अमरीक-
गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, नानक सिंह, जसवंत सिंह कंवल के बाद राम सरूप अणखी पंजाबी और पंजाब के ऐसे लेखक थे जिन्हें सबसे ज्यादा पढ़ा गया। उनके विशाल पाठक वर्ग का दायरा आज भी निरंतर विस्तार ले रहा है। जबकि जिस्मानी तौर पर उन्हें विदा हुए आज पूरे तेरह साल हो गए हैं। पंजाबी के हिंदी तथा दूसरी भाषाओं में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले साहित्यकारों में उनका नाम शिखर पर है। निसंदेह वह अपनी मिट्टी के ऐसे घने वृक्ष थे जो आज भी घनी छांह दे रहा है। पंजाब (खासकर मालवा) का ग्रामीण समाज और किसानी जनजीवन उनके कथा साहित्य की आधारभूमि रहा है। पंजाब की किसानी और ग्रामीण लोकाचार को साहित्य के जरिए जानने के लिए राम सरूप अणखी के बेमिसाल उपन्यास और कहानियां अपरिहार्य हैं। मालवा के केंद्र में बसा कदरन छोटा-सा कस्बेनुमा शहर बरनाला (जो अब जिला है) 'अणखी के शहर' के नाम से भी जाना जाता है। युवावस्था में पुश्तैनी गांव धौला से वह यहां आकर बस गए थे लेकिन मुड़-मुड़कर अपने गांव की मिट्टी की ओर जाते थे। प्रति सप्ताह गांव धौला जाना उन्होंने ताउम्र जारी रखा। मौसम, हालात और सेहत जैसी भी हो... यह अनवरत सिलसिला नहीं टूटा। धौला और उसके इर्द-गिर्द के गांव-कस्बे और वहां के बाशिंदे उनके हर उपन्यास-कहानी में मिलेंगे। गांव और ग्रामीण उनकी माशूक थे। मिट्टी से इतनी बेइंतहा मोहब्बत करने वाले लेखक बहुत कम हैं और अणखी सरीखे तो और भी कम। उनकी अस्थियां भी, वसीयत और आखिरी इच्छा के मुताबिक इन्हीं खेतों और जमीन को सींचने वालीं (खेतों के किनारे बहतीं) नहरों में विसर्जित की गईं थीं।
सत्तर के दशक में 'सारिका' के संपादक हिंदी के विख्यात लेखक कमलेश्वर को राम सरूप अणखी ने खुद अनुदित करके अपनी एक कहानी प्रकाशनार्थ भेजी तो उस कहानी में चित्रित पंजाबी ग्रामीण जीवन की यथार्थवादी अद्भुत छवियां देखकर कमलेश्वर दंग रह गए और उन्होंने स्वीकृति के साथ एक लंबी चिट्ठी अणखी को भेजी। दोनों के बीच संबंधों का सिलसिला रफ्ता-रफ्ता संपादक-लेखक से कहीं आगे बढ़ता हुआ बाकायदा दोस्ती में तब्दील हो गया। राम सरूप अणखी, हिंदी कथा-पुरुष और प्रतिष्ठित संपादक कमलेश्वर के प्रिय पंजाबी कथाकार हो गए। एक मायानगरी मुंबई (तब बंबई) में बैठा था तो दूसरा सुदूर पंजाब के एक बड़े गांव जैसे कस्बे बरनाला में। दोनों के बीच कई सालों की अवधि में सैकड़ों खतों का आदान-प्रदान होता रहा। खत इतने कि वे बखूबी 'कमलेश्वर-अणखी संवाद' जैसी किसी पत्र-ग्रंथावली का रूप बखूबी अख्तियार कर सकते हैं।
हिंदी पाठकों ने राम सरूप अणखी को 'सारिका' के कमलेश्वर काल के जरिए जाना और इसी से उन्हें हिंदी समाज का एक बड़ा पाठक-प्रशंसक समुदाय हासिल हुआ। अपने दौर का मील पत्थर रही इस पत्रिका में अणखी ने कभी-कभार वाला स्तंभ लेखन भी किया। वह 'सारिका' में नियमित प्रकाशित होने वाले इकलौते पंजाबी लेखक थे। हिंदी के बेशुमार पाठक और लेखक अभी मौजूद हैं जिन्होंने ग्रामीण पंजाब के दुर्लभ और यथार्थ से ओतप्रोत ताने-बाने को 'सारिका' में अणखी की रचनाओं के जरिए जाना-समझा।
राम सरूप अणखी के दोस्ताना मोह और उनके रचित पंजाब के गांवों को करीब से अपनी आंखों से देखने की शिद्दत ने बेहद व्यस्त रहने वाले कमलेश्वर को बरनाला की यात्रा तथा अणखी की मेहमाननवाजी भी करवाई। इसी तरह हिंदी के कई लब्धनिष्ठ साहित्यकार उनके बुलावे पर पंजाब/बरनाला आए। कुछ बिनबुलाए भी सअधिकार आए और यारबाश अणखी ने उन्हें पलकों पर बिठाया। उस पंजाब और पंजाबियत से रूबरू करवाया जिसे उन्होंने महज किताबों-कहानियों में पढ़ा था या किस्सों में सुना था।
