12.5.22

सड़क पर नंगा करती है नये भारत की पुलिस

पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए।

और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कट नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।

फिर वे यहूदियों के लिए आए और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था‌ फिर वे मेरे लिए आए

और तब कोई बचा ही नहीं था जो मेरे लिए बोलता"।

मार्टिन नीमोलर ने यह कविता कब और किसके लिए लिखी, यह तो पता नहीं पर यह हर काल में सच के लिए आवाज उठाने वालों पर पूरी तरह से लागू होती है। चाहे वह नेता हो समाजिक कार्यकर्ता हो ट्रेड यूनियन लीडर हो अखबार हो या अखबारनवीश। सब पर लागू होती है। 

फिलहाल आज बात सिर्फ और सिर्फ पत्रकार की, पत्रकारों के साथ आएदिन होने वाले दमन और उत्पीड़न की। पहले पत्रकार और पत्रकारिता पर दमन/उत्पीड़न की खबरें गाहे-बगाहे सुनने को मिलती थी अब इतनी होने लगी है कि कौई तवज्जो ही नहीं दे रहा है। आखिर दे भी क्यों ? हम पत्रकारों किसी पर हुए अत्याचार विरोध किया है किसी आंदोलन में हिस्सेदारी की छोड़िए औपचारिक समर्थन तक नहीं किया।  बस खबरें छाप दी। वह तो पेशागत मजबूरी है। लब्बो-लुआब यह की न खुद आंदोलन किया और न ही किसी आंदोलन को अपना समर्थन दिया। अपने अखबार में खबर छाप दी बहुत हुआ तो अलग से स्टोरी लिख दी और अपने कर्त्तव्य की ' इति-श्री ' कर ली, यानी गंगा नहा लिए। इसी का नतीजा है मालिकों द्वारा पत्रकारों का शोषण और सत्ता के मद में चूर तबके दर्शाया उत्पीड़न। 

अब पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को ही लें लीजिए। शेयर मार्केट में उछाल की तरह ही पत्रकारों के दमन-उत्पीड़न में भी उछाल आया है। केंद्र की मोदी सरकार ने जिस तरह से सच बोलने वालों की आवाज दबाने की कोशिश की है उसी तरह से लिखने-दिखाने वालों को जेल के सीखचों के पीछे डाला। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक स्कूल में मध्याह्न भोजन योजना के तहत परोसे गए भोजन में छात्रों को नमक-रोटी खिलाने की खबर छापने वाले पत्रकार को पुलिस प्रशासन ने जेल में ठूंस दिया। जबकि होना यह चाहिए था कि, शिक्षा विभाग संबंधित लोगों को दंडित करता। सरकारी महकमों ने क्या नहीं किया और क्यों नहीं किया यह एक अलग बात है। पत्रकार संगठनों ने क्या किया ? अगर उसी समय बड़े पैमाने पर विशेष किया होता तो कुछ और होता। इसी माह पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया में बोर्ड परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक होने की खबर छापी। जिला प्रशासन ने तीन पत्रकारों को जेल भेज दिया। तीन सप्ताह बाद वे जमानत पर छूटे। पेपर लीक की खबर तो अखबार ने छाप दी पर अपने ही रिपोर्टर के साथ क्या हुआ कई दिनों तक यह खबर ही नहीं। पत्रकार को पत्रकार मरे और अपनी लड़ाई अकेले लड़े। इसी तरह उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक। पत्रकार को पुलिस ने नग्गा कर दिया और गले में आई डाल कर कहा कि वो इंटरव्यू। घटना इसी साल अप्रैल 22 के तीसरे सप्ताह की है। घटना को अंजाम दिया पुलिस ने। इसी तरह मध्य प्रदेश के जिला सीधी की पुलिस ने यूट्यूब चैनल चलाने वाले आधा दर्जन से अधिक पत्रकारों को गिरफ्तार किया और अर्द्धनग्न कर थाने में बैठाये रखा। दोनों घटनाओं में पत्रकारों को अपमानित करने के लिए, घटना को सार्वजनिक करने के लिए फोटो खींचकर वायरल कर दिया गया। इसी तरह की एक घटना यूपी के शाहजहांपुर की है। अपने को यूपी का सबसे बड़ा अखबार कहने के मद में चूर इस अखबार ने मतदान केंद्र के बाहर मतपत्र होने की खबर छाप तो दी पर रिपोर्टरों का साथ नहीं दिया। इन रिपोर्टरों ने अदालत में अपनी लड़ाई खुद लड़ी। जबकि वह अपने आपको युपी का सबसे बड़ा अखबार होने का दावा करता है। एक अखबार दैनिक भास्कर है। अभी कुछ ही महीने हुए सरकार के आईटी विभाग ने अखबार से इतर इसके कई कार्यालयों/परिसरों पर छापे मारे, दूसरे दिन न्यूज़ चैनल भारत समाचार के लखनऊ स्थित मुख्य कार्यालय/चैनल हेड/अधिकारियों के आवास पर छापे मारे। इतने से ही सरकार को संतोष नहीं मिला। उसके तुरंत बाद कुछ पुलिस वाले द वायर के कार्यालय पर जा धमके। और अपने आने का कारण 15 अगस्त की सुरक्षा का हिस्सा बताया। पुलिस ने उस विनोद दुआ के बारे में पूछा जो लगभग दो साल से द वायर में हैं ही नहीं और अब तो दुनिया में भी नहीं हैं। कुछ इसी तरह की घटना घटी अभिसार शर्मा के साथ। उनको सबक सिखाने के लिए सरकारी एजेंसियों ने उनके मीडिया संस्थान पर धावा बोल दिया।

