10.10.22

संघ प्रमुख का संबोधन हिन्दू समाज के रूढ़िवादी तबके को झकझोरने वाला है!

केपी सिंह-
जातिगत भेदभाव से खंडित होते रहे हिन्दू समाज की हाल में कायम हुई जोरदार राजनैतिक एकता को बनाये रखने के क्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दलितों के तिरस्कार को खतम करने को लेकर एक बार फिर क्रांतिकारी स्तर का वक्तव्य जारी किया है। नागपुर में एक पुस्तक के विमोचन समारोह के अवसर पर उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था अतीत की बातें हो चुकी हैं। अब इन अवधारणाओं को खारिज करना ही बेहतर होगा। उन्होंने ब्राह्मणों से उनके पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गये व्यवहार के लिए माफी मांगने की अपील की। उन्होंने कहा कि इससे उनके नीचे देखने का सवाल नहीं है क्योंकि सभी के पूर्वजों ने अतीत में गल्तियां की हैं जिनका प्रायश्चित होना चाहिए।

राष्ट्र के सवाल के दृष्टिकोण से वर्ण व्यवस्था को भुलाना लाजिमी हो गया है। अन्य देशों में भी इस तरह की समस्यायें रही हैं। खासतौर से अमेरिका और यूरोप के देशों में रंगभेद की समस्या इसका उदाहरण है जहां इसको लेकर गोरा समाज प्रायश्चित व्यक्त कर चुका है। इससे उसका बड़प्पन स्थापित हुआ है न कि गोरे समाज को किसी तरह की तौहीन झेलनी पड़ी है। यह भी दृष्टव्य है कि पश्चिम में रंगभेद और नस्ल भेद से उबरने में सदियों का समय लगा। इसके मुकाबले भारत में वर्ण व्यवस्था की लगाम ढ़ीली करने का काम काफी तेजी से हुआ। वर्ण व्यवस्था की कुरीतियों का श्रेय भले ही ब्राह्मणों को दिया जाता हो लेकिन यह भी सच्चाई है कि सवर्णों की सभी जातियों में ब्राह्मणों का रूख समयानुसार सुधारवाद का रहा है जिससे सामाजिक सामंजस्य बनाये रखने का श्रेय उन्हें अवश्य दिया जाना चाहिए। जैसे कि अछूत होने के कारण जब बाबा साहब अम्बेडकर को कक्षा में पढ़ने नहीं दिया जा रहा था तो एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर ने उन पर पूरी दया दिखाई थी और इसी के आभार स्वरूप बाबा साहब ने उनक सरनेम को अपनाया था। इसी तरह जातिगत भेदभाव के प्रणेता ग्रन्थ मानी जाने वाली मनुस्मृति को बाबा साहब ने जलाया था तो सहस्त्रबाहु जैसे ब्राह्मणों ने इसमें उनके साथ सहभागिता की थी। इसकी तुलना में सवर्णों की अन्य जातियों की सामूहिक चेतना अंधरूढ़िवादी है भले ही उनमें डा राममनोहर लोहिया, वीपी सिंह, अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह जैसे नेता पैदा हुए हों जिन्होंने वंचितों को अधिकार दिलाने में भूमिका निभाई लेकिन उनके योगदान को व्यक्तिगत ही कहा जायेगा। यहां तक कि जाति व्यवस्था की शिकार रही गैर दलित जातियां भी इस मामले में ब्राह्मणों से कमतर रहीं। उनका मौका आया तो दलितों को ब्राह्मणों की तुलना में अधिक द्वोयम दर्जे की स्थिति झेलनी पड़ी और सामाजिक न्याय की क्रांतियों के साथ यह बात बड़ी बिडम्बना साबित हुई।