'सारिका' के जरिए राम सरूप अणखी की कहानियां और उपन्यास अंश व्यापक हिंदी समाज तक तो पहुंचे ही, आगे वहीं से उनका गुजराती, मराठी, तेलुगू, कन्नड़, उर्दू, अंग्रेजी, डोगरी और मलयालम में अनुवाद का सिलसिला शुरू हुआ। इससे वह देश भर की विभिन्न भाषाओं में पढ़े जाने लगे और बेतहाशा मकबूल हुए। विदेशी भाषाओं रूसी, चीनी, जर्मन और स्पेनिश में भी उनकी कहानियों के अनुवाद हुए और पढ़े गए।
नागपुर की एक पाठिका शोभा उनकी बहुत बड़ी प्रशंसक थीं। वह उनकी कोई भी रचना पढ़कर उन्हें चिट्ठी लिखतीं और नियमानुसार अणखी हर चिट्ठी का जवाब देते। पत्नी की असामायिक मृत्यु के बाद वह अवसाद से गुजर रहे थे। उसी दौरान शोभा जी से उनका रिश्ता प्रेम में बदल गया और दोनों ने अपने- अपने संबंधियों-रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद विवाह कर लिया। राम सरूप अणखी शोभाजी को अपनी सबसे बड़ी और अमूल्य 'रॉयल्टी' कहा करते थे। अभी कुछ महीने पहले ही शोभा जी संसार से अलविदा हुईं हैं। वह खुद भी मराठी में लिखतीं थीं।
राम सरूप अणखी का जन्म 28 अगस्त, 1932 को बरनाला के गांव धौला में हुआ था। खेती से गुजारा नहीं मुश्किल से होता था तो सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए। एमए तक की पढ़ाई की और बाद में उनके कथा साहित्य पर एमफिल तथा पिएचडी होने लगीं। उनकी अब तक प्रकाशित 40 पुस्तकों में 15 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, चार काव्य संग्रह, यात्रा वृतांत, आत्मकथा सहित संपादित कई पुस्तकें हैं। उपन्यास 'कोठे खड़क सिंह' (हिंदी में 'एक गांव की कहानी') के लिए उन्हें 1987 में अखिल भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। 'कोठे खड़क सिंह' के सौ के करीब संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और यह पंजाबी/हिंदी में अणखी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला उपन्यास है। कई अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद चर्चित रहा। उनके एक अन्य उपन्यास 'प्रतापी' को भी खासी मकबूलियत हासिल हुई। इन दोनों उपन्यासों ने पंजाबी प्रकाशन जगत और पाठक समुदाय में नए रिकॉर्ड कायम किए हैं। वस्तुरचना के हिसाब से भी दोनों उपन्यास नायाब हैं ही। 'प्रतापी' पर टीवी धारावाहिक बना। उनकी प्रतिनिधि कहानियों पर भी टीवी कार्यक्रम निर्मित हुए हैं।
उन्नसवीं सदी के आखिरी दशक में पंजाब की बदहाल होती किसानी और किसान एवं खेत मजदूरों की दर्दनाक आत्महत्याओं पर राम सरूप अणखी ने कई बहुचर्चित उपन्यास लिख कर भूमिपुत्रों की पीड़ा को रचनात्मक तथा हस्तक्षेपकारी अभिव्यक्ति दी। उनके इन उपन्यासों के मृत या जिंदा पात्र आज भी बरनाला, बठिंडा, मानसा, संगरूर और मोगा के गांवों में मिल जाएंगे। सबके परिवार भी। 'सल्फास' और 'कनकां दा कत्लेआम' सरीखे उनके उपन्यास मरती किसानी का सच शिद्दत से बयान करते हैं। कोठे खड़क सिंह और प्रतापी की मानिंद इन उपन्यासों के संस्करण भी प्रतिवर्ष तकरीबन दो बार प्रकाशित होते हैं। रोजी-रोटी की तलाश में बिहार और उत्तर प्रदेश से पंजाब आने वाले प्रवासी खेत मजदूरों की पीड़ा पर भी उन्होंने खूब लिखा। पंजाबी में लिखे ऐसे एक दुर्लभतम उपन्यास (भीमा) का अनुवाद मशहूर हिंदी कथाकार अमरीक सिंह दीप ने 'बिहारी एक्सप्रेस' नाम से किया है। इसी वर्ष उन्हीं का किया अनुवाद 'कनक का कत्लेआम' (पंजाबी में कनकों का कत्लेआम) अमन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। पंजाबी किसानी के मौजूदा यथार्थ के अनछुए पहलुओं को समझने के लिए हिंदी पाठकों को दोनों उपन्यास जरूर पढ़ने चाहिएं। यह जानने के लिए भी कि कोई बड़ा लेखक कैसे खुद मिट्टी होकर अपनी मिट्टी की सच्ची बात करता है।
