पंकज सुबीर-
भोपाल के केपिटल मॉल के आईनॉक्स में प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता यशपाल शर्मा द्वारा निर्देशित राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हरयाणवी फ़िल्म 'दादा लखमी' के विशेष शो को देखने का अवसर मिला। सबसे पहले तो यह कि फ़िल्म भले ही हरयाणवी है लेकिन बहुत अच्छे से भाषा समझ में आ रही थी। इतनी हरयाणवी तो हम दंगल जैसी फ़िल्मों में सुन चुके हैं। फ़िल्म के बारे में क्या कहूँ, ज़्यादा कहूँगा तो लगेगा कि अपने मित्र की प्रशंसा कर रहा हूँ। लेकिन सच कह रहा हूँ कि मैंने बरसों बाद कोई ऐसी फ़िल्म देखी जो पूरे समय बाँध के रखती हो। इतना कसा हुआ निर्देशन, संपादन कि कुर्सी से हिलने का अवसर भी न मिले। यशपाल शर्मा ने अपनी पहली ही फ़िल्म से बहुत बड़ी लकीर खींच दी है। उनके अभिनय का तो मैं हमेशा कायल रहा लेकिन इस फ़िल्म को देख कर मुझे लगा कि उनके अंदर का निर्देशक शायद उनके अंदर के अभिनेता से कहीं ज़्यादा अच्छा है। बहुत चुनौतीपूर्ण है इस तरह की फ़िल्म बनाना और ऐसी बनाना कि दर्शकों को बाँध कर रख ले। आज के दर्शक को, जो कुछ ज़्यादा ही व्यस्त हो गया है। यशपाल शर्मा ने न केवल इस चुनौती को स्वीकार किया है, बल्कि उसे पूरा भी कर के दिखाया है। मेरा बस चले तो इस वर्ष के सारे पुरस्कार इस निर्देशक के नाम लिख दूँ। पिछले वर्ष हिन्दी फ़िल्म उद्योग का सबसे असफल वर्ष रहा है, हिन्दी फ़िल्में एक के बाद एक फ्लाप हुई हैं। हिन्दी फ़िल्म वालों को दादा लखमी देखना चाहिए, उनको समझ आएगा कि दर्शक क्या चाहता है। फ़िल्म हरयाणा में लगातार हाउसफुल चल रही है, जबकि रिलीज़ हुए दो माह से भी ज़्यादा हो चुका है।
उतना ही शानदार कलाकारों का अभिनय। किसी कलाकार का नाम लूँ... लखमी की माँ के रूप में मेघना मलिक का बेजोड़ अभिनय, मेघना मलिक जब भी परदे पर आती हैं, दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। और उतना ही कमाल का अभिनय है उस बच्चे का जिसने बाल लखमी की भूमिका अदा की है। शायद योगेश वत्स नाम है उस बालक का। और राजेन्द्र गुप्ता जी... जिन्होंने नेत्रहीन गायक गुरु मान सिंह की भूमिका अदा की है, ग़ज़ब... उनके अभिनय का तो मैं पहले से ही कायल हूँ लेकिन इस फ़िल्म में तो उन्होंने कमाल ही किया है। यशपाल शर्मा के फ़िल्म में बस शुरुआत में ही दो दृश्य हैं और दोनों में उन्होंने दादा लखमी को जीवंत कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे दादा लखमी ऐसे ही रहे होंगे। उस मस्ती, उस बेफ़िक्री और उस कलंदरपन को क्या साकार किया है यशपाल शर्मा ने, हालाँकि उसके बाद फिर फ़िल्म में उनका रोल नहीं है, अब जब दादा लखमी का भाग 2 आएगा तो उसमें उनका रोल प्रारंभ होगा। यह फ़िल्म बाल लखमी और युवा लखमी की कहानी है। इंटरवाल से पहले बाल और उसके बाद युवा। युवा लखमी का रोल भी हितेश शर्मा ने बहुत अच्छे से किया है, लेकिन इंटरवल से पहले जो अभिनय बाल लखमी के रूप में योगेश वत्स ने किया, वह दर्शकों के दिमाग़ से उतर नहीं पाता।
बहुत दिनों बाद कोई फ़िल्म देखी जो दर्शकों को इमोशनली कनेक्ट कर रही थी। मेरे पास की सीट पर वरिष्ठ कवि, कथाकार, उपन्यासकार आदरणीय संतोष चौबे जी बैठे थे, उन्होंने भी कहा कि फ़िल्म ने इमोशनल कर दिया। फ़िल्म इतनी साफ सुथरी है कि कोई असहजता नहीं पैदा करती। और सबसे बड़ी बात यह है कि फ़िल्म में कोई फूहड़ हास्य के दृश्य या संवाद नहीं हैं, लेकिन उसके बाद भी फ़िल्म ख़ूब गुदगुदाती है हँसाती है। और फिर अगले ही दृश्य में आपकी पलकें भी नम कर देती है। मेघना मलिक और योगेश वत्स के बीच के संवाद, उनके बीच माँ और बेटे के रिश्ते की जो धूप-छाँव दिखाई गई है, वह दर्शकों