1.12.22

संविधान की प्रासंगिकता का मोदी राग

केपी सिंह-

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का न्यूज सेन्स कमाल का है। उन्हें पता है कि भाषण में किस समय क्या बात कहनी चाहिये जो मीडिया की सुर्खी बन जाये और सम्पादक उसी की लीड बनाने के लिये मजबूर हो जायें। फिर भले ही उन्होंने जो कहा उसके लिये खुद ही बहुत गम्भीर न हों। संविधान दिवस के दिन सुप्रीम कोर्ट परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि देश का संविधान आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। प्रधानमंत्री ने अवसर के अनुकूल संविधान का जो महिमा मण्डन किया उसमें कोई अतिश्योक्ति भी नहीं है। लेकिन इसकी सार्थकता तब है जब उनकी पार्टी और उनके अनुयायी भी इससे सहमत हों। अफसोस के साथ कहना पडता है कि इस मामले में वास्तविकता के धरातल पर स्थिति कुछ और ही नजर आती है।

भारतीय संविधान सभी नागरिकों के लिये समानता और स्वतंत्रता को सम्भव बनाने की गारन्टी देता है और इसके लिये उन उपायों को लागू करने का निर्देश देता है जिनसे अनुचित सामाजिक विश्वासों के कारण बहुसंख्यक वर्ग के लिये तिरस्कार की भावना पनपती है और गरिमा के साथ उसे जीने का अवसर देने के तकाजे का निषेध किया जाता है। इसके लिये हमारे संविधान से प्रेरणा लेकर समय समय पर  वंचित वर्गो को विशेष अवसर देने की व्यवस्थायें की जाती रही है। जाति व्यवस्था की भारतीय समाज में जडे बहुत गहरी है इसलिये कानूनों के माध्यम से इस दिशा में किये जाने वाले प्रयासों को समाज के अगुवा वर्ग को हजम करना हमेंशा मुश्किल रहा लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के पहले यह वर्ग युग धर्म की मजबूरी मानकर इसे स्वीकार करने की मानसिकता बना चुका था पर भाजपा के सत्तारूढ होने के बाद उसकी मनुष्यता विरोधी रूढिवादिता पहले से बहुत ज्यादा उग्र स्तर पर सिर उठा चुकी है।

हालांकि नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर पदार्पण के पहले दिन से ही बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों की महानता और नया भारतीय समाज बनाने में उनके योगदान को नमन करते रहे है लेकिन वे उस हठधर्मी तबके को कभी इसमें नहीं ढाल पाये जो मानता है कि उनका बडे बहुमत से सत्ता सम्भालना अवसर है बाबा साहब द्वारा उनकी संस्कृति में पहुचांये आघात के प्रभाव को निर्मूल करके उसकी पुनः स्थापना जिसमें किन्हीं तबको की पैदाइशी श्रेष्ठता को ईश्वर प्रदत्त स्वीकार की जाये और बहुसंख्यक वर्ग में हीन भावना भरके उसे यह स्वीकार करने के लिये मजबूर करना कि ईश्वरीय अभिशाप के कारण वह पैदाइशी कमतर है और इस अभिशाप से छुटकारा पाने के लिये उसको यही उचित है कि समाज में नीची स्थिति में रहने के दण्ड को जन्म भर सहर्ष भोगता रहे ताकि अगले जन्म में उसका उद्धार हो सके। हालांकि ऐसे विचार संस्कृति के नहीं विकृति के परिचायक है भले ही उनको धर्म का जामा पहनाया गया हो।

ऐसे ही तबके भारतीय जनता पार्टी में वर्ग सत्ता का स्थान रखते है इसलिये मोटी की हिम्मत भी नहीं है कि ऐसे लोगों को अपनी सोच बदलने के लिये बाध्य कर सके । लगता है कि शुरू में उन्होंने इस दिशा में प्रयास भी किया पर अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीडन अधिनियम में बदलाव की सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग को निष्प्रभावी करने का विधेयक जब उन्होने संसद में पारित कराया तो उन्हें उनकी गालिया खानी पडी जिन्हें वे अपना दीवानगी की हद तक मुरीद मानते थे । बाद में वे उसी रास्ते पर चलने के लिये बाध्य हो गये जिसकेे लिये पार्टी की वर्ग सत्ता उन्हें  अपने टूल के बतौर देखती थी । सामान्य गरीबों के लिये आरक्षण के प्रावधान के कदम को सुप्रीम कोर्ट ने किस बात से संवैधानिक तौर पर सुसंगत घोषित कर दिया यह एक पहेली है लेकिन मोदी तो जानते ही है कि इसकी वास्तविकता क्या है पर ऐसे ही विशेष अवसर के सिद्धान्त पर कुठाराघात के कदम उठाकर उन्होंने इस बात से पार्टी को आश्वस्त कर दिया कि पार्टी की वर्ग सत्ता के एजेण्डे को पूरा करने की वफादारी में वह 24 कैरेट तक खरे है।

