31.1.23

केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य किताब सम्मानित

राजस्थान,चित्तौड़गढ़। 'स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नंदवाना सम्मान' 2021 के लिए बजरंगबिहारी तिवारी लिखित पुस्तक 'केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य' (नवारुण प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद) का चयन निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों- वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह, कवि-चिंतक राजेश जोशी तथा आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने किया। कुल 26 अध्यायों में लिखित इस किताब में पहली बार हिंदी में केरल के कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। किताब सिलसिलेवार ढंग से इस मॉडल स्टेट के निर्माण की व्याख्या करती है। 1850 तक इस राज्य में गुलामी प्रथा क़ायम थी।


दासों के बाज़ार लगते थे। गाय-बैल के बदले मनुष्यों को बेचा जाता था। ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के कारण इस प्रथा को ग़ैरकानूनी घोषित किया गया। सन् 1900 से केरल में रेनेसां का दौर शुरू होता है। एसएनडीपी योगम, साधुजन परिपालिनी सभा और प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा जैसे जन संगठनों ने केरलीय समाज में युगांतर पैदा किया।

परिवर्तन की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया 1934 के बाद उभरे कम्युनिस्ट आंदोलन ने।

1956 में केरल का एकीकरण हुआ। प्रथम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी विजयी हुई। यह दुनिया की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी। इस सरकार ने कई ऐतिहासिक कार्य किए। पुलिस व्यवस्था में सुधार इनमें से एक था। पुलिस अब तक प्राइवेट सेना की भूमिका में थी। वह कारखाना मालिकों, प्लांटेशन स्वामियों और पूँजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए मजदूरों पर लाठी चलाती थी, बंदूक तानती थी। राज्य सरकार ने एक आदेश जारी करके पुलिस से सभी हथियार रखवा लिए। अब पुलिस निहत्थी हो गई और मजदूर निर्भय।  

सरकार ने दूसरा सुधार शिक्षा व्यवस्था में किया। राज्य की स्कूली शिक्षा निजी हाथों में थी। धर्म आधारित शिक्षा दी जाती थी और नियुक्तियों में जमकर धांधली होती थी। सरकार ने शिक्षा को  सेकुलर और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बनाना चाहा। नियुक्तियाँ पारदर्शी तरीके से किए जाने का दबाव बनने लगा। इससे शिक्षा व्यवसायी बड़े क्षुब्ध हो गए।  

सरकार का तीसरा ऐतिहासिक निर्णय भूमि सुधार का था। इसके तहत पिछड़ों, दलितों को भूमि आवंटित किये जाने की व्यवस्था की गई। इस समय भारत में सर्वाधिक मजदूरी केरल में दी जाती थी।

इस सरकार के विरुद्ध जिस तरह का माहौल बनाया गया, सरकार को जिस तरह अपदस्थ कराया गया वह तफसील जानना बहुत ज़रूरी है।

बिडंबना देखिए कि इतनी महत्वपूर्ण किताब आए 3 वर्ष हो गए हैं और अब तक किताब की तीन सौ प्रतियाँ भी नहीं बिकी हैं! हम अंदाज़ लगा सकते हैं कि हिंदी विभाग किन लोगों के हाथ में हैं और पुस्तकालय खरीद की कसौटियाँ क्या हैं। स्वयं केरल जैसे वाम शासित राज्य में सभी विश्वविद्यालय, महाविद्यालय एवं अन्य शिक्षा संस्थानों में कुल मिलाकर दो प्रतियाँ ख़रीदी गई हैं।

ऐसे बेहद प्रतिकूल माहौल में निर्णायक मंडल का फैसला भरोसे को नष्ट होने से बचाता है, प्रीतिकर लगता है।

यद्यपि दक्षिणपंथी संघ सत्ता की निगरानी इतनी तगड़ी है कि किताब पुस्तकालयों तक शायद ही पहुँच सकेगी।

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