को ख़ूब गुदगुदाती है। स्थिति यह है कि कोई संवाद नहीं है, बस माँ बेटे को देख रही है और दर्शक हँस-हँस के लोटपोट हो रहे हैं। अपनी कहूँ तो बहुत दिनों बाद किसी फ़िल्म को देखते हुए हँसा। नहीं तो फूहड़ हास्य कार्यक्रमों और फ़िल्मों ने दिमाग़ की ऐसी हालत कर दी है कि कॉमेडी देखते हुए रोना आता है। यशपाल शर्मा ने निर्देशन में एक बड़ा कमाल यह किया है कि परिस्थितिजन्य हास्य पैदा किया है, जिन दृश्यों में हास्य है, उनमें वह दृश्य में ही अंतर्निहित है, बाहर से ठूँसा नहीं गया है।
इस फ़िल्म का एक और बहुत सशक्त पक्ष इस फ़िल्म की फ़ोटोग्राफ़ी और इसके सेट्स हैं। क्या कमाल है। 1900 के आस पास का हरयाणा का गाँव साकार कर दिया है। बहुत अच्छे मित्र और चित्रकार भाई जयंत देशमुख को भी बहुत-बहुत बधाई । कैमरे और सेट्स ने मिल कर एक अलग ही दुनिया रच दी है फ़िल्म में। जयंत देशमुख जी इस तरह का कमाल करते रहते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में गाँव की, घर की, वस्तुओं की डिटेलिंग देखने लायक है। मैं तो कई बार फ़िल्म को छोड़कर सेट्स की बारीकी में उलझ जाता था।यह फ़िल्म एक बार फिर उस तथ्य को स्थापित कर देती है कि फ़िल्म एक ऐसी विधा है जो कई सारे गुणीजनों के एक साथ मिलने पर बनती है, न कि आजकल की तथाकथित फ़िल्मों की तरह, जिनमें एक निर्देशक और एक सुपर स्टार मिल कर सोचते हैं कि हम ही सब कुछ कर लेंगे। यह फ़िल्म सामूहिक प्रभाव का महत्त्व भी बताती है कि केवल अच्छे दृश्य से सब कुछ नहीं होगा, उसके साथ अच्छा अभिनय भी होना ज़रूरी है। बस कुछ सामूहिक प्रभाव से होता है। सरशार सैलानी की ग़ज़ल का मतला है न- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।
अब बात करते हैं संगीत की। चूँकि यह फ़िल्म एक गायक, एक कवि के जीवन पर आधारित है, इसलिए इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण संगीत कभी भूमिका होगी यह तो तय ही था। उस पर संगीत निर्देशक भी कौन ? मेरे प्रिय उत्तम सिंह, दिल तो पागल है से लेकर दुश्मन फ़िल्म का चिट्ठी न कोई संदेश रचने वाले उत्तम सिंह। क्या संगीत दिया है फ़िल्म में उन्होंने। ग़ज़ब। आप यदि उत्तम सिंह का संगीत पहले से भी सुनते रहे हैं तो आप पाएँगे कि उनके संगीत में बहुत अलग बीट्स होती हैं ताल वाद्यों की, और उनके संगीत में एक गूँज होती है। वह गूँज इस फ़िल्म में जैसे ब्रह्माण्ड का नाद बन कर उपस्थित है। क्या कमाल के गाने बनाए हैं, वाह और उतने ही कमाल के शब्द तथा गायकी भी। एक गीत पर राजेन्द्र गुप्ता जी ने नेत्रहीन गायक के रूप में ग़ज़ब किया है। इस फ़िल्म के गाने बहुत दिनों तक दिमाग़ में रहेंगे।
कुल मिलाकर बात यह कि अगर आपको भी एक साफ सुथरी फ़िल्म देखनी हो, एक सचमुच की फ़िल्म देखनी हो तो दादा लखमी ज़रूर देखिए। दुख की बात है कि ऐसी फ़िल्में पूरे भारत में रिलीज़ नहीं हो पातीं। लेकिन आप के आस पास अगर यह फ़िल्म लगी हो तो ज़रूर जा कर देखिए। यह फ़िल्म चंदन धूप की गंध की तरह देर तक आपको सुवासित करती रहेगी। आप इसके प्रभाव से निकल ही नहीं पाएँगे। जबकि यह फ़िल्म अभी तो अधूरी है, केवल पहला पार्ट ही है फ़िल्म का। उसके बाद भी मन पर गहरी लकीर छोड़ कर फ़िल्म समाप्त होती है। बहुत दिनों बाद किसी फ़िल्म में दर्शकों की तालियाँ बजती देखीं। फिर कभी अवसर होगा तो इस फ़िल्म पर विस्तार के साथ बात करूँगा, फिलहाल तो बस इतना ही है। अंत में एक बात जो बाहर आते समय कवि विनय उपाध्याय जी ने कही- पंकज भाई क्या कमाल का निर्देशन है, बस यह निर्देशक मुंबई की मुंबइया फ़िल्मों में न उलझ जाए।
सलाम यशपाल शर्मा...
सादर: पंकज सुबीर
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