तथापि भाजपा की सर्वसत्ता देश में कायम होने के बाद देश में वर्ण व्यवस्था के पुररूत्थान के संकेत उभरने लगे हैं। भले ही संघ न चाहता हो लेकिन भाजपा समर्थक नई पीढ़ी की सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाली भावनायें बताती हैं कि वे जातिगत दंभ में इतने चूर हैं कि देश की बहुतायत आबादी को गिनने तक को तैयार नहीं हैं। वे किसी नौजवान छात्र की उपलब्धि को उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा न मानकर जाति की श्रेष्ठता से जोड़ने का प्रयास करते हैं जिससे दलित और पिछड़े अपने को अपमानित महसूस करने लगते हैं। आज पूरी दुनिया मंे इस तरह के पूर्वाग्रहों को तिलांजलि दी जा रही है। विश्व का सबसे अधिक मेहनताना वाले सीईओ के रूप में सुन्दर पिचाई को चुनते समय गूगल ने इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं रखा कि वे इंडियन हैं, गोरे नहीं हैं। इसी तरह हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री की दौड़ में ऋषि सोनक काफी दूर तक जाने का मौका पा गये थे क्योंकि इंग्लैण्ड के लोगों ने उन्हें लेकर यह सोचने की जरूरत नहीं समझी थी कि वे अंग्रेज नहीं हैं इसलिए उन्हें यह मौका कैसे दिया जाये। जिन गोरों ने पूरी दुनिया पर राज किया लेकिन आज बेहतर दुनिया बनाने के लिए अपना यह अभिमान छोड़कर सर्वोत्तम चयन की ओर अग्रसर हैं भले ही इसमें अंग्रेजों के मुकाबले इंडियन या किसी और को बाजी मारने दें तो हमें भी उनसे सबक सीखने की जरूरत है।

जातिगत दुराव के कारण ही हर दृष्टिकोण से साधन सम्पन्न यह देश सदियों तक गुलामी झेलने के लिए मजबूर रहा। शूद्रों को पता था कि हमें कभी देश और समाज की बागडोर नहीं मिलेगी इसलिए उन्हें लगता था कि हम देश के लिए क्यों लड़ें। हमें तो अधीन ही रहना है चाहे देश के सवर्णोें का या बाहरी कोमों का। लेकिन आज यह स्थिति नहीं है। बाल्मीक के लड़के को भी लगता है कि वह कलेक्टर, मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति कुछ भी बन सकता है अगर वह सक्षम है तो आज हर जाति का बच्चा-बच्चा देश की आनबान शान के लिए जान लड़ा देने को तत्पर होने लगा है। इतना मजबूत राष्ट्रप्रेम लोगों में पहले कभी नहीं रहा था। आदिवासी समाज की द्रोपदी मूर्मू के राष्ट्रपति बनने से नक्सलवाद पर जोरदार चोट हुई है क्योंकि नक्सली आदिवासियों का ही इधन के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे पर अब आदिवासियों को लगेगा कि वे देश की मुख्य धारा मंे रहकर कितनी भी उंचाई छू सकते हैं तो नक्सलियों के बहकावे में क्यों आयेंगे।

वर्ण व्यवस्था प्रोफेशनलिज्म और सत्य तक पहुंचने में आज सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है जो कि इस प्रतियोगी विश्व में देश के लिए बहुत घातक है।

अफसरशाही जिसमें जज भी शामिल हैं उनसे वर्ण व्यवस्था के कारण यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे सही इंसाफ करेंगे। अगर उनकी जाति की पार्टी सामने हो तो वे इंसाफ और कानून को किनारे रखकर उसके साथ पक्षपात का कोई मौका नहीं चूकते। ऐसे प्रशासन और न्याय व्यवस्था की साख क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जाति स्वार्थ के कारण इतिहास का वैज्ञानिक विवेचन की क्षमता कुंद हो जाती है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्र देश में इस व्यवस्था से प्रभावित हैं। इसलिए कोई मौलिक स्थापनायें और आविष्कार देश में नहीं हो पा रहे हैं। इतने बड़े देश के लिए शर्म की बात है फिर भी जाति व्यवस्था के मुर्दे को सीने से चिपकाये रखने का मोह यह देश नहीं छोड़ पा रहा है।

