22.1.23

रहमान राही: खामोशी से गुजर गया कश्मीर का एक अहम युग

अमरीक-

कश्मीर अक्सर सियासी गतिविधियों और अन्य वजहों से सुर्खियों में रहता है। साल 2023 का पहला पखवाड़ा कश्मीर, कश्मीरियत और समूची अदबी  जमात के लिए बेहद नागवार साबित हुआ। कश्मीर और कश्मीरियत के दिग्गज एवं प्रतिनिधि/समकालीन प्रथम पुरुष साहित्यकार रहमान राही साहब जिस्मानी तौर पर दुनिया से रुखसत हो गए। एक ऐसा खजाना बल्कि बेशुमार खजानें दुनिया को देकर, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें तथा कश्मीरियत और उर्दू जबान को हमेशा-हमेशा के लिए जिंदा रखेगा। प्रोफेसर रहमान राही के किए काम के जिक्र के बगैर कश्मीरियत की बाबत कोई भी संदर्भ निहायत अधूरा अथवा बेबुनियाद होगा। कश्मीरी और उर्दू भाषा की ऐसी ही अजीम शख्सियत थे रहमान राही, जिनसे पूरा मुल्क और समूची दुनिया का विशाल साहित्यिक दायरा बखूबी वाकिफ था।  






 

कविता और शायरी उनकी प्रतिनिधि विधा थी लेकिन कश्मीरी संस्कृति और लोकाचार पर भी उनका काम बेमिसाल होकर अहम था। शेख फरीद, बुल्ले शाह और बाबा गुरु नानक देव के रूहानियत से लबालब भरे काव्य संसार को उन्होंने पंजाबी से कश्मीरी में अनुवाद किया और बाद में अंग्रेजी में भी। इसका एक अर्थ यह भी निकालिए कि राही 700 साल पुरानी कश्मीरी भाषा और सदियों पुरानी उर्दू के साथ-सथ  हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और पंजाबी के भी दक्ष विद्वान थे। उनकी समग्र विविधता, साहित्यिक मर्मज्ञता तथा विद्वता की बदौलत ही उन्हें साहित्य के लिए सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। जिक्रेखास यह कि भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वह पहले कश्मीरी कवि थे, जिन्हें कश्मीरियत कविता की शानदार रिवायत को आगे बढ़ाने में अपनी महत्ती भूमिका के लिए इस शिखर शब्द-पुरस्कार से नवाजा गया।    भारत के लगभग हर राज्य के (पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो) की बड़ी कलम को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाता है। लेकिन रहमान राही की बाबत यह भी गौरतलब है कि तब अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू सहित देश की कई आंचलिक भाषाओं में निकलने वाले प्रमुख अखबारों ने उन्हें ज्ञानपीठ से पुरस्कृत किए जाने पर विशेष संपादकीय टिप्पणियां लिखी थीं। तब शायद ही कोई ऐसी पत्र-पत्रिका थी, जिसने उन पर विस्तृत सामग्री प्रकाशित न की हो। इससे बहुत पहले उन्हें पुस्तक 'नवरोज-ए-सबा के लिए केंद्रीय भारतीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। वह अखिल भारतीय साहित्य अकादमी के आजीवन महत्तर सदस्य भी थे। साहित्य-कला में अप्रीतम योगदान के लिए रहमान राही को पद्मश्री भी दिया गया। इसके अलावा अनेक अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार भी उनको हासिल थे। तमाम पुरस्कार उन्हें कश्मीरियत और उर्दू अदब, बेहतरीन अनुवाद तथा कश्मीरियत की महान और पुरातन संस्कृति को दुनिया से वाकिफ कराने के लिए दिए गए। इस लिहाज से देखा जाए तो कश्मीर और कश्मीरियत के ज्ञात इतिहास का एक मौलिक अध्याय डॉक्टर रहमान राही बहुत पहले बन चुके थे। यानी जिंदा इतिहास!  