बाबा साहब द्वारा बनाये गये भारतीय संविधान से भी इसी कारण हमेंशा भाजपा की वर्ग सत्ता को नफरत रही है। अटल आडवाणी युग में इस संविधान को रददी की टोकरी में डालकर नये संविधान को लागू करने का प्रयास किया गया था जिसके लिये संविधान समीक्षा आयोग का गठन भी हुआ था । पर बाबा साहब ने संविधान की स्थिरता की ऐसी गारन्टियां की है जिनसे परे जाना किसी सरकार के लिये सम्भव ही नहीं हो सकता है। संविधान में संशोधन की व्यवस्थायें है लेकिन इसके फण्डामेन्टल में कोई तरमीमी नहीं की जा सकती है। इस कारण नये संविधान को लागू करना जब सम्भव नहीं हुआ तो उस समय भाजपा की सरकार को बैकफुट पर जाना पडा था। अगर भारतीय संविधान में फण्डामेन्टल में सेंध लगाने की गुंजाइश होती तो भारत की स्थिति भी पाकिस्तान जैसी हो जाती । नये संविधान को लाने के समय संक्रमण काल से गुजरना पडता जिसमें पुराने संविधान का अस्तित्व शून्य हो जाता और तब उसके आधार पर संचालित सरकार की वैधानिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता। हो सकता है कि संवैधानिकता शून्यता के उस अन्तरिम काल में सेना के अफसर नागरिक सरकार के पदाधिकारियों को पीछे धकेल कर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिये अपने को प्रेरित और प्रोत्साहित पाते । इसलिये बाबा साहब का शुक्र मनाया जाना चाहिये कि यह नौबत नहीं आ पायी। इन्दिरा गांधी ने 1975 में इमरजेन्सी लगाकर लोकतंत्र का अपहरण किया जरूर था लेकिन जल्द ही उन्हें नये चुनाव का कदम उठाना पडा क्योंकि संविधान उनको अनंतकाल तक इमरजेन्सी बनाये रखने की गुजाइश निकालने में बाधक सिद्ध हुआ। एक समय बीजू पटनायक जैसे मूढमति नागरिक नेताओं ने भी सैन्य शासन का द्वार खोलने की हिमाकत देश की स्थिति सम्भालने के लिये सेना को सत्ता सम्भालने को आमंत्रित करके की थी लेकिन वर्तमान संविधान के रहते हुये ही यह सम्भव नहीं हो पाया था और लोगो के लोकतांत्रिक अधिकार छिनने का खतरा एक बार फिर टल गया था।

चूंकि मोदी ने सामाजिक परिवर्तन को अंजाम देने की बजाय पार्टी के यथास्थिति वर्ग के टूल की अपनी नियति निष्कंटक सत्ता चलाने के लिये स्वीकार कर ली है इस कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जैसे उन नेताओं के कार्यो में दखल देेने की जिम्मेदारी से वह बच रहे है जिन्होने सरकार को धार्मिक अथारिटी में बदल कर उन प्रतीकों को बढावा देने का अभियान चला रखा है जिनसे मनुस्मति से जुडे विचारों को बल मिलता है। धर्म के नाम पर वे कर्मकाण्ड , पाखण्ड और सामाजिक भेदभाव की परम्पराओं को सींचने का काम कर रहे है जबकि महान सन्तों ने भी समय समय पर ऐसी छद्म धार्मिकता का प्रतिकार कर समाज के सामने धर्म के वास्तविक मर्म को सामने लाने का उद्यम किया है।