राम सरूप अणखी को पंजाबी साहित्य की 'अणख' बखूबी कहा जा सकता है। 'अणख' का व्यवहारिक मतलब जिद्दी आत्मसम्मान/आत्मदृढ़ता और इज्जत भी होता है। वह सही मायने में यकीनन 'अणखी' थे। अध्यापकी की सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने मासिक पंजाबी पत्रिका 'कहानी पंजाब' का प्रकाशन-संपादन शुरू किया। कहानी पंजाब के बैनर तले वह हर साल डलहौजी में एक बड़ी कहानी संगोष्ठी करवाया करते थे जिसमें तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक शिरकत करते थे। डलहौजी कहानी संगोष्ठियों में हिंदी के नामचीन लेखक असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी आदि भी एकाधिक बार आ चुके हैं। अणखीजी के जिस्मानी अंत के बाद उनके बेटे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और खुद पंजाबी के ख्यात लेखक डॉक्टर क्रांतिपाल ने न 'कहानी पंजाब' का सिलसिला थमने दिया और न डलहौजी में होने वाली कहानी संगोष्ठी का। तीन दिवसीय डलहौजी संगोष्ठी अब अणखी साहब की याद में (आमतौर पर 28 से 30 अगस्त तक) समर्पित रहती है। पल्लव, गौरीनाथ और पल्लवी प्रसाद जैसे युवा लेखक भी उसमें शामिल हो चुके हैं। उस संगोष्ठी में लेखक अपनी कहानी पढ़ता है और सहभागी लेखक उस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। डलहौजी कहानी संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने वाले लेखक अनूठे अनुभव लेकर लौटते हैं। डॉक्टर क्रांतिपाल ने अपने महान लेखक पिता की बनाई इस परंपरा को किसी भी साल नहीं तोड़ा और सारा बंदोबस्त वह अपने तईं करते हैं।
राम सरूप अणखी के कथा संसार के पात्र और कथानक साधारण ग्रामीण, किसानी जीवन स्तर के रहे हैं। उनमें कोई बहुत आकाशाचारी मनोकामनाएं नहीं हैं। न ही कुछ ज्यादा हासिल करने की चाहत। उनके लिए जीवन को अपने ढंग से जी सकना और निभा पाना ज्यादा अर्थ रखता है। बतौर लेखक अणखी ने अपने लेखन में न कभी समाज सुधारक बनने की कोशिश की और न ही उपदेशक होने की। उनके पात्र ऊंचे और बड़े ख्वाब नहीं देखते। बेशक बेहतर जिंदगी और बेहतर दुनिया को बनाने और उसमें जीने का जज्बा जरूर उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है।
राम सरूप अणखी के ज्यादातर उपन्यासों और कहानियों का परिवेश ग्रामीण है। लिखने से पहले वह कई गांवों में डूबकर विचरते। उस गांव का पूरा नक्शा कागज पर उतारते। हर गांव के एक-एक घर में जाते और तमाम सदस्यों से मिलते। इसे भी नोट करते कि कौन-सा किसान किस कृषि यंत्र के साथ खेती करता है। दुधारू और पालतू पशुओं तक का आचार-व्यवहार करीब से देखते। उसके बाद कई महीनों की मेहनत कागज पर उपन्यास के रूप में उतरती। लिखी कृति का कई बार पुर्नलेखन करते और फिर वाया प्रकाशक पाठकों के हवाले।
बरनाला का वह कमरा जिसमें बैठकर अपने तरह का विशुद्ध यथार्थवादी ग्रामीण समाज राम सरूप अणखी ने रचा, अभी भी जस का तस, वैसे का वैसा है। उनकी यादों की खुशबू बिखेरता हुआ। उसी कमरे में वह अपने अवसान की शाम, 14 फरवरी 2010 में आखिरी बार सशरीर बैठे थे!
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