भारतीय कविता में उनकी कश्मीरी और उर्दू कविता का मुकाम अव्वल दर्जे का है। आलोचना के क्षेत्र में भी उन्होंने अति उल्लेखनीय काम किया है। कश्मीरी भाषा 700 साल पुरानी है और उसे और ज्यादा सशक्त तथा सकारात्मक एवं जनपक्षीय सरोकारों से वैज्ञानिक ढंग से किस तरह जोड़ा जाए, अपनी उम्र की जीवन संध्या तक इसके लिए वह तत्पर और गहरे तक चिंतित रहे। दिल्ली वह अक्सर वाया पंजाब जाते थे और उनके वाकिफकार तथा प्रशंसक गुरुओं-पीरों तथा अदीबों की इस धरती पर बेशुमार हैं और उनमें से कुछ को वह अपने दीदार जरूर देकर जाते थे। एक बार वह विशेष रूप से पंजाब आए तो जोर देकर कहा कि 'पंजाबियत' ने साझी कश्मीरियत को बचाने के लिए जो 'बलिदान' दिया है, उसकी कोई दूसरी मिसाल मानव सभ्यता में नहीं मिलती। जाहिरन उनका इशारा सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी की कश्मीरी पंडितों के लिए की गई कुर्बानी की ओर था। इतिहास के गहरे जानकार रहमान राही मानते थे कि मुगल साम्राज्य कश्मीरियत को भी खत्म करना चाहता था, जो निहायत अलहदा वजूद रखती है। उसकी अपनी एक परंपरा है जिसमें कश्मीरी मुसलमान और उन्हीं की परंपरा का अनुसरण करने वाले कश्मीरी पंडित एक समान समाहित हैं। इस पर वह बेहद तार्किक होकर लंबी बहस किया करते थे और अपने लेखों में जिक्र तो खैर करते ही थे। इस विषय को केंद्र बिंदु बनाकर वह पूरी एक किताब लिखने की परियोजना पर वर्षो से काम कर रहे थे। उस किताब को कश्मीरी-डोगरी, हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी में भी प्रकाशित होना था। इन पंक्तियों के लेखक की अज्ञानता है कि वह नहीं जानता, इनकी उस किताब का क्या हुआ?        

 विश्व के जगप्रसिद्ध बुद्धिजीवियों में यह आम रहा है कि उन्होंने रचनात्मक लेखन के साथ-साथ अखबारनवीसी भी की। रहमान राही का एक रूप पत्रकार और संपादक का भी है। बेहद विशिष्ट। वह कभी कश्मीर की बुलंद आवाज रहे दैनिक अखबार 'खिदमत' और दैनिक 'आजकल' के संपादक रहे। संपादन पद बेशक अपनी मर्जी से छोड़ दिया लेकिन खिदमत और आजकल समेत कई अखबारों में उनके स्तंभ और लेख नियमित प्रकाशित होते रहे। बताना प्रासंगिक होगा कि राही वामपंथी रुझान के थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कश्मीर के सक्रिय सदस्य थे। एक प्रगतिशील पत्रिका का संपादन भी उन्होंने बखूबी किया। प्रगतिशील लेखक संघ तथा प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन में भी जमीनी स्तर पर सक्रिय रहे। वामपंथी प्रगतिशीलता कि खुला इजहार कश्मीर में किस कदर खतरे का सबब है, कौन नहीं जानता! लेकिन क्या सियासतदान और क्या अलगाववादी--सभी के लिए वह सम्मानित हस्ती थे। कश्मीरी अवाम तो उन्हें 'अपने बीच का' और ' अपना'  मानता ही था।                