हमारी पौराणिक कथाओं में मारीच  जैसे चरित्रों का उल्लेख है जो धर्म का बाना ओढकर पापाचार करते है। कोई भी वास्तविक धर्म मानवता से परे नहीं हो सकता है, हिन्दू और सनातन धर्म की भी असलियत इससे जुदा नहीं हैं। धर्म सारे इन्सानों को ईश्वर का पुत्र मानने की वकालत करता है ताकि समाज में बन्धुत्व की भावना मजबूत हो। धर्म के नाम पर किसी तबके के अन्दर अपने को सर्वश्रेष्ठ , सबसे बहादुर मानने और दूसरे तमाम तबको को कुदरती अक्षम अयोग्य मानने की ग्रन्थि को पनपाने की हरकतें स्वीकार नहीं हो सकती । व्यक्ति असाधारण हो सकता है कोई नस्ल या जाति नहीं है। लेकिन श्रेष्ठता के मद का नशा भी बहुत गहरा होता है इसलिये यह नशा आसानी से छूटे नहीं छूटता भले ही इससे व्यक्ति के साथ साथ समाज और देश का कितना भी नुकसान हो । अतीत में ऐसा हुआ भी है। फिर भी कोई सबक नहीं सीखा जा रहा । भाजपा की सत्ता मजबूत होने के बाद पार्टी की वर्ग सत्ता में इस नशे को कम करने की बजाय उकसाया गया है। विडबंना यह है कि भारतीय समाज में धर्म भीरूता भी कम नहीं है। आज इसका फायदा उठाकर धर्म के नाम पर जाति आधारित श्रेष्ठता और हीनता की भावना को नया जीवन दिया गया तो सामाजिक न्याय के लिये दशकों से किया जा रहा संघर्ष भी कुन्द हो गया और उन तबकों ने जो सामाजिक अन्याय के भुक्तभोगी है अब एक बार फिर मान लिया है कि  कमतर स्थिति में जीने और उत्थान की महत्वाकांक्षा छोडने की नियति उनके लिये अनिवार्य है। अधिकारों के लिये संघर्ष की बजाय सामाजिक समरसता में वे रमते जा रहे हैं। कम से कम सामाजिक समरसता के नारे के आवरण ने उन्हें बर्बर भेदभाव के युग से तो बाहर ला दिया है। अब उनके साथ उन्हें कमतर मानने के बाबजूद प्रेम का व्यवहार तो किया जा रहा है।

वर्ग संघर्ष का टल जाना अच्छा तो है बशर्ते द्वन्द की उन परिस्थितियों का स्थायी शमन हो जाये जिससे टकराव की नौबत आती है। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तो शोषित तबके को कब तक बेखुदी में बने रहने के प्रति आश्वस्त रहा जा सकता है। उसके अन्दर फिर अधिकार की चेतना जाग्रत होगी जो कि कुदरती अंजाम है तो नये सिरे से संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होने लगेगी। सामाजिक मामलों में गलत दृष्टिकोेण के कारण ही भारतीय समाज में बन्धुता स्थापित नहीं हो सकी और इसका फायदा विदेशी हमलावर उठाते रहे । देश के संविधान में आस्था विकसित की जाये तो भारतीय समाज में नयी समझदारी का विकास हो सकता है। मोदी भाषण कुछ भी दे लेकिन भाजपा ने इस अपेक्षा के विरूद्ध कार्य किया है क्योंकि निहित स्वार्थो के कारण पार्टी का शासक वर्ग मानवता के धर्म की ओर उन्मुख होने को तैयार नहीं है जबकि स्वयं को सच्चा ईश्वर भक्त सिद्ध करने के लिये उसके सामने यही रास्ता है। प्रधानमंत्री मोदी ने संविधान दिवस के अपने भाषण में युवाओं के नये सोच की स्वप्निल बातें कही हैं लेकिन यह खेद का विषय है कि वैश्वीकरण और नेट संचार के इस युग में भारतीय युवा सामाजिक मामलों में जितने विकृत विचारों की ओर आकर्षण दिखा रही है उतना पहले की पीढियों ने कभी नहीं दिखाया । सोशल मीडिया पर उसकी अभिव्यक्तियां जातिगत गुरूर और इतर जातियों के प्रति हेय दृष्टिकोण से भरी होती है जबकि अपने ही लोगो के बडे तबके को हीन भावना से देखने के समाज के लिये अनर्थकारी परिणाम होते है। उस तबके के लोगों का आत्मबल कमजोर होता है जिससे कभी वे अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की क्षमता दिखाने के लिये अवसर नहीं हो पाते । देश की विशाल जनसंख्या को शक्तिशाली मानव संसाधन बनाने की बात आज हो रही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उसको कमजोर करने का प्रयास दिखता है जो कुलद्रोह और देश द्रोह के बराबर है। शायद संघ प्रमुख मोहन भागवत भी इससे चिन्तित हैं। इस कारण उन्होने जाति प्रथा को आज के संदर्भ में आप्रासंगिक कहकर इससे छुटकारा पाने के आवाहन का साहस किया था तो संघ के तमाम अनुयायियों तक ने उन्हें कोसना शुरू कर दिया था जिससे अब उन्हें इस मुददे से मुह चुराना पड गया है। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी संविधान की प्रासंगिकता को अपने घोषित भाषण के अनुरूप साबित करने का युक्तिपूर्ण  प्रयास करें तो देश और समाज पर बडा उपकार होगा।

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