4.9.22

गोर्बाचोव नायक या खलनायक

Krishan pal Singh-

अमर उजाला में पिछले कुछ समय से रविवार को न्यूयार्क टाइम्स के किसी एक लेख को अनुदित करके प्रकाशित करने का जो क्रम चलाया है वह हिन्दी समाज के जिज्ञासु वर्ग के लिए काफी उपयोगी साबित हो रहा है। इससे बाहर की दुनिया के घटनाक्रम और समाज के कई अछूते तथ्यों से अवगत होने का अवसर अमर उजाला के प्रसार क्षेत्र के हिन्दी पाठकों को मिला जाता है। जिन्हें प्राय हिन्दी अखबार बौद्धिक तौर पर कुएं के मेढ़क की नियति में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।


अमर उजाला के इस रविवार में नई जमीन पृष्ठ पर द न्यूयार्क टाइम्स के पाल क्रुगमैन का हाल ही में दिवंगत हुए रूसी नेता गोर्बाचेव के बारे में बेहद जानकारी परक लेख प्रकाशित किया गया है जिसे भारत के लोगों को अवश्य ही गंभीरता से पढ़ना चाहिए। वैसे तो पश्चिम की मीडिया निरपेक्ष तार्किकता में अपने तमाम विश्वास के बावजूद वर्ग स्वार्थ से परे नहीं है। इसके चलते कई बार उससे चूक होती है। जैसे जब तक भारत की ओर बिट्रेन की निगाहें टेढ़ी थी तब तक मीडियायी निष्पक्षता के सबसे बड़े स्वयंभू ठेकेदार बीबीसी के मंच पर स्वर्ण मंदिर में हुई आपरेशन ब्लू स्टार की कार्रवाईयों के बाद होने वाली आतंकवादी घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में प्राय: यह कहा जाता था कि भारतीय सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर पर किये गये हमले के बाद अमुक घटना हो गई। इसमें ध्वनित होता था कि स्वर्ण मंदिर कोई संप्रभु स्थान हैं जहां भारतीय सेना ने अटैक किया था। इसमें पृथकतावादी खालिस्तानी आंदोलन को शह देने की शरारत स्पष्ट परिलक्षित थी।

बाद में जब राजीव गांधी और माग्रेट थ्रैचर की मुलाकात के बाद दोनों देशों के संबंध स्नेहिल हो गये तो बीबीसी के सुर बदल गये। जिन खबरों में भारतीय सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर में की गई कार्रवाई को हमले का नाम लिया जा रहा था। अब नई खबरों में कहा जाने लगा कि स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना द्वारा की गई कार्रवाई के बाद जो कि ईमानदार संतुलन का तकाजा था।

इसी तरह अमेरिका ने जब ईराक के तेल कुओं पर अपनी कंपनियों के कब्जे के लिए हमला बोला तो अमेरिका सहित पश्चिमी मीडिया ने इसका नैतिक औचित्य प्रतिपादित करने को सद्दाम हुसैन के पास परमाणु हथियार होने का जमकर प्रोपोगंडा किया। जबकि बाद में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला जिससे साबित होता कि सद्दाम ने रासायनिक हथियारों का जखीरा जमा कर रखा था। फिर भी अन्य लोगों की तरह हम भी सहमत हंै कि पश्चिम का मीडिया दुनिया के किसी दूसरे हिस्से के मीडिया की तुलना में अधिक प्रमाणिक है क्योंकि उसने अपने आप को प्रोफेशनल मर्यादाओं में बांध रखा है।

गोर्बाचोव को पश्चिमी समाज एक मसीहा के तौर पर पेश करता रहा है इसलिए उसने उनके गुमनाम देहावसान के बाद एक बार फिर उनका पुर्नस्मरण भव्य महिमा मंडन के साथ किया। इसमें पश्चिम की मीडिया भी बराबर की साझेदार रही। गर्बाचोव के वर्ग विश्वासघात के कारण अमेरिका को अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी सोवियत संघ को ठिकाने लगाने का अवसर मिल गया। उनके पैरेस्त्रेइका और ग्लासनोस्त अभियान को क्रांतिकारी सुधार के कदम के रूप में प्रस्तुत किया। जबकि बाद में इसी के चलते सोवियत संघ का दबदबा खतम हो गया। उदारीकरण के बाद बहुत जल्दी ही लोग सच्चाई को समझ गये।