रहमान राही का जन्म 6 मई 1925 को श्रीनगर में हुआ था। इसी जनवरी कि 9 तारीख को उन्होंने अंतिम सांस ली। श्रीनगर में ही स्थित नौशेरा मोहल्ले के अपने पुश्तैनी मकान में, जिससे उनका गहरा लगाव था। 1947 के विभाजन के बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर में क्लर्क की नौकरी मिली। वह बचपन में रिवायती इस्लामिया स्कूलों (या मदरसों) में पढ़े थे। बचपन से ही अभावग्रस्त जिंदगी ने उन्हें मेहनतकश बना दिया और अपने बूते उन्होंने पढ़ाई-लिखाई मुतवातर जारी रखी। जिस यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर में उन्होंने फारसी और कश्मीरी साहित्य में उच्चतम् तालीम हासिल की, वहीं पहली बड़ी नौकरी की। उसी विभाग के मुखिया बने और 1977 में सेवा मुक्त हुए। इस बीच उन्होंने कविता, अनुवाद और साझी कश्मीरियत संस्कृति पर सारगर्भित काम करके देशव्यापी नाम कमा लिया था। विश्व भर के साहित्यकारों-लेखकों और कलाकारों में संस्कृतिकर्मियों से उनके गहरे रिश्ते थे। कश्मीर की सियासी नियति और वर्तमान देखिए कि उनके फौत होने की खबर आनन-फानन में नहीं आई। कश्मीर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया लगभग बाधित है और अखबार भी जैसे-जैसे एक सीमित दायरे तक पहुंचते हैं। सो जिन कश्मीरियों के रहमान राही 'संस्कृतिक महानायक'   थे, उनको भी उनके जिस्मानी अंत की खबर मिलने में वक्त लग गया। अब कहीं जाकर उनकी मृत्यु से वाबस्ता विवरण सामने आ रहे हैं और समूचे कश्मीर में शोक सभाएं की जा रही हैं। रहमान राही की कलम में स्याही नहीं कश्मीरियत और उनका खुद का कश्मीरी खून था! जब वह यह कहते थे कि, "जिंदगी मेरे लिए कभी आसान नहीं रही" तो दरअसल वह समूह भाषाई कश्मीरियत को मानने वाले अवाम की हकीकत बयान करते हुए उसे अभिव्यक्त करते थे। करीब 90 साल तक धरती पर विचरे रहमान साहब कश्मीरियत के प्रवक्ता और अभिभावक, दोनों एक साथ थे--इसमें कतई कोई दो राय नहीं।

रहमान राही की प्रमुख कृतियां हैं: नवरोजे सबा, कलाम-ए-राही, सियाह मंज, कहवट, सारसीनासी, बजनुक सूरत-ए-हाल, बाबा फरीद, गुरु नानक, सबा-ए-मुलाकात, त्रिभाषा कोश, उर्दू-कश्मीरी फरहांग (संपादित शब्दकोश), साज सुबहुक इत्यादि। इनमें से बहुततेरी पुस्तकें विभिन्न भाषाओं में अनूदित हैं। हिंदी में उनके कविता संग्रह क्या कीजिए, बात वहशी की, हन्दिफानूस, सिर मिलाते हुए, बैसाख और रफुगर, इस समय में, अधकही बात, पुल के पाए पर, स्वर्णद्वीप, बूढ़ी औरत का एकालाप, संकेत, दुआ, मसखरा, शेर और समुद्र, बात में बात, अंधकार में भी खुलता है रहस्य, मुक्ति और नदी के तल में कश्मीरी, फारसी तथा उर्दू से अनूदित होकर प्रकाशित हैं।    

प्रोफेसर रहमान राही की मृत्यु पर माकपा नेता एमवाई तारिगामी ने ट्वीट कर लिखा कि रहमान राही कश्मीरी साहित्य में सबसे उत्कृष्ट शख्सियतों में से एक थे। उनकी रचनात्मक प्रतिभा को साहित्य की विभिन्न विधाओं में अभिव्यक्ति मिली। उन्होंने अपनी रचनाओं में कश्मीर की संस्कृति को राजनैतिक हलचल को कलात्मक ढंग से बखूबी बयां किया है।   

यकीनन कश्मीरियत अदब के इस मसीहा का जाना एक विस्तृत युग का जाना शणिक अंत है!           



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