अगर पत्रकार और पत्रकारों के संगठनों ने सरकारी संरक्षण में आएदिन होने वाले अत्याचार के खिलाफ एक होकर मोर्चा खोला होता तो वर्तमान केंद्र गृह राज्य मंत्री की इतनी हिम्मत नहीं पड़ती कि वे पत्रकारों के समूह में शामिल नामी-गिरामी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक पत्रकार के साथ बदसुलूकी करते। इस घटना के बाद हुआ यह कि वह मीडिया समूह अपने चैनल पर बहसिया शो में रस्मी विरोध कर दिया। न घरना-प्रदर्शन किया, न मार्च निकाला और न ही चैनल की स्क्रीन ही ब्लैक की। जो प्रचलित लोकतांत्रिक विरोध का तरीका है। सुना है कि इमरजेंसी लगने कुछ पर अखबारों ने संपादकीय के स्थान को खाली छोड़ा था। 

दरअसल औरों की तरह ही पत्रकार भी खांचों में बंटे हुए हैं वो भी वर्षों से। पहले भी किसी पत्रकार के साथ कोई हादसा होता तो उसी शहर से छपने वाला प्रतिद्वंद्वी अखबार कहीं कोने में छोटी सी खबर छाप देता और इस छोटी सी खबर में भी कोष्ठक में यह लिखना नहीं भूलता कि मेरे अखबार का नहीं। चाहे वह सड़क हादसे में मौत की ही खबर क्यों न हो।

माना कि इस तरह की खबरें हाईलाइट होने पर मीडिया हाउस को उसे अपना कर्मचारी मानना पड़ेगा और नियमानुसार बकायों का भुगतान करना पड़ेगा।पर किसी पत्रकार को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है तो वह भी प्रतिद्वंद्वी अखबारों या खबरिया चैनलों से गायब रहतीं हैं। अगर यह ना होता तो आज कानपुर में न्यूज़ पोर्टल के लिए काम कर रहे चंंदन जायसवाल के साथ प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के पत्रकार ही नहीं पत्रकार संगठनों के साथ-साथ मीडिया हाउस भी चट्टान की तरह खड़े रहते। 

अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं कानपुर के चंदन जायसवाल घटना कवर करने के लिए ये मौके पर पहुंच गये‌। कानपुर के साथी पत्रकार अनुराग श्रीवास्तव के अनुसार पुलिस का कहना है कि वे शराब के नशे में चूर थे और नशे की हालत में फैक्टरी के बाहर आग लगाने की कोशिश कर रहे थे। पुलिस के दो-चार आरोपों को अग्रिम रूप से बिना लगाए मान लेते हैं तब भी गैर लोकतांत्रिक देश की पुलिस को भी यह अधिकार नहीं है कि वह सड़क पर किसी के कपड़े उतरवा ले और फोटो वायरल कर दे। पुलिस को बंद कमरे में भी अपराधियों तक के कपड़े उतरवाने का अधिकार नहीं है। फिर भारत तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और विश्वगुरु बनने के मुहाने पर भी खड़ा है। एक खास विचारधारा का तो यहां तक दावा है कि, निकट भविष्य में हम दुनिया का नेतृत्व करेंगे...पर सार्वजनिक रूप से कपड़े उतारवा कर वो भी एक पत्रकार कर ...!!!

ऐसे में किसी की लिखी यह कविता याद आती है

' सड़कों पर वर्दियां हैं

और ... 

वर्दियों में आतंक।

अपराध तलाशती वर्दियां

औरतों के पेटीकोट में झांकतीं हैं

और...

चरित्र का खेल खेलतीं हैं।।


अरुण श्रीवास्तव

देहरादून

8218070103

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