नतीजतन नोबल पुरस्कार मिलने क बावजूद गर्बाचोव को कुछ ही दिनों बाद नये रूस में हाशिये पर जाना पड़ा। रविन्द्रनाथ टैगोर को श्रृद्धांजलि के साथ मैं यह कहना चाहूंगा कि पश्चिम के जो बड़े-बड़े पुरस्कार हैं वह उसके राजनैतिक स्वार्थों के लिए मोहरों का काम करने वाले तथाकथित महापुरूषों को ही प्राय मिलते हैं। फिर वह चाहे नोबल पुरस्कार हो या मैग्सेसे अवार्ड। चंदौली की कालीन के पश्चिमी कारपेट उद्योग पर भारी पड़ने की वजह से नोबल पुरस्कार समिति का अनुग्रह कैलाश सत्यार्थी की ओर हो गया। जिन्होंने बाल श्रम के खिलाफ जागरूकता की मुहिम वास्तविकता में बाहरी दुनिया से प्रेरित होकर चलाई थी ताकि चंदौली के कालीन उद्योग को झटका लग सके क्योंकि इसमें बाल मजदूरों का हुनर ही इसकी जादूगरी का कारण साबित हो रहा है।

प्रसंगवश मैग्सेसे अवार्ड जाने माने पत्रकार रवीश कुमार को प्रदान हो चुका है लेकिन कई बार इन पुरस्कारों की समिति अपनी साख ऊंची रखने के लिए अपवादों पर मेहरबान होने को भी मजबूर हो जाती है। इसी कारण गर्बाचोव के लिए उनके निधन पर पश्चिमी जगत के श्रृद्धा के अंधड़ की अनदेखी करने की जरूरत रूस के वर्तमान राष्ट्रपति पुतिन को महसूस हुई। उनकी अंत्येष्टि में न जाकर पुतिन ने दुनिया के सामने जाहिर कर दिया कि अमेरिका और उससे प्रभावित विश्व बिरादरी कुछ भी कहे पर अपने गृह देश में उनको ट्रेटर या खलनायक का ही दर्जा दिया गया है जिसमें रियायत की गुंजाइश शोक पूर्ण क्षणों में भी नहीं है।

अमर उजाला में इस रविवार का न्यूयार्क टाइम्स का प्रकाशित लेख भी गोर्बाचोव को ही समर्पित है और इसके लेखक पाल क्रुगमैन भी इस मामले में काफी हद तक अपने देश की भावनाओं से ही ओतप्रोत नजर आये। पर एक असली पत्रकार में जो कीटाणु होते हैं वे उसे एक हद से ज्यादा बेईमानी नहीं करने देते। क्रुगमैन ने भी यह झलकाया। लेख में उन्होंने साफगोई से माना कि जब गर्बाचोव के विचारों के कारण रूस में समाजवादी नीतियों से मुंह मोड़कर बाजार व्यवस्था की ओर अग्रसरता दिखायी गई तो इसके नतीजे भयावह हुए। सोवियत संघ के पतन के बाद रूस में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में 40 फीसदी की गिरावट आयी यह गिरावट आर्थिक महामंदी के समय अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आयी गिरावट से भी बदतर थी। 1990 के दशक में रूस को भारी मुद्रा स्फीर्ति से भी जूझना पड़।

उन्होंने यह भी लिखा कि ऐसा भी कहा गया है कि रूस और दूसरी नियोजित अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक बदहाली उतनी भी ज्यादा नहीं थी जितनी आंकड़े कहते हैं। ध्यान रहे कि क्रुगमैन के लेख को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह बातें वह पत्रकार नहीं लिख रहा जिसका रूझान वामपंथी हो। क्रुगमैन पंूजीवादी व्यवस्था के पक्षधर दिखते हैं लेकिन वे कोई भारतीय बुद्धिजीवी नहीं हैं जिनके लिए पेशेवर बेईमानी हमेशा से बहुत आसान रही है।

