तो उसको दंड देना अपरिहार्य है। इसलिए मेरा मानना है कि राष्ट्र सीमाओं से परे एक भाव है।

आप यह भी कह सकते हैं कि जो देश नाम का तत्व है न वह वस्तुतः देह है। राष्ट्र उसकी आत्मा है, उसका प्राण है। राष्ट्रीय तत्व के समाप्त होते ही देश भी पार्थिव शरीर की भाँति हो जाएगा।

हमारे यहां राष्ट्र शब्द के समानार्थी शब्दों ने बड़ी समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। राष्ट्र को अँग्रेजी में नेशन और उर्दू में कौम कहते हैं। मूलतः यूरोप के नेशन की अवधारणा अलग है। इसी तरह कौम भी बिलकुल अलग बात है।

 यूरोप का नेशन जियोपलटिकल है, एक तरह से भूगोलजन्य राजनीतिक। उसी तरह कौम एक रिलियस इनटाइटी है। अक्सर एक शब्द सुनने को मिलता है कि हम अपनी कौम के लोगों से तकरीर करता हूँ, अपील करता हूँ। कौम शब्द का आशय सहधर्मी नागरिकों के नेशन से निकलता है। सत्तर साल से  कौमी एकता का ढिंढोरा पीटा जाता रहा है...हर धर्मावलंबियों को अलग-अलग कौमें बताते हुए..एक राष्ट्र में इतनी सारी कौमें.. यानी कि राष्ट्र के भीतर भी कई राष्ट्र। बौद्धिकों ने ऐसे ही विमर्श दिए राष्ट्र को खंड-खंड राष्ट्रों में बाँटते हुए।

राष्ट्र बिल्कुल अलग है। जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध आह्वान गीत है- हम करें राष्ट्र आराधन..। प्रसाद ने यह भाव चाणक्य कालीन भारत से लिए है। सम्राट चंद्रगुप्त के मगध-पाटिलपुत्र के समकालीन और भी राज्य थे जिन्हें जनपद, महाजनपद कहा गया। चाणक्य ने इन जनपदों-महाजनपदों के समूह को जोड़कर विशाल भारत गणराज्य की अवधारणा दी। जो तत्व मिलकर गणराज्य बनाते हैं वस्तुतः वही राष्ट्रभाव है। प्रसाद उसी भाव की आधारशिला पर खड़े राष्ट्र के आराधन की बात करते हैं।

अब आते हैं राष्ट्रवाद पर। राजनीतिशास्त्र कहता है- राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्त्वों में राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पाई जाने वाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।

हमारे राष्ट्रवाद की अवधारणा सनातन है, चिरंतन और नित्यनूतन है। इसके मूल में राजनीति व भूगोल नहीं अपितु संस्कृति है..। इसलिए भारत का जो राष्ट्रवाद है वह वस्तुतः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

भारत का अध्यात्म, अध्यात्म आधारित जीवन और उसपर आधारित धर्म ही हमारे देश भारत के राष्ट्रवाद का, यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नियामक है। उस अध्यात्म से, अध्यात्म आधारित जीवन से और उसपर आधारित धर्म से यानी इस संपूर्ण से राग, लगाव, अनुराग ही हमारी राष्ट्रीयता का पर्यायवाची है।

सो जो आपका राष्ट्रवाद है वह वस्तुतः हमारा राष्ट्रधर्म है। अब हम राष्ट्रवादी पत्रकारिता या पत्रकारिता में राष्ट्रवाद पर विचार करते हैं। वैदिक और पुराणकाल के जनसंचार माध्यमों की बात को अलग धरते हुए हम भारत में आधुनिक पत्रकारिता के उद्भव व विकास की बात करते हैं। पहला अखबार कलकत्ता(कोलकाता) से एक अँग्रेज जेम्स आगस्टस हिकी ने निकाला..बंगाल गजट..के नाम से। यह अखबार अँग्रेज अफसरानों की खबर लेता था। यह सनसनीखेज खुलासे करता था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी किसकिस किसिम के धतकरम करके ग्रेटब्रिटेन और क्राउन की नाक कटवा रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो हिकी की अपने राष्ट्र इंग्लैंड के प्रति प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखती है। हिक्की के दुश्मन भारतीय नहीं बल्कि वही अँग्रेज थे जिनकी वो खबर लेता था।