वर्ण व्यवस्था के विरोध के नाम पर जो प्रतिक्रियावादी सुर उभरे वे अनिष्ट कारक साबित हुए हैं। उनमें कुंठा और प्रतिशोध की छाया जाति व्यवस्था को और अधिक विकृत करने का कारण बनती रही। सामाजिक न्याय के तमाम आंदोलन ने वर्ण व्यवस्था को हिलाने की बजाय प्रतिवर्ण व्यवस्था के वायरस जन्मा डाले इसलिए माना जाना चाहिए कि सकारात्मक परिवर्तन तभी होंगे जब इसकी आवाज एकांगी न होकर ऐसी जगह से उठेगी जो सर्व स्वीकार्य हो सके। मोहन भागवत स्वयं ब्राह्मण हैं और उन्होंने ब्राह्मणों से उनके पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गये व्यवहार के लिए क्षमा मांगने का अनुरोध किया है जो बहुत बड़ी बात है। देश को एक ऐसे संगठन की सामाजिक सुधारों के लिए जरूरत है जो राजनीतिक गंदगी से परे हो। मोहन भागवत में इस अर्हता को अर्जित करने की ललक नजर आती है। वे दूसरे गांधी और जय प्रकाश बन सकते हैं क्योंकि उनकी भी अपील कम नहीं है। जातिगत भेदभाव के खिलाफ उनसे कठोरता से पेश आने की अपेक्षा की जाती थी जबकि इसके पहले वे इस संबंध में छिटपुट नरम वक्तव्य देने से काम चला रहे थे लेकिन अब वे निरंतरता में जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए कड़वी डोज पिलाने में आमादा हैं।

इसके कारण उन्हें कहीं-कहीं विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है लेकिन समाज में सुधार की नसीहत देने के समय ऐसा होता ही है इसलिए यह स्वाभाविक ही है। पर अगर वे वर्ण व्यवस्था पर लगातार प्रतिघात करते रहे तो बदलाव जरूर होगा। सोशल मीडिया पर इसे मजबूत करने वाले नौजवान अपनी हरकतों से बाज आयेंगे क्योंकि इनमें से अधिकांश की आस्था संघ से जुड़ी हुई है। मोहन भागवत ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही है कि ब्राह्मण जन्मना नहीं कर्म के आधार पर बनता था। यह तार्किक भी लगता है। ब्राह्मण के लिए कितने संयम और वर्जनाओं के प्रावधान हैं कि हर किसी की दम नहीं थी कि वह ब्राह्मण बनने का व्रत स्वीकार करे। निश्चित रूप से पहले यह स्वैच्छिक होता होगा और समाज के लिए समर्पित लोग ही ब्राह्मण बनते होंगे भले ही उनके पिता ब्राह्मण हों या न हों। ब्राह्मण का मतलब होता था कि सम्पत्ति धारण करने के अधिकार से अपने को वंचित कर लेना, सभी तरह से वैभव और ऐश्वर्य से दूरी बनाना, जिव्हा के स्वाद को भूल जाना। इतने त्यागी जीवन वाले के लिए सर्वोच्च आदर देने के लिए समाज को बाध्य होना ही चाहिए। राज्य के फैसलों को धर्म अधर्म की कसौटी पर परखने का अधिकार इसीलिए ब्राह्मणों को दिया गया था। आज भी खासतौर से राजनीति और न्याय व्यवस्था के लिए ऐसे कैडर के निर्माण की सोची जानी चाहिए तो देश में रामराज ही स्थापित हो जायेगा। शायद मोहन भागवत का कहना यह है कि ब्राह्मण होने के लिए पुस्तैनी आधार की वर्ण व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है। संघ में हर प्रचारक के बारे में ब्राह्मण होने जैसी ही कल्पना निहित है भले ही उसकी जाति कुछ भी हो। इसलिए मोहन भागवत ऐसा आवाहन कर रहे जिससे ब्राह्मण बने रहे और जाति व्यवस्था न रहे लेकिन ब्राह्मण कर्म के आधार पर हों ताकि तमाम सामाजिक कार्यो के लिए सरकार का ही मुंह देखते रहने की बजाय निस्वार्थ प्रचारकों जैसा कैडर दान के माध्यम से संसाधनों की व्यवस्था करे। पौराणिक काल में उस समय के ब्राह्मण बड़े कुरूकुल चलाने के लिए ही तो राजाओं से दान मांगने जाते थे। मोहन भागवत के विचारों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए ताकि लोग स्वतः बदलाव के कारवा के हम सफर बन सकें।  

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Regards,
K.P.Singh  
Distt - Jalaun (U.P.)
Whatapp No-9415187850


1 comment:

  1. Achchi bakwaas hai, jo sangh khud hi Mansa wacha karmna ke prachin bhartiy sanskaar ko apnaanit karta aaya h, uske in bolo pe to yhi kaha ja sakta hai, nau sau chuhe khakar billi haz ko chali....

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