उन्होंने निजीकरण के बाद रूस की अर्थव्यवस्था के पतन को लेकर निष्कर्ष निकालने की भी कोशिश इस लेख में की है। हालंाकि वे चश्मा चढ़ाकर विश्लेषण करने की फितरत के लिए अभिशप्त हैं लेकिन उनकी नियत में खोट नहीं है। उन्होंने लिखा है कि रूस ने जहां -जहां निजीकरण की नीति लागू की वहां सुरक्षा कानून अधिकारों के दुरूपयोग और सामान्य कानूनों की परवाह नहीं की गई। एकाधिकार की प्रवृत्ति को पनपाया गया और निजी कंपनियों को अकूत लूट का अवसर दिया गया। भारत के संदर्भ में जब उनके इन निष्कर्षों पर गौर किया जायेगा तो हमें सिहरन हो सकती है। भारत में भी तो यही हो रहा है। एक कारपोरेट के बंदरगाह पर बार-बार अरबों रूपये की कोकीन चरस की खेप पकड़ी जा रही है फिर भी किसी पर कार्रवाई नहीं हो रही। जाहिर है कि उसके लिए सुरक्षा कानून की परवाह को यहां भी ताक पर रख दिया गया है। प्रतिस्पर्धा की बजाय मोनोपोली की इंतहा यह है कि सरकारी उपक्रम बिना किसी टेण्डर के चहेते कारपोरेटरों के हवाले किये जा रहे हैं और जिनकी कंपनियां मुनाफे वाली देश की 10 टाप कंपनियों से बाहर हैं और जिन्हें सीसीआर के लिए एक धेले का योगदान करना गवारा नहीं है। उन्हें बैंकों से सबसे अधिक कर्ज दिलाया गया है। क्या भारत के लोगों को ऐसी नीतियों से रूस में हुए हश्र से अवगत होकर सतर्कता नहीं अपनानी चाहिए।

क्रुगमैन ने लेख में बताया है कि अव्यवस्थित निजीकरण ने आर्थिक क्षेत्र में वहां एक कुलीन वर्ग पैदा किया जिसके पास बिना कमाये ही अकूत संपत्ति थी। अब भारत का ताजा हाल सोचिये यहां भी देश के 70 प्रतिशत संसाधन आबादी के मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गये हैं। स्पष्ट है कि भारत में भी रूस की तरह आर्थिक क्षेत्र में अकूत संपत्ति वाला कुलीन वर्ग पैदा हो गया है। अगर लोगों में जरा भी राष्ट्रभक्ति है तो इसके कारण रूस जैसे अपने बंटाधार को बचाने के लिए उन्हें ऐसी नीतियों का प्रतिरोध करने को आगे आना होगा। हालांकि उन्होंने यह भी लिखा है कि यह मानना कठिन है कि आर्थिक समृद्धि लोकतंत्र को खारिज करने से आती है और उनकी यह बात सच्चाई से परे कही भी नहीं जा सकती। इसलिए आर्थिक समृद्धि हेतु निजीकरण को प्रोत्साहन में कोई बुराई नहीं है बशर्ते नीतियां स्वस्थ्य और पारदर्शी हों।

पश्चिम में सारा काम निजी कंपनियां ही करती हैं लेकिन वे कर्मचारियों को भरपूर वेतन व अन्य तमाम सुविधायें मुहैया कराती हैं। यहां भी निजीकरण इसी दिशा में अग्रसर हो रहा था पर मोदी सरकार ने इसे पलट दिया। अब निजी कंपनियां नियमित प्रकृति के कामों के लिए भी आउट सोर्सिंग से कामगारों की भर्ती कर रही हैं जिन्हें जीवन निर्वाह से भी बहुत कम वेतन और बिना अन्य सुविधाओं के काम के लिए मजबूर किया जा रहा है। ऐसी क्रूर बेगारी तो सामंतवाद के दौर में भी संभव नहीं थी। सरकार भी अपने विभागों में नियमित भर्तियां करने की बजाय आउट सोर्सिंग से काम चलाने पर आमादा है जिन पर कोई अंकुश नहीं है। ठेकेदार कंपनियां भरपूर मुनाफा कमाती हैं लेकिन कामगारों को गरिमा के साथ जीवन की गाड़ी चलाने लायक मेहनताना देना उन्हें स्वीकार नहीं है। बेरोजगार मांग कर रहे हैं कि अगर सरकार के पास नियमित कर्मचारी भर्ती करने के लिए पैसा नहीं है तो संविदा पर भर्ती की नीति अपना लें। संविदा में कम से कम गुजारा चलाने लायक पगार तो मिल जायेगी। पर सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही।