हिक्की का अखबार भारतीय पत्रकारिता के लिए प्रेरक साबित हुआ। इसे सामाजिक पुनर्जागरण का अभियान चलाने वालों ने एक औजार की तरह प्रयोग किया। कोलकाता से भारतीयों ने बंगाली, अँग्रेजी और हिन्दी में अखबार निकाले। राजाराम मोहनराय जैसे सामाजिक आंदोलन चलाने वाले महापुरुषों से लेकर बिपिन चंद्र पाल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने राष्ट्रधर्म के प्रति अपने कर्त्तव्य निर्वाह के लिए अखबार निकाले। महाराष्ट्र में बालगंगाधर तिलक, पंजाब में लाला लाजपत राय, उत्तरभारत में गणेश शंकर विद्यार्थी, विष्णुराव पड़ारकर, मदनमोहन मालवीय, दक्षिण में सुब्रमण्यम भारती, राजगोपालाचारी आदि ने पत्रकारिता में राष्ट्रवादी तत्व भरे। इसकाल की पत्रकारिता को विशुद्ध राष्ट्रवादी पत्रकारिता कह सकते हैं। इसके समानांतर अँग्रेजों ने पायनियर, स्टेटसमैन, टाइम्स आफ इंडिया जैसे अखबार निकाले जो ब्रितानी हुकूमत को भारत के लिए ईश्वरीय आदेश बताते थे। अँग्रेजों के इन अखबारों को भी उनकी राष्ट्रवादी पत्रकारिता का प्रतिफल कह सकते हैं। यानी कि आजादी के पहले पत्रकारिता में दरअसल दो राष्ट्रवादी ताकतों के बीच संघर्ष था। भाषाई अखबार भारतीय राष्ट्रवाद का ध्वज थामे थे तो अँग्रेजी अखबारों के मास्टहेड में यूनियन जैक था।

आजादी के बाद पत्रकारिता का रूप बदला वह मिशन से प्रोफेशन में ढ़लने लगी। मेल माल हो गया और पाठक उपभोक्ता। यही रूप विश्व की पत्रकारिता का रहा है जिसका उद्देश्य धन कमाना और सत्ता पर दवाब बनाना रहा है। पर इन सब के बावजूद जब जब बात अपने राष्ट्र के हितों की उठती है तो पत्रकारिता का मिजाज बदल जाता है। विश्व मिडिया पर सबसे ज्यादा प्रभाव अमेरिका और इंग्लैंड के जनसंचार माध्यमों का रहा है। हाल ही में यूक्रेन और रूस के संघर्ष में पश्चिम का मिडिया रूस को विलेन बनाने पर तुला दिखता है। इस कार्रवाई के पीछे रूस की क्या विवशता है, सही ढंग से कहीं पढ़ने को नहीं मिली। सोवियत संघ के बिखराव के पीछे अमेरिका और यूरोप के मीडिया के प्रपोगंड़ा का हाथ था। कम्युनिस्ट सोवियत मीडिया के मोर्चे पर मात खा गया और सँभल नहीं पाया टुकड़े-टुकड़े हो गए। पिछले कुछ वर्षों से पुतिन के रूस के नेतृत्व में सोवियत के रियूनियन की कोशिशें चल रही हैं। संघ से अलग हुए प्रायः देश पुनः रूस की छतरी के नीचे आने का मानस बना रहे थे तो यूरोप और अमेरिका को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। उक्रेन के कंधों पर धरकर रूस पर मीसाईल दागने की व्यूहरचना हुई लेकिन मामला अब उल्टा पड़ गया।

इसे राष्ट्रवादी पत्रकारिता का ही प्रभाव समझिए कि आम भारतीय रूस के खिलाफ नहीं है और न ही वह पुतिन को विलेन समझता। शुरुआत में यूरोपीय मीडिया की रौ पर बहे कुछ मीडिया घराने और उनके पत्रकार अब विश्लेषण करके बता रहे ह़ै कि..रूस ने कब-कब किस गाढ़े वक्त पर भारत का साथ दिया। रूस अमेरिका के मुकाबले हमारे लिए कितना विश्वसनीय है। यह भी चौकाने वाली बात हुई कि भारत का चिरप्रतिद्वंद्वी चीन भी रूस के साथ खड़ा है फिर भी भारतीय जनमानस रूस के साथ है। यूक्रेन और भारत के कैसे रिश्ते रहे, कश्मीर और धारा 370 के मामले में वह किस हद तक भारत के खिलाफ गया यह बातें साक्ष्य के साथ हर जिग्यासु भारतीय जानने लगा है।

यह बात अलग है कि भारत में राष्ट्रवादी पत्रकारिता को आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और अखंड भारत की अभिलाषा के साथ जोड़ा जाने लगा है। ऐसी थ्योरी रचने वालों का एजेंडा राजनीतिक है। ऐसे एजेंडाबाजों में ज्यादातर वो बौद्धिक शामिल हैं जो 1967 के बाद सत्ता के अकादमिक प्रतिष्ठानों में बैठकर 2014 के पहले तक मलाई छानते रहे, सम्मान, अलंकरण और पारितोषिक प्राप्त करते रहे। राष्ट्रवाद की इनकी परिभाषा संकुचित और छिद्रान्वेषी है।

राष्ट्रबोध भारतीय पत्रकारिता के मूल में ही रहा। उसका उद्भव और विकास ही राष्ट्र व समाज के कुशल क्षेम के लिए हुआ..।

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