 प्रधानमंत्री भाषण करते हैं तो इन बड़ी चुनौतियों से जुड़े सवालों की अगर कोई काट हो तो उसकी ही चर्चा कर सकते है लेकिन बजाय इसके वे कहने लगते हैं कि देश के सामने सबसे गंभीर समस्या वंशानुगत शासन की परंपरा है। बेवकूफ बनाने की हद होती है। वंश शासन चलाने वाले आठ साल से सत्ता से बाहर हैं तो आज उनका मुद्दा क्या अर्थ रखता है। महाराष्ट्र में पोल खुल चुकी है कि शिवसेना से टूटे सारे विधायकों पर अज्ञातवास में रहने का खर्चा भाजपा ने ही उठाया और भी उन्हें अनुग्रहित किया होगा। अन्य राज्यों में पहले से और अभी भी यह क्रम जारी है लेकिन यह भ्रष्टाचार नहीं है। मोदी जी कोच्चि में आईएनएस विक्रांत का जलावतरण करते हुए इस बात पर बमके कि भ्रष्टाचार की कार्रवाईयों में फंसे नेताओं को बचाने के लिए आज विपक्ष के कुछ दिग्गज लामबंदी कर रहे हैं। क्या बेतुकी बात है। लोकतंत्र में राजनीतिक उठापठक चलती रहती है। आप विपक्ष की सरकारों को गिराने के लिए जो बनता है वह कर डालते हैं तो दूसरों को भी अधिकार है कि वे आप को गिराकर सत्ता हथियाने के लिए अपने ढं़ग से जतन करें। आप ने लोकतंत्र को नीतियों की प्रतिस्पर्धा की बजाय कबीलाई युद्ध में परिवर्तित करके रख दिया है।

आरएसएस को साम्यवादी-समाजवादी विचारधारा से जन्मजात इलर्जी है। हालंाकि इसके जो कारण उसके द्वारा बताये जाते हैं वे बहाने से ज्यादा अर्थ नहीं रखते। जैसे वे कहते हैं कि साम्यवादी राष्ट्रवाद विरोधी हैं जबकि कम्युनिस्ट देश चीन उनसे कहीं बहुत अधिक कट्टर और उग्र राष्ट्रवादी है और इसी कारण वह भारत को हजम नहीं कर पा रहा। उसे लगता है कि अगर भारत बढ़ेगा तो एशिया में वर्चस्व की उसकी महत्वाकांक्षा लड़खड़ा जायेगी। यह महत्वाकांक्षा उग्र राष्ट्रवाद की ही निशानी है। फिर पूर्व सोवियत संघ और उसके खैमे के सदस्य व चीन का साम्यवाद के प्रणेता माक्र्स से निजी संबंध क्या था। माक्र्स जर्मन था अगर उसकी विचार धारा से राष्ट्रवाद प्रभावित होता तो ये दूसरे देश साम्यवाद को गले लगाने की जरूरत क्यों समझते। क्या इन देशों में गद्दार घुस गये थे। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि हम समाजवाद का समर्थन कर रहे हों। आज साम्यवाद और समाजवाद की प्रासांगिकता चुक चुकी है। प्रगतिशील आर्थिक उदारीकरण का बोलबाला है।

भारत को भी इस खेल के नियमों का पालन करना चाहिए। अगर कारपोरेट अखबार कहते हैं कि उनके पास खुद पत्रकार रखने की हैसियत नहीं रह गई इसलिए उन्हें आउट सोर्सिंग से रोका गया तो वे अखबार बंद कर देंगे तो सरकार हाथ खड़े करने की बजाय उनके मालिकों से यह कहने के लिए तैयार रहे कि आपको अखबार बंद करना है तो बंद कर दो । इससे देश का कुछ भला बुरा होने वाला नहीं है पर हम आपको 12-15 हजार में पत्रकार को 24 घंटे जोतने का मौका नहीं दे पायेंगे। अगर भारी फीस लेने वाले स्कूल कहते हैं कि उनका स्कूल बंद हो जायेगा अगर उनको सरकारी स्कूल के मास्टरों के बराबर वेतन देने के लिए बाध्य किया गया तो उनके संचालकों से कह दीजिये कि आप अपना स्कूल बंद कर दें पर मास्टरों के वेतन के मामले में सरकार कोई समझौता नहीं कर पायेगी। लेकिन दिक्कत यह है कि जिन चीजों को हमने अपनी संस्कृति का पर्याय बना रखा है वे अपने अधीनस्थों को गरिमा के साथ जीने का अवसर देने की व्यवस्था के खिलाफ हैं फिर बात चाहे सामाजिक हो या उद्योग व्यवसाय की। समाजवाद कामगारों के पर्याप्त वेतन की बात करता है तो ऐसी अपसंस्कृति में विश्वास रखने वाली विचारधारा की सरकार को वह क्यों सुहायेगा। असली भारतीय संस्कृति क्या है इस पर चर्चा फिर किसी दूसरे लेख में करेंगे पर संकेत में बताते हैं कि भारतीय संस्कृति का मर्म भगवान कृष्ण की कथा में निहित है जिन्होंने ग्वालों को उनके दूध दही का सही प्रतिदान दिलाने के लिए कंस के शोषक शासन का अंत किया था।

K.P